भारत में शिक्षा के अध:पतन की आज एक नई खबर आई है। एक अंग्रेजी अखबार के अनुसार देश में अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में प्रवेश करनेवाले छात्रों की संख्या दुगुनी हो गई है जबकि हिंदी माध्यम की पाठशालाओं में भर्ती सिर्फ एक-चाथाई बढ़ी है। याने अंग्रेजी माध्यम हिंदी माध्यम के मुकाबले चार गुना ज्यादा बढ़ा है। हिंदी माध्यम के छात्र 8.4 करोड़ से 10.4 करोड़ हुए हैं जबकि अंग्रेजी माध्यम के छात्र डेढ़ करोड़ से तीन करोड़ हो गए हैं। अंग्रेजी माध्यम के छात्रों की संख्या सबसे ज्यादा कहां बढ़ी है? हिंदी राज्यों में! हिंदी राज्यों में बिहार, उ.प्र., हरयाणा और झारखंड आदि में अंग्रेजी-माध्यमवाले छात्रों की संख्या कहीं 50 गुना, कहीं 47 गुना, कहीं 25 गुना और कहीं 20 गुना बढ़ गई है।
क्यों बढ़ रही है, यह संख्या? क्या इसलिए कि अंग्रेजी बहुत सरल, बहुत वैज्ञानिक, बहुत समृद्ध भाषा है? नहीं बिल्कुल नहीं। अंग्रेजी का व्याकरण, उसकी शब्दावली, उसके उच्चारण उसके अर्थ इतने अटपटे हैं कि उसके सुधार के लिए अंग्रेजी के प्रसिद्ध साहित्यकार बर्नार्ड शॉ ने एक न्यास की स्थापना की थी। भारत में अंग्रेजी सिर्फ इसलिए पढ़ी जाती है कि सरकारी नौकरियों की भर्ती में वह अनिवार्य होती है। यदि अंग्रेजी को भर्ती परीक्षाओं में एच्छिक कर दिया जाए तो बेचारी अंग्रेजी अनाथ हो जाएगी। उसे कौन पूछेगा? अभी गरीब लोग भी अपना पेट काटकर अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में इसीलिए पढ़ाते हैं कि वे नौकरी दिलाने में मददगार होंगे। जऱा सोचिए बिहार-जैसे प्रांत में यह भगदड़ क्यों मची है? इन हिंदी प्रांतों में इन स्कूलों की दशा क्या है? यह सबको पता है।
अंग्रेजी माध्यम से विभिन्न विषयों की शिक्षा देने का अर्थ है, बच्चों की बुद्धि को ठप्प करना! मैं दुनिया के लगभग 80 देशों में गया हूं। सिर्फ भारत-जैसे पूर्व-गुलाम देशों को छोडक़र किसी भी संपन्न और विकसित देश में बच्चों को विदेशी भाषा के माध्यम से नहीं पढ़ाया जाता है। सबसे ज्यादा बच्चे किस विषय में फेल होते हैं? अंग्रेजी में! सबसे ज्यादा समय और श्रम किस विषय को सीखने में लगता है? अंग्रेजी को। यदि भारत को महाशक्ति बनना है तो उसे अंग्रेजी माध्यम की पढ़ाई पर पूर्ण प्रतिबंध लगाना होगा। यदि कोई छात्र स्वेच्छा से अंग्रेजी या अन्य विदेशी भाषाएं पढऩा चाहें तो उन्हें पूरी छूट मिलनी चाहिए लेकिन अंग्रेजी का थोपा जाना एकदम बंद होना चाहिए।