प्रभुनाथ शुक्ल
राजनीति में सुचिता का सवाल सबसे अहम मसला है। बेदाग छवि के राजनेता और चरित्र की राजनीति वर्तमान दौर में हासिए पर है। टीवी का वह विज्ञापन भारतीय राजनीति पर सटीक बैठता है कि ‘दाग अच्छे हैं’। देश में यह मुद्दा चर्चा का विषय रहा है कि राजनीति का अपराधीकरण क्यों हो रहा है। दागदार और आपराधिक वृत्ति के व्यक्तियों को राजनीतिक दल प्रश्रय क्यों दे रहे हैं। वर्तमान परिदृश्य में यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि राजनीति का अपराधीकरण हुआ है या फिर राजनीति ही अपराधियों, बाहुबलियों कि हो चली है। जहाँ अब बेदाग चेहरों का कोई मतलब नहीं रहा। क्योंकि एक चरित्रवान व्यक्ति राजनीति की बदबू से खुद को अलग रखना चाहता है।
राजनीति में अब जनसेवा की आड़ में जेब सेवा हो रही है। पहले जैसी साफ-सुथरी राजनीति की उम्मीद करना बेइमानी है। कल जिन अपराधियों का सहारा लेकर लोग राजनेता बनते थे आज वहीं अपराधी खुद को सुरक्षित रखने के लिए राजनेता बन गया है। यह बदलती भारतीय राजनीति का नया चेहरा है। लेकिन उम्मीद बाकि है। सुप्रीमकोर्ट ने पूर्व में दिए गए अपने फैसले के अवमाना मामले में हाल में एक अहम फैसला सुनाया है। जिससे यह उम्मीद जगी है कि राजनीति में थोड़ी सुचिता आ सकती है, लेकिन अभी अदालत को इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर बहुत कुछ करना है। लोगों कि रही-सही उम्मीद बस अदालत पर है। सुप्रीमकोर्ट के फैसले के बाद राजनीति कितनी पवित्र होगी यह तो वक़्त बताएगा, लेकिन देश और समाज के साथ प्रबुद्ध वर्ग में एक संदेश गया है।
सुप्रीम कोर्ट की तरफ से बिहार चुनाव से पूर्व एक फैसला आया था जिसमें कहा गया था कि आपराधिक छवि के उम्मीदवारों का ब्यौरा सार्वजनिक होना चाहिए। इसकी सूचना अखबारों आनी चाहिए। जनता को भी यह मालूम होना चाहिए कि जिस व्यक्ति को वह चुनने जा रहे हैं उसकी पृष्ठभूमि क्या है। उसकी सामाजिक छबि क्या रही है। लेकिन ऐसा नहीं किया गया। उन्हीं याचिकाओं कि अवमानना की सुनवाई करते हुए अदालत सख्तरुख अपनाया है। इस गुनाह के लिए भाजपा, कांग्रेस, माकपा, राकांपा समेत आठ दलों पर पांच से एक लाख का जुर्माना लगाया है। इसके अलावा बिहार विधानसभा में चुनकर गए आपराधिक नेताओं की सूची सार्वजनिक करने के साथ राजनीतिक दलों को यह भी बताने को कहा है कि आखिर ऐसी क्या मज़बूरी थी जिसकी वजह से उन्होंने आपराधिक छबि वालों को पार्टी से उम्मीदवार बनाया। क्या पूरे बिहार में चरित्रवान यानी बेदाग छबि का उम्मीदवार मिला ही नहीं? निश्चित रुप से सर्वोच्च अदालत का फैसला स्वागत योग्य है।
सर्वोच्च अदालत के फैसले पर अगर चुनाव आयोग पूरी पारदर्शिता और निष्पक्षता से काम करता है तो देश में एक नई तरह की राजनीति की शुरुआत होगी। अदालत ने अपराधियों के बारे में खूब प्रचार-प्रसार कर जनता को जागरूक करने को कहा है। इसके लिए मिडिया और अन्य संदेश माध्यमों का भी सहारा लेने की बात कही है। अदालत ने राजनीति के अपराधी करण पर गहरी चिंता भी जाताई है। चिंता जताना लाजमी भी है क्योंकि राजनीति में अब एक आदमी चाहकर भी प्रवेश नहीं कर सकता है। क्योंकि उसके पास न बाहुबल है और न धनबल। अब सत्ता और सरकारों को लोकतंत्र की पवित्रा और सूचिता से कोई सरोकार नहीं है। सत्ता और सियासत का अब सिर्फ एक ही मकशद रह गया है कि चुनावों में साम, दाम, दंड, भय और भेद के जरिए अधिक सीट निकाल कर सत्ता हासिल कि जाय। जिसकी वजह से राजनीति में अपराधियों का प्रवेश हो रहा है। क्योंकि एक बेदाग छबि का व्यक्ति यह सब नहीं कर सकता है। तभी तो राजनीति को ‘दाग अच्छे हैं’ वाले व्यक्ति पसंद हैं।
भारतीय संसद कि शोभा बढ़ाने वाले चालू सत्र में यानी 2019 में चुनकर आए 43 फीसदी माननीय दागी छबि के हैं। जबकि 2004 में यह 24 फीसदी था। लगातार आपराधिक पृष्ठभूमि से लोग संसद पहुंच रहे हैं। 2009 में यह 30 फीसद हो गया जबकि 2014 में यह संख्या 34 फीसदी तक पहुंच गईं। फिर सोचिए संसद का हाल क्या होगा। इस हालात में हंगामा रहित सत्र कि कल्पना कैसे की जा सकती है। बेल में बिल नहीं फाड़े जांएगे, माइक नहीं तोड़ी जाएगी, नारेबाजी नहीं होगी, सभापति पर कागज के गोले नहीं डाले जांएगे तो और क्या होगा। सदनों के सम्बोधन में लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला और उपसभापति नायडू ने सदस्यों के व्यवहार पर आहत दिखे। नायडू ने कहा मुझे आंसू आ गए जबकि बिड़ला ने कहा महत्वपूर्ण सत्र हंगामें की भेंट चढ़ गया। करोड़ों रुपए शोर ने निगल लिया। फिर हम कैसी संसद का निर्माण करना चाहते हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने अहम फैसले में कुछ खास बातें कहीं हैं जिसका भारतीय राजनीति पर सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। अदालत ने कहा है उम्मीदवारों के चयन के 48 घंटे पूर्व राजनीतिक दलों को अपराधिक ब्यौरा प्रकाशित करना होगा। यह ब्यौरा बेवसाइट पर भी प्रकाशित होगा। आयोग एक मोबाइल ऐप बनाएगा जिसमें सम्बंधित दल टिकट पाने वाली आपराधिक पृष्ठभूमि के उम्मीदवार का सारा ब्यौरा उसमें रहेगा। इसके अलावा एक और ख़ास फैसले में कहा है कि अब सरकारे माननीयों पर लदे आपराधिक मुकदमों को बगैर उच्चन्यालय के आदेश के बिना नहीं हटा सकती। इसकी सूचना उच्चन्यालय को सर्वोच्च अदालत को भी देनी होगी। इसके साथ ही सांसद, विधायकों के मुकदमों को देख रही विशेष अदालतें के न्यायाधीश भी जो सम्बंधित मुकदमों की सुनवाई कर रहे हैं वे अगले आदेश तक बदले नहीं जाएंगे। अदालत की तरफ से आए सभी फैसले राजनीति की सुचिता बनाए रखने में ‘मील का पत्थर’ साबित हो सकते हैं, लेकिन जनता को भी अपने मतों का प्रयोग सोच समझ कर करना होगा। हांलाकि अभी बहुत परिवर्तन की उम्मीद नहीं कि जा सकती है, लेकिन एक उम्मीद तो बध कर आयी है कि आने वाले दिनों में सबकुछ अच्छा होगा।