वैदिक आदर्शों के अनुसार ही हमें तर्पण और श्राद्ध करना चाहिए : देव मुनि
यज्ञ के ब्रह्मा देव मुनि जी महाराज ने आर्य समाज की मान्यताओं के अनुसार तीसरे महायज्ञ पितृ यज्ञ पर अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि तीसरा महायज्ञ पितृयज्ञ है। उन्होंने कहा कि इस के दो भेद हैं एक तर्पण और दूसरा श्राद्ध। तर्पण उसे कहते हैं कि जिस से कर्म से विद्वान रूप देव ऋषि और पितरो को सुख युक्त करते हैं उसी प्रकार जो उन लोगों का श्रद्धा से सेवन करना है तो श्राद्ध कहता है ।यह तर्पण आदि कर्म विद्यमान जो जीवित है उन्हीं में घटता है। मृतकों में नहीं। क्योंकि उनकी प्राप्ति और उनका प्रत्यक्ष होना दुर्लभ है। इसी से उनकी सेवा भी किसी प्रकार से नहीं हो सकती। किंतु जो उनका नाम लेकर (मृतकों को) देवे, वह पदार्थ उनको कभी नहीं मिल सकता। इसलिये मृतकों को सुख पहुंचाना सर्वथा असंभव है। इसी कारण विद्यमानों (जीवितों) के अभिप्राय से ‘तर्पण’ और ‘श्राद्ध’ वेद में कहा है।पितृयज के विषय में ऋषि दयानन्द ने पंचमहायज्ञविधि पुस्तक में विस्तार से लिखा है।
इस अवसर पर कार्यक्रम संचालक कार्य सागर खारी ने अपने विचार व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा कि पंचमहायज्ञ विधि एक अत्यन्त महत्वपूर्ण पुस्तक है। इसके अध्ययन व पंच महायज्ञों के विधान के अनुसार आचरण व व्यवहार करने से हमारे धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष सिद्ध होते हैं। जो व्यक्ति इस जन्म व परजन्म में दुःखों से पृथक होकर मोक्ष प्राप्त करना चाहें, उन्हें पंचमहायज्ञविधि के अनुसार अनुष्ठान करते हुए सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, वेदों के भाष्य, दर्शन, उपनिषद, मनुस्मृति आदि ग्रन्थों का अध्ययन करते हुए आचरण करना चाहिये। इससे निश्चय ही जीवन सुखी होता है एवं सात्विक इच्छाओं की पूर्ति होती है। इसके साथ मनुष्य की शारीरिक, आत्मिक एवं सामाजिक उन्नति होती है और हमारे परलोक वा परजन्म में भी सुधार होता है।