राजा दाहिर सेन के राज्यारोहण के समय की परिस्थितियां
समुद्र और पर्वतों ने भारत के लिए बड़ी सुरक्षात्मक परिस्थितियां पैदा की हैं। तीन ओर से समुद्र और एक ओर से पर्वत ने भारतीय उपमहाद्वीप को घेर रखा है । जिससे हमारे देश को प्राकृतिक सुरक्षा उपलब्ध हो जाती है । पाकिस्तान और अफगानिस्तान की ओर से ही एक ऐसा रास्ता विदेशी आक्रमणकारियों को भारत पर आक्रमण करने का मिला , जिससे होकर अनेकों आक्रमणकारियों ने भारत पर अनेकों आक्रमण किए। स्पष्ट है कि विदेशी आक्रमणकारियों के इस मार्ग को रोकने के लिए भारत के इस प्रवेश द्वार पर सशक्त और पराक्रमी शासक का होना अनिवार्य था। जब इस्लामिक खलीफाओं के भेजे गए सेनापति भारत पर छोटे-मोटे लगभग दर्जनभर आक्रमण कर चुके थे, तब उन विदेशी आक्रमणकारियों को भारत के लोगों ने या तो मार काटकर समाप्त कर दिया था या मारपीट कर भगा दिया था।
दुष्ट अधर्मी भगा दिए छोड़ रण का मैदान ।
मारकाट बुरी देखकर थे हमलावर परेशान ।।
उस समय सिंधु नदी ने एक ऐसी सीमा रेखा का रूप धारण कर लिया था जिसके इस ओर भारत के रणबांकुरे खड़े हुए उधर से आने वाले इस्लामिक आक्रमणकारियों की प्रतीक्षा करते रहते थे कि जैसे ही वे आएं हम उन्हें दोजख की आग में धकेल दें। उस समय भारत की सीमाएं कबड्डी का मैदान बन गई थीं। जिसमें सिंधु नदी ने पाले की रेखा का काम किया था। जैसे ही कोई उधर से कबड्डी लेकर आता था वैसे ही भारत के रणबांकुरे उसे लपकते और उसका काम तमाम कर डालते थे या उसे ऐसी मार लगाते थे जिससे वह भारत की ओर भविष्य में न आने का संकल्प ले लेता था।
सिन्ध के राजा दाहिरसेन ने इस परम्परा को जारी रखा। उनके बाद उनकी पत्नी, बहिन और दोनों पुत्रियों ने भी अपना बलिदान देकर मां भारती के प्रति अपने ऋण को चुकता करने का वंदनीय और अभिनंदनीय कार्य किया।
राजा राय साहसी के बारे में
इतिहासकारों की ऐसी मान्यता है कि सातवीं शताब्दी में सिंधु देश पर राजा राय साहसी का राज्य था। राजा राय प्रजावत्सल, वीर, साहसी और देशभक्त राजा थे । उनके राज्य में चारों ओर शांति का वातावरण था। लोगों की धार्मिक, राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक स्थिति बहुत ही उन्नत थी। धार्मिक रूप से लोग अपने क्रियाकलापों को करके आनंद की अनुभूति करते थे । जबकि देश धन-धान्य से परिपूर्ण होने के नाते आर्थिक समृद्धि भी चारों ओर व्याप्त थी । अराजकता का कोई संकेत राजा के राज्य में कहीं दिखाई नहीं देता था। सभी लोग एक दूसरे के सहायक और सहयोगी होकर काम करने में आनंद की अनुभूति करते थे।
राजनीतिक रूप से उनके राज्य में कहीं से भी कोई ऐसे संकेत नहीं थे जो उपद्रव, उत्पाद या उग्रवाद का संकेत करते हों। लोगों की पूर्ण निष्ठा अपने राजा के साथ थी। जिससे पता चलता है कि राजा भी पूर्णतया अपनी प्रजा के हितचिंतन में लगा रहता था। राजा की प्रजावत्सलता के कारण ही लोग उसके प्रति स्वाभाविक रूप से जुड़े हुए थे। किसी भी राजा के राज्य की राजनीतिक स्थिति की पवित्रता का इस बात से पता चलता है कि यदि वहाँ के लोग अपने राजा के प्रति विद्रोही हैं और दूसरे राजा से हाथ मिलाने में या उसकी सहायता लेने में रुचि रखते हैं तो समझना चाहिए कि उस राजा के द्वारा जिस शासन व्यवस्था का संचालन किया जा रहा है वह दोषपूर्ण है। क्योंकि ऐसे लक्षण राजा के प्रति असंतोष को प्रकट करते हैं और असंतोष तभी बढ़ा करता है, जब राजा अन्यायी हो और राजनीतिक व्यवस्था को दोषपूर्ण ढंग से चलाने का अभ्यासी हो।
शासक उत्तम है वही जो करै प्रजाहित काम।
जनहित में तत्पर रहे करै भजन सुबह शाम।।
वास्तव में भारत की प्राचीन राजनीतिक व्यवस्था इस प्रकार बनाई गई थी कि वह किसी भी वर्ग, समुदाय या संप्रदाय के व्यक्ति को जातीय भेदभाव से नहीं देखती थी। उस समय संप्रदाय,जाति, लिंग और भाषा के आधार पर किसी भी प्रकार का भेदभाव भारतवर्ष की राजनीतिक व्यवस्था में नहीं था। उसी का परिणाम था कि लोगों को सामाजिक ,राजनीतिक और आर्थिक न्याय प्राप्त करने में किसी प्रकार की समस्या नहीं आती थी। जब कोई राजनीतिक व्यवस्था अपने लोगों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय देने में सफल हो जाती है तभी यह मानना चाहिए कि उस राज्य में पूर्ण शांति व्यवस्था स्थापित है। ऐसी स्थिति में राजा और प्रजा दोनों परस्पर पिता पुत्र की भांति रहते हैं।
राजा ने किया अपना कैलेंडर जारी
इनके पिता राजा राय साहसी का ईरान के राजा शाह नीमरोज के साथ युद्ध हुआ था। जिसमें उन्होंने अपनी अनुपम वीरता और शौर्य का परिचय दिया था। राजा ने विदेशी आक्रमणकारी की सेना के दांत खट्टे कर दिए थे और उन्हें छठी का दूध याद दिला दिया था। उन्होंने 624 ई. में सिंधी कलेंडर की स्थापना की थी। किसी भी प्रकार के कैलेंडर को जारी करने का अधिकार भारतवर्ष में उसी राजा को प्राप्त होता था जो प्रजावत्सल होता था और जिसके राज्य में किसी भी प्रकार का अन्याय पक्षपात नहीं होता था। लोग धनधान्य से पूर्ण समृद्धि युक्त जीवन जीते थे और एक दूसरे के अधिकारों का हृदय से सम्मान करते थे। लोग अपने अधिकारों के लिए न लड़कर दूसरे के प्रति अपने कर्तव्यों का ध्यान रखते थे।
राजा के द्वारा कैलेंडर जारी करने की घटना से हमें पता चलता है कि वह एक प्रतापी शासक थे और उनके राज्य के लोग उनसे बहुत प्रसन्न रहते थे। राजा राय साहसी अपने शासन के अंतिम दिनों में बीमार रहने लगे थे। उनकी मृत्यु इस लम्बी बीमारी के कारण ही हुई थी। जिस समय राजा राय साहसी की मृत्यु हुई उस समय उनका अपना कोई सगा उत्तराधिकारी नहीं था।
योग्यता को खोजना बड़ा है दुष्कर काम।
पात्र सहज से ना मिले कहता सकल जहान।।
राजा राय साहसी को इस बात की अत्यधिक चिन्ता रहती थी कि उनकी मृत्यु के उपरान्त उनके साम्राज्य का उत्तराधिकारी कौन होगा ? राजा को अपनी प्रजा के हर सुख दुख का पूरा ध्यान रहता था। वह चाहते थे कि उनके पश्चात भी ऐसा योग्य शासक प्रजा को प्राप्त हो जो उसके प्रत्येक प्रकार के दु:ख दर्द का पूरा ध्यान रखे और उनकी प्रत्येक समस्या का निराकरण करने के प्रति उतना ही गंभीर और उदार हो जितना वह स्वयं रहे थे। राजा किसी प्रजावत्सल व्यक्ति को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करना चाहते थे। जिससे भारतीय राज्य व्यवस्था के अंतर्गत राजा के लिए निर्धारित किए गए पवित्र कर्तव्यों को शासक की ओर से निभाया जा सके और प्रजा में किसी भी प्रकार का उपद्रव या असंतोष उत्पन्न न होने पाए।
ऐसी खोज और सोच के वशीभूत होकर उनकी दृष्टि अपने प्रधानमन्त्री चच पर पड़ी जो कि बहुत ही बुद्धिमान योग्य और वीर पुरुष थे। प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने अपनी योग्यता और प्रतिभा का प्रदर्शन भी किया था। राजा उनकी कार्यशैली से बहुत प्रसन्न थे। इसलिए उन्हें यह निर्णय लेने में अधिक सोचना नहीं पड़ा कि यदि वह चच को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करेंगे तो उनके पश्चात वह प्रजा का कल्याण करने में समर्थ होंगे या नहीं ? राजा की तीव्र बुद्धि ने सही समय पर सही निर्णय ले लिया ।
प्रधानमंत्री चच को बनाया उत्तराधिकारी
चच की वीरता, बुद्धिमानी और देशभक्ति का परिचय राजा राय साहसी अपने जीवन में कई बार ले चुके थे। राजा को उनकी वफादारी और देश के प्रति सत्यनिष्ठा पर तनिक भी संदेह नहीं था। राजा के साथ एक प्रधानमंत्री के रूप में चच जितनी देर भी रहे उतनी देर में उन्होंने अपने कार्य व्यवहार और कार्यशैली से यह स्पष्ट कर दिया था कि उनके लिए चुनौती के प्रत्येक क्षण में राष्ट्रहित सर्वोपरि होगा। सम्मान के भाव से फूलकर वह अपने आपको कुप्पा नहीं करेंगे। वह अहंकारशून्य होकर राजा के पद की गरिमा का ध्यान रखते हुए विनम्र भाव से अपनी प्रजा की सेवा में तत्पर होंगे। ऐसे गुणों से भरपूर प्रधानमंत्री चच को राजा राय साहसी ने अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया। राजा के इस प्रकार के निर्णय की सूचना पाकर जनता में भी सर्वत्र हर्ष की लहर दौड़ गई । सभी प्रजाजनों ने अपने राजा के इस निर्णय का करतल ध्वनि से स्वागत किया। प्रधानमंत्री चच भी अपने भावी पद के प्रति पूर्ण गंभीर दिखाई दे रहे थे । उन्होंने भी प्रजाजनों को यह आश्वासन दिया कि यदि वह राजा के निर्णय के अनुसार अगले राजा बने तो अपने राष्ट्र को कभी अपमानित नहीं होने देंगे और प्रजाजनों के प्रत्येक प्रकार के दु:ख दर्द के निवारण के प्रति समर्पित रहेंगे।प्रजाजनों की ही भांति राजा के दरबारियों, मंत्री परिषद के सदस्यों, सैन्य अधिकारियों और राज्य कर्मचारियों ने भी प्रधानमंत्री चच के राजा बनने के निर्णय पर अपनी सहमति की मुहर लगा दी।
<>संन्यासी राजा भये वजीर हुए महाराज।
महलों में खुशियां भईं सजे हुए गजबाज।।
राजा राय साहसी ने भारत की प्राचीन व्यवस्था का निर्वाह करते हुए अपने आपको राजकाज से दूर कर लिया और अपने जीते जी ही अपने प्रधानमंत्री को राजा नियुक्त कर दिया । राजा स्वयं संन्यस्त होकर राजकाज से दूर रहने लगे। उन्हें इस बात में बहुत अधिक आनंद अनुभव होता था कि उनका प्रधानमंत्री अब राजा के रूप में अपने राजधर्म का सम्यक निर्वाह कर रहा था। जब राजा से सन्यासी बने राय साहसी को अपने प्रजाजनों से राजा के विषय में सकारात्मक सूचनाएं प्राप्त होतीं तो उन्हें असीम प्रसन्नता की अनुभूति होती ।
राजा चच की कार्यशैली
प्रधानमंत्री से राजा बने चच को अपने पुराने अनुभव इस समय बड़े काम आए। प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने राजा के साथ बहुत बड़ा राजनीतिक अनुभव प्राप्त कर लिया था । इतना ही नहीं, उनके भीतर राजा के वे सभी गुण भी स्वभाविक रूप से विकसित हो चुके थे जो एक अच्छे राजा से हमारे वैदिक ऋषियों ने अपेक्षित किए थे।
उन्होंने बहुत ही कुशलता के साथ राज्य प्रबंधन आरंभ किया । उनके राज्य प्रबंधन और प्रजा वत्सलभाव से लोग उनके प्रति स्वाभाविक रूप से जुड़ गए और अपने पुराने राजा राय साहसी को भूलने लगे । नए राजा ने अपने भाई चन्द्र को अपना प्रधानमन्त्री नियुक्त किया। वह भी अपने भाई की भांति राष्ट्रभक्ति और प्रजा के प्रति उदारता के लिए विख्यात रहे। जब राजा चच की मृत्यु हुई तो उनकी मृत्यु के उपरान्त उनके भाई चन्द्र ने ही राज्य सत्ता संभाली। राजा चन्द्र ने अशोक वाली भूल को दोहरा दिया। जिसके चलते उन्होंने बौद्ध धर्म स्वीकार किया।
<span;>बौद्ध धर्म के विषय में हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि वैदिक सूर्य से दूर हुआ यह ग्रह वैसे ही अंधकार पूर्ण दोषों का शिकार था जैसे पृथ्वी सूर्य से दूर होकर अंधकार का लोक बन गई। इसने वेदमत को अस्वीकार किया और वेद के विरुद्ध अहिंसा का इतना अधिक प्रचार प्रसार किया कि वह हमारे लिए एक राष्ट्रीय संकट बन गई। अहिंसा का वेद ने जिस प्रकार अर्थ किया है या अहिंसा को लेकर जैसी व्यवस्था दी है उसके सर्वथा विपरीत जाकर बौद्ध धर्म ने अहिंसा के अर्थ का सत्यानाश कर दिया। जहाँ वेद राजाओं को हिंसक लोगों की हिंसा करने के लिए आदेश करता है वहीं बौद्ध धर्म ने राजाओं को भी हिंसक लोगों की हिंसा करने से रोक दिया। यद्यपि हिंसक लोगों का विनाश करने के लिए ही राज्यव्यवस्था की स्थापना की गई थी। बौद्ध धर्म ने इस सत्य को नकार कर अपने ढंग से राज्य व्यवस्था को पंगु बना दिया। राज्य व्यवस्था का यह पंगुपन हमारे लिए राष्ट्रीय कायरता बन गया। जिससे बहुत अधिक क्षति हमको उठानी पड़ी।
बौद्ध धर्म की अहिंसा और राजा
बौद्ध धर्म की अहिंसा नए राजा पर उसी प्रकार हावी प्रभावी हो गयी जैसे अशोक पर हो गई थी। भारत के लिए सचमुच वह दुर्दिन था जब भारत की परम्परागत वीर शैली को छोड़कर सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म की अहिंसा को स्वीकार कर लिया था ।अब जबकि शत्रु फिर हमारी सीमाओं पर ललकार रहा था तब राजा चन्द्र के द्वारा बौद्ध धर्म की अहिंसा की शरण में जाना देश के लिए उचित नहीं था। शत्रु का सामना करने के लिए शत्रु की शैली में ही उससे बात करना समय की आवश्यकता थी। क्योंकि हिंसक लोग केवल हिंसा से ही मानते हैं ।
अहिंसा बाधक बन गई देश हुआ बर्बाद ।
अनिष्ट के दुष्चक्र में अभीष्ट रहा नहीं याद।।
राजा चन्द्र ने 7 वर्ष तक सिंधु देश पर शासन किया। यद्यपि उनके शासन काल के बारे में कोई ऐसा संकेत या प्रमाण उपलब्ध नहीं होता जिससे उनके बारे में यह कहा जा सके कि उन्होंने प्रजा की भावनाओं के विपरीत कोई कार्य किया हो ? कुल मिलाकर वह प्रजावत्सल भाव से ही शासन करते रहे। राजा चन्द्र के बारे में विद्वानों का यह भी मानना है कि उन्होंने बौद्ध धर्म को अपना राजधर्म घोषित कर दिया था।
राजा दाहिर सेन का राज्यारोहण
राजा चन्द्र के बाद 663 ई0 में राजा दाहिर सेन ने शासन सत्ता संभाली। राजा दाहिर सेन के पिता का नाम राजा चच था अर्थात राजा दाहिर सेन राजा चंद्र के भतीजे और राजा चच के पुत्र थे। राजा दाहिर सेन ने राज्य कार्य अपने हाथ में लेते ही शासन की उन दुर्बलताओं पर विचार करना आरंभ किया जो पिछले 7 वर्ष में किसी ना किसी रूप में दिखाई देने लगी थीं।
जब 712 ई0 में मुहम्मद बिन कासिम भारत में एक अरब आक्रमणकारी के रूप में आया तो उस समय सिंध पर राजा दाहिर ही शासन कर रहे थे । उस समय के भारत की राजनीतिक परिस्थितियां बहुत अधिक आशावादी नहीं थीं। यद्यपि हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि ये परिस्थितियां उतनी निराशाजनक भी नहीं थीं, जितनी कि इतिहास में विदेशी इतिहासकारों के द्वारा दिखाई जाती हैं। भारत के लोग भारतीयता और राष्ट्रीयता से आज भी प्यार करते थे और उसके लिए मर मिटना अपना राष्ट्र धर्म स्वीकार करते थे। कहने का अभिप्राय है कि राजा दाहिर सेन के समय की परिस्थितियों को इतना निराशाजनक भी नहीं मानना चाहिए कि उस समय हमारे राष्ट्र धर्म, राजधर्म , राष्ट्रीय शौर्य और साहस पर किसी प्रकार का दाग लग गया था या वह इतना दुर्बल पड़ गया था कि कोई भी विदेशी आए और भारत को नष्ट कर दे ?
हाँ, इतना अवश्य है कि उस समय के भारत में सम्पूर्ण देश को अपने शासन के अधीन कर एकच्छत्र राज्य स्थापित करने वाली कोई शक्ति नहीं थी। यद्यपि अपना सार्वभौम साम्राज्य स्थापित कर भारत को फिर पुराने वैभव की ओर ले जाने का प्रयास उस समय राजनीतिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में बड़ी तेजी से हो रहा था। कश्मीर में इस कार्य को सम्राट ललितादित्य मुक्तापीड़ पूर्ण करने का प्रयास कर रहे थे। हमारा मानना है कि जब सारा संसार इस्लाम की आंधी का सामना करने में अपने आपको सर्वथा अक्षम और असमर्थ अनुभव कर रहा था, तब भारत के भीतर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को पुनः सबल और सक्रिय बनाए रखने की जिन योजनाओं पर सांस्कृतिक क्षेत्र में कार्य हो रहा था, वह भी अपने आप में कम नहीं था। उस समय के धर्माचार्य प्रमुख आराम से घरों में नहीं बैठे थे, बल्कि कई ऐसे धर्माचार्य थे जो राष्ट्र जागरण के कार्य में लगे हुए थे। उनके लिए इस्लाम की आंधी वेद मत के विनाश करने के लिए उठी हुई आंधी थी। जिसके प्रति वह समय रहते लोगों को सजग और सावधान कर रहे थे । इन्हीं लोगों के नेतृत्व में आगे चलकर माउंट आबू पर एक विशाल यज्ञ कर देश की रक्षा के लिए सही समय पर सही निर्णय लिया गया था।
चिंतन मंथन जब चलै आवै फल कोई हाथ।
घर बैठे कुछ ना मिले , लाख पीठ लो माथ।।
इसी राजनीतिक व सांस्कृतिक चिंतन मंथन ने भारत को गुर्जर वंश की महान राजवंशीय परंपरा प्रतिहार शासकों के रूप में प्रदान की। इसी भाव ने ललितादित्य मुक्तापीड़ जैसे सम्राट पैदा किये और इसी विचार मंथन ने बप्पा रावल जैसे शूरवीर को जन्म दिया। इतिहास की किसी प्रकार की राजनीतिक शून्यता पर चिंतन व मंथन करने और समय नष्ट करने के स्थान पर यदि हम अपनी तात्कालिक सकारात्मक शक्तियों पर चिंतन करें तो बेहतर होगा। उस समय के राजनीतिक क्षेत्रों में राजनीतिक नेताओं के द्वारा अपना सार्वभौमिक राज्य स्थापित करने का कार्य बड़ी तेजी से हो रहा था। यद्यपि हम इस प्रकार के संघर्ष को उस सीमा तक उचित मानते हैं जहाँ तक एक चक्रवर्ती सम्राट को मान्यता देकर लोग उसके स्वाभाविक अनुचर बन जाएं और देश की एकता और अखण्डता के लिए काम करना स्वीकार कर लें । दुर्भाग्य यही था कि सम्पूर्ण देश किसी एक राजनीतिक सत्ता के आधीन नहीं था।
कासिम के आक्रमण के समय की स्थिति
मोहम्मद बिन कासिम के आक्रमण के समय की परिस्थितियों पर विचार करते हुए लेखक ने अपनी पुस्तक “भारत के 1235 वर्षीय स्वतन्त्रता संग्राम का इतिहास”- भाग 1 , के पृष्ठ संख्या 26 पर लिखा है कि – “दक्षिण भारत और उत्तर भारत सहित पूरब और पश्चिम के सभी शासकों को संस्कृतिनाशक इतिहासकारों ने नितान्त उपेक्षित करने का प्रयास किया है – हमें इस तथ्य को भी ध्यान में रखना चाहिए। हम यह भी विचार करें कि एक विदेशी आक्रांता मोहम्मद बिन कासिम हमारे समकालीन इतिहास के लिए इतना कौतूहल और जिज्ञासा का विषय क्यों बन गया ? जिसने भारत पर केवल आक्रमण किया , यहाँ पर कोई लम्बा शासन नहीं किया, ना ही यहाँ की जनता के लिए कोई विशेष सुधारात्मक कार्य किए । जबकि पूरे देश के तत्कालीन राजाओं ने और (बाद में) सम्राट सम्राट मिहिर भोज ने देश के लिए और देश की जनता के लिए जो कुछ किया , वह अंततः किस षड़यंत्र के छल प्रपंच की भेंट चढ गया ? चिन्तन करना पड़ेगा । छल प्रपंच को समझना पड़ेगा और उनकी एक – एक परत को उधेड़कर देखना पड़ेगा कि अन्ततः हमें हमारे ही अतीत से और गौरवमयी इतिहास से क्यों और किस लिए इतनी निर्ममता से काट दिया गया।
(हमारी यह लेख माला मेरी पुस्तक “राष्ट्र नायक राजा दाहिर सेन” से ली गई है। जो कि डायमंड पॉकेट बुक्स द्वारा हाल ही में प्रकाशित की गई है। जिसका मूल्य ₹175 है । इसे आप सीधे हमसे या प्रकाशक महोदय से प्राप्त कर सकते हैं । प्रकाशक का नंबर 011 – 4071 2200 है ।इस पुस्तक के किसी भी अंश का उद्धरण बिना लेखक की अनुमति के लिया जाना दंडनीय अपराध है।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
राष्ट्रीय अध्यक्ष : भारतीय इतिहास पुनर्लेखन समिति