क्या आरक्षण अपने मूल उद्देश्य से भटक गया है?
वीरेश्वर तोमर
स्वतंत्रता प्राप्ति के समय भारत की सामाजिक संरचना में विभिन्न कारकों का वर्चस्व रहा। समाज के कुछ विशेष वर्ग, वर्षों से शोषण परक सत्ता के कुकृत्यों से दबे हुए थे। संविधान निर्माताओं द्वारा एक समतामूलक समाज की प्राप्ति हेतु इस वर्ग के उत्थान हेतु दोहरे उपबंध करना आवश्यक प्रतीत हुआ-
भेदभाव को समाप्त किया जाये। [अवसर, नौकरियां एवं समता की गारंटी ] वर्तमान स्तिथि से ऊपर उठने हेतु विशेष प्रावधान।
एक और जहाँ अनुच्छेद 14 द्वारा विधि के समक्ष समता का अधिकार प्रदान किया गया, वहीँ दूसरी और अनुच्छेद 15(4) एवं 16(4) द्वारा आरक्षण सम्बन्धी विशेष उपबंध भी किये गए। यह आरक्षण मात्र संवैधानिक प्रावधानों तक ही सीमित नहीं रहा, वरन इस हेतु विशेष कानूनी उपबंध एवं संस्थागत प्रयास भी किये गए।
अनुच्छेद 330 एवं 332 के अंतर्गत लोकसभा एवं राज्यसभा में सीटों हेतु आरक्षण तथा 73वें एवं 74वें संविधान संशोधन द्वारा पंचायती राज संस्थाओं एवं अन्य स्थानीय निकायों में आरक्षण की व्यवस्था की गई। इसके अतिरिक्त शैक्षणिक संस्थाओं एवं सरकारी सेवाओं इत्यादि में भी विशेष आरक्षण का प्रावधान लागू किया गया। आईआईएम, एम्स जैसे संस्थानों में भी यह लाभ प्रदान किया गया। इन सब के अतिरिक्त भूमि विकास कार्यक्रमों, स्कॉलरशिप, अनुदान, एवं अन्य सामजिक योजनाओं में भी इन वर्गों हेतु विशेष प्रावधानों का प्रबंध किया गया। संस्थागत प्रयासों में प्रारंभ में ही अनुसूचित जाति जनजाति आयुक्त का प्रावधान किया गया। 1979 में आरक्षण पर पुनर्विचार हेतु मंडल आयोग का गठन किया गया, जिसने 2 वर्ष पश्चात अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। 1989 में वी.पी.सिंह सरकार ने इन सिफारिशों को लागू कर दिया। 1990 में 65वें संविधान संशोधन द्वारा आयुक्त का पद समाप्त कर, रास्ट्रीय अनुसूचित जाति जनजाति आयोग का गाथा किया गया। इसी कड़ी में सर्वोच्च न्यायालय के अनुसरण में केंद्र सरकार द्वारा रास्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग अधिनियम 1993 द्वारा रास्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग का भी गठन किया गया। पुनश्च 2004 में 89वें संविधान संशोधन द्वारा हृष्टस्ष्टस् को रास्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग एवं रास्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग में विभक्त कर दिया गया गया। इन सभी कार्यों के द्वारा सामजिक रूप से दबे कुचले वर्ग को धरातल से ऊपर उठाने के अत्यधिक प्रयास किये गए।
अत: सामजिक समानता प्राप्ति एवं प्रत्येक छेत्र में सहायता का हाथ बढाकर आगे ले चलने की प्रेरणा से प्रेरित आरक्षण का प्रावधान, अपने मूल उद्देश्यों में अति-लाभकारी प्रावधान था। संविधान निर्माता इस तथ्य से सशंकित अवश्य थे कि भारत एक बहुधर्मी एवं बहुजातीय देश है, अत: जाति या धर्म आधारित आरक्षण व्यवस्था शायद सफल ना हो सके, परन्तु इसकी परिणति कुछ इस प्रकार होगी, ऐसी आशा भी न की होगी।
आरक्षण का मूल उद्देश्यों से भटकाव
स्वहित पूर्ति एवं छुद्र-राजनैतिक स्वार्थपूर्ति हेतु समर्थनों द्वारा इस व्यवस्था का भटकाव प्रारंभ हुआ एवं आज आर्थिक एवं सामजिक रूप से सम्रध जाटों एवं पटेल समुदायों की आरक्षण की मांग, इस भटकाव पर सत्य की मुहर लगाती है। यह भटकाव मुख्यत: 4 कारकों द्वारा पूर्ण हुआ:
1.राजनैतिक कमियां:
छुद्र राजनीति एवं स्व-हित साधन हेतु राजनैतिक दलों ने हमेशा आरक्षण को जाति एवं सामजिक छेत्रकों में विभाजित करके रखा।
स्थानीय राजनीति एकं छोटे-जाति आधारित समूहों ने इस प्रथा को अधिक विकसित किया।
प्रारंभ में मात्र 10 वर्षों हेतु बनाई गई अस्थाई व्यवस्था को एक परंपरा के रूप में परिणित कर दिया गया। आरक्षित वर्गों हेतु इतने लाभों को संरक्षित कर दिया गया कि सामान्य वर्ग भी उसी के अन्दर प्रविष्टि पाने को आंदोलनरत हो गए। सामान्य वर्ग के अति-वंचित परिवारों को न्यून-सामाजिक सहायता। आज तक एक भी जातिगत समूह अनुसूचित जाति/जनजाति अथवा अन्य पिछड़ा वर्ग से बहार नहीं आ पाया। क्या वास्तव में हम आजादी के 68 वर्षों के पश्चात भी एक भी समूह को इतना सबल नहीं बना पाए? यही इस भटकाव का परिणाम प्रदर्शित करता है। राजनैतिक स्वार्थपूर्ति की हद्द के कारण ही उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा नागराज मामलों के निर्णयों को अनदेखा करते हुए पदोन्नति में आरक्षण के प्रावधान को लागू करने का प्रयास किया गया।
2.सामजिक कमियां
हम अपने सुख से सुखी नहीं, वरन दूसरों के सुख से दुखी हैं! इस सामजिक कुप्रवत्ति के कारण हमेशा आरक्षित वर्ग को भटकने का प्रयास किया जाता रहा। आरक्षित जातियों में भी जिस परिवार को आरक्षण का लाभ मिला, उसी परिवार को ही आगे भी आरक्षण का लाभ मिलता रहा, क्यूंकि ये लोग, सामजिक-आर्थिक तौर पर अपने वर्गों के अन्य लोगों की अपेक्षा अधिक सशक्त हो गए थे। आरक्षण के कारण निचली जातियों में भी एक वर्ग आधारित विभाजन पैदा हो गया। स्व-हित साधन में अनेक जाली जाति प्रमाण पत्र बनवाने का गौरख धंधा प्रारंभ हुआ, जिससे अंतत: वास्तविक लाभ-प्राप्तकर्ता पुनश्च इन लाभों से वंचित रह गया। कभी भी आरक्षण के वास्तविक लक्षित समूहों हेतु समाज एकजुट नहीं हो पाया।
वरन आरक्षण के कारण समाज में जाति व्यवस्था अधिक सुद्रढ़ हुई। जिससे अंतत: आरक्षण के मूल उद्देश्यों को छति हुई।
3.प्रशासकीय खामियां
वर्षों के शोषण से दबा समूह, आंतरिक रूप से सशक्त नहीं होता। उस हेतु प्रशासकीय प्रोत्साहन अत्यावश्यक था, परन्तु ऐसा नहीं किया गया।
नीति निर्माण का कार्य उपरी स्तर पर कर लिया गया, परन्तु उनके क्रियन्वयन हेतु प्रतिबद्धता तय नहीं की गई। प्रशासकीय जवाबदेहिता न होने के कारण प्रशासन द्वारा सरकारी योजनाओं की उपलब्धता सुनिश्चित कराना उचित नहीं समझ गया।
सरकारी योजनाओं का प्रचार-प्रसार लाक्षित तबके के मध्य नहीं किया गया। राजनैतिक दवाब एवं तटस्थता के सिद्धांत के कारण भी लोकसेवक इस व्यवस्था में अधिक सुधार नहीं ला पाए।
4.अन्य कारण
क्रीमीलेयर व्यवस्था मात्र अन्य पिछड़ा वर्ग में लागू की गई।
क्रीमिलेयर व्यवस्था में भी 2 कमियां प्रमुख रहीं आय सीमा काफी अधिक रक्खी गई। [वर्तमान में 6 लाख वार्षिक: जिसे पिछड़ा वर्ग आयोग ने 10 लाख करने का प्रस्ताव दिया]
यह व्यवस्था एक ही माता पिता की संतानों पर लागू होती है, न कि परिवार के अन्य सदस्यों पर भी। देश में व्याप्त भ्रस्टाचार, आरक्षण के मूल उद्देश्यों के भटकाव का वृहद कारण बना।