आखिर उत्तर प्रदेश में जाति आधारित जनगणना क्यों कराना चाहते हैं राजनेता ?
अजय कुमार
पश्चिम उत्तर प्रदेश की कुल आबादी का 15 फीसदी होने की वजह से जाट वोटर हमेशा निर्णायक रहते हैं। यहीं से पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह और किसान नेता महेन्द्र सिंह टिकैत जैसे किसान नेता भी निकले थे, जिनके सामने सरकारों नतमस्तक नजर आती थीं।
उत्तर प्रदेश में जातीय जनगणना कराए जाने की मांग लगातार जोर पकड़ती जा रही है। भाजपा को छोड़कर सभी दल जातीय जनगणना की सियासत में हाथ-पैर मार रहे हैं। पहले तो छोटे-छोटे दल जिनका आधार ही जातीय वोट बैंक है, वह जातीय जनगणना की मांग कर रहे थे, लेकिन अब समाजवादी पार्टी भी इसके पक्ष में खुलकर बोलने लगी है। सबकी नजर पिछड़ा वर्ग के वोट बैंक पर लगी है, जबकि भारतीय जनता पार्टी इस मुद्दे पर बैकफुट पर नजर आ रही है। वह न तो हाँ कह रही है न ही उसके द्वारा इससे इंकार किया जा रहा है। वहीं जाति आधारित जनगणना का समर्थन जेडीयू के नेता और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के साथ-साथ एनडीए के अन्य सहयोगी दल हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा के प्रमुख जीतन राम मांझी और महाराष्ट्र के नेता रामदास अठावले भी कर चुके हैं। हालांकि भारतीय जनता पार्टी का मानना है कि जाति आधारित जनगणना से हिंदू समाज में मतभेद हो सकते हैं और सामाजिक सद्भाव बिगड़ सकता है इसलिए फिलहाल जाति आधारित जनगणना की कोई जरूरत नहीं है।
दरअसल बीजेपी का हिंदुत्व अब ओबीसी और अति पिछड़ी जातियों के सहारे चल रहा है, इसीलिए वह इस आग में नहीं कूदना चाहती है जबकि समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने यह कह कर पिछड़ा वर्ग समाज की सियासत में उबाल ला दिया है कि हमारी (समाजवादी) सरकार बनने पर प्रदेश में सबसे पहले जातीय जनगणना कराई जाएगी। अखिलेश यादव ने तो यहां तक दावा किया कि जातीय जनगणना के लिए सिर्फ 100-200 टेलीफोन लाइनें लगानी होंगी। इसके बाद लोगों को फोन करके उनसे उनकी जाति के आधार पर नंबर दबाने के लिए कहा जाएगा, लेकिन अखिलेश जिस तरह से जातीय जनगरणा कराए जाने के तरीकों को हलके में ले रहे हैं, उससे उनकी काबलियत पर लोग संदेह भी व्यक्त कर रहे हैं। खासकर भाजपा नेताओं द्वारा खासकर इस तरह के बयान पर अखिलेश को आइना दिखाया जा रहा है।
बात बसपा की कि जाए तो बहुजन समाज पार्टी प्रमुख मायावती कह रही हैं कि उनकी पार्टी तो लम्बे समय से देश में अन्य पिछड़ा वर्ग की जनगणना की मांग करती रही है। उन्होंने ट्वीट करते हुए कहा कि अभी भी बीएसपी की यही मांग है और इस मामले में केंद्र सरकार अगर कोई सकारात्मक कदम उठाती है तो फिर बीएसपी इसका संसद के अन्दर व बाहर भी जरूर समर्थन करेगी। इसी तरह से राजभर नेता ओम प्रकाश राजभर और निषाद नेता संजय निषाद की पार्टी भी यही राग अलाप रही है। उधर, यूपी विधान सभा चुनाव की आहट तेज होते ही सत्ताधारी भाजपा के सहयोगी अपना दल (एस) ने भी जातीय जनगणना कराने की मांग उठनी शुरू कर दी है। केंद्र में पिछड़ा वर्ग मंत्रालय के गठन की मांग कर रहे अपना दल (एस) का कहना है कि जातीय जनगणना से ही पिछड़ा वर्ग की आबादी की असल तस्वीर सामने आ पाएगी। सभी दल जातीय जनगणना की सियासत को आगे बढ़ाकर अपनी ताकत बढ़ाने का सपना पाले हुए हैं। ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि जातीय राजनीति हमेशा से उत्तर प्रदेश की सियासत का ‘काला अध्याय’ रही है।
बहरहाल, उत्तर प्रदेश की सियासत में हमेशा से धार्मिक और जातीय राजनीति का बोलबाला रहा है। प्रदेश का चुनावी विश्लेषण भी जातीय समीकरणों की समीक्षा के बिना अधूरा रहता है। अगड़ों को लगता है कि दलित-पिछड़े उनका हक छीन रहे हैं तो दलितों-पिछड़ों का हमेशा से कहना रहा है कि अगड़ा समाज उन्हें आगे नहीं बढ़ने देता है। राज्य में अधिकतर शिक्षा, सत्ता या नौकरियों पर सवर्णों का दबदबा रहा है। उत्तर प्रदेश में ही सबसे अधिक जातीय राजनीति की बेल बढ़ती है। इसके कारणों पर जाया जाए तो वजह साफ है उत्तर प्रदेश में भारत के सबसे ज्यादा सवर्ण जाति के लोग बसते हैं, ये कुल आबादी का 20 फीसदी हैं। इस 20 प्रतिशत सवर्णों में ब्राह्मण सर्वाधिक हैं। ये कुल आबादी का 10 फीसदी हैं जो किसी भी अन्य राज्य के मुकाबले सबसे ज्यादा है। क्षत्रिय ठाकुर 7.5 फीसदी तथा वैश्य एवं कायस्थ समाज के 3 फीसदी लोग हैं। आरोप यह लगते हैं कि इन जातियों ने अधिकतर समय उप्र में राज किया है। इसी के विरोध में सपा-बसपा दलितों-पिछड़ों को अपने पक्ष में लामबंद करने में सफल हो जाती हैं।
उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा तादाद पिछड़ा वर्ग की है जो कुल आबादी का 46 फीसदी यानी करीब 10 करोड़ लोग हैं। पिछड़ा समाज में जाट, यादव, कुर्मी, जायसवाल आदि प्रमुख जातियां हैं। पिछड़ा वर्ग में भी दबदबे की सियासत चलती है। यादवों की आबादी का प्रदेश की कुल आबादी में से 9 फीसदी हिस्सा है, जिसकी वजह से यादव सबसे बड़ी पिछड़े वर्ग की जाति बनती है। यादव समाज को आगे बढ़ाने में समाजवादी पार्टी के पूर्व प्रमुख और पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। समाजवादी पार्टी आज भी यादव वोटों की लम्बरदार बनी हुई है। बात जाट समाज की कि जाए तो इसका प्रदेश की कुल आबादी में से सात फीसदी हिस्सा है। जाट कभी किसी एक पार्टी से बंध कर नहीं रहे। 2013 में समाजवादी पार्टी की सरकार के समय मुजफ्फरनगर में मुसलमानों और जाट समाज के बीच जबर्दस्त दंगा हुआ था, इसमें अखिलेश सरकार मुसलमानों के साथ खड़ी दिखाई दी थी। इसी के परिणाम स्वरूप 2014 के लोकसभा चुनाव के समय जाट ने भाजपा के पक्ष में मतदान किया था, यह सिलसिला 2017 के विधानसभा और 2019 के लोकसभा चुनाव के समय भी जारी रहा, लेकिन नये कृषि कानून के खिलाफ किसान आंदोलन के चलते अब जाट भाजपा से नाराज बताए जा रहे हैं।
पश्चिम उत्तर प्रदेश की कुल आबादी का 15 फीसदी होने की वजह से जाट वोटर हमेशा निर्णायक रहते हैं। यहीं से पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह और किसान नेता महेन्द्र सिंह टिकैत जैसे किसान नेता भी निकले थे, जिनके सामने सरकारों नतमस्तक नजर आती थीं। जाट वोटर कई बार अजित सिंह के राष्ट्रीय लोकदल और कुछ हद तक भाजपा में बंटे दिखाई पड़ चुके हैं। बात पिछड़ा समाज से आने वाले कुर्मियों की कि जाए तो प्रदेश की कुल आबादी में कुर्मियों की हिस्सेदारी तीन फीसदी है। कुर्मी और लोध वोटर खीरी, सीतापुर समेत देवीपाटन, एटा, अलीगढ़ के कई जिलों में बड़ी संख्या में निवास करते हैं। पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह भी लोध बिरादरी से आते थे, जिनके सहारे भाजपा ने लम्बे समय तक लोध और कुर्मी वोटरों पर अपना दबदबा बनाए रखा था। पिछड़ा समाज में कई जातियां ऐसी भी हैं जो कहने को तो पिछड़ा समाज का हिस्सा हैं, लेकिन इनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति यादव, कुर्मी, जाट जैसे पिछड़े समाज के वर्ग से काफी बदत्तर है। इन्हें राजनीतिक भाषा में अति पिछड़ा वर्ग भी कहा जाता है जिनमें निषाद, कश्यप, बिन्द, मल्लाह, राजभर और कुम्हार मुख्य हैं। इन जातियों पर अपनी नज़र गड़ाते हुए मुलायम सिंह ने 16 अति पिछड़ी जातियों को सन 2005 में अनुसूचित जाति का लाभ दिया किन्तु राजनैतिक प्रतिद्वंद्वियों ने सपा को राजनैतिक लाभ मिलता देखकर हाइकोर्ट द्वारा स्टे लगवा दिया। राजभर लोग भी इसी तरह बसपा में रामअचल राजभर और सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ओम प्रकाश राजभर के नेतृत्व में लामबंद हैं। अति पिछड़ी जातियाँ सम्मिलित रूप से उत्तर प्रदेश की आबादी का तकरीबन 15 फीसदी हिस्सा हैं पर ये बहुत सारी अलग-अलग जातियों का बिखरा हुआ वर्ग है। ऐसा नहीं है कि इनका कोई राजनैतिक महत्व नहीं पर ये संख्या बल के खेल में पिछड़ गए हैं, हाल में उनका राजनीतिक महत्त्व बहुत बढ़ गया है। मसलन राजभर, बिंद, मल्लाह आदि ने अपनी छोटी-छोटी पार्टियां बना ली हैं जो चुनावों में ताकतवर पिछड़ी जाति-के प्रत्याशियों को नुकसान पहुंचाते हैं, यही लोग जातीय जनगणना की मांग भी जोरशोर से उठा रहे हैं।
बात भाजपा के सहयोगी दल अपना दल (एस) की कि जाए तो उसके कार्यकारी अध्यक्ष आशीष पटेल भी जाति आधारित जनगणना समय की मांग बता रहे हैं। पटेल कहते हैं कि आजादी के बाद प्रत्येक जनगणना में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लोगों की गिनती तो हुई लेकिन पिछड़ा वर्ग की नहीं। अपना दल (एस) अरसे से यह मांग कर रहा है। उसका कहना है कि इससे समाज में समानता आएगी। जनगणना में पिछड़ा वर्ग के लोगों की गिनती होने पर उनकी वास्तविक संख्या का पता चल सकेगा। इससे यह भी आकलन किया जा सकेगा कि किसी जाति विशेष का हिस्सा उसकी आबादी के अनुपात में है या नहीं। गौरतलब है कि आबादी में पिछड़ा वर्ग की सबसे ज्यादा हिस्सेदारी है। पिछड़ा वर्ग की लामबंदी में लगे राजनीतिक दल जातीय जनगणना की वकालत कर रहे हैं।