अनियंत्रित रूप से बढ़ती मुस्लिम जनसंख्या हिन्दू समाज को खुली चेतावनी !!

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विश्व में कोई भी देश ऐसा नही हैं जहां मुसलमानों अथवा तथाकथित अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यक समाज से अधिक सुविधाएं तथा अधिकार प्राप्त हों, सिवाय भारत के।
किसी भी मुस्लिम देश में यहां तक कि पाकिस्तान, बंगलादेश, इण्डोनेशिया या तुर्की में भी मुसलमानों को इतने संविधान स्वीकृत अधिकार भी नही हैं।


किसी ने सच कहा है कि मुसलमानों के लिए एक मात्र देश भारत बहस्व (स्वर्ग) है।
वस्तुत: भारत के अनेक राजनीतिक दलों का वोट बटोरने की खातिर का केन्द्र बिन्दु मुस्लिम चाटुकारिता बन गया है।
वे इसका दुरुपयोग कर भारतीय संविधान की अन्तर्निहित भावना से खिलवाड़ कर रहे हैं।
क्षुद्र राजनीति से प्रेरित हो, वे इतना गिर गये हैं कि उन्हें देश की एकता, अखण्डता तथा स्वतंत्रता की भी परवाह नहीं है।
उनका बस चले तो वे भारत, भारत का नाम ‘इंडिया दैट इज मुस्लिम’ रख दें। पर यह भी सत्य है कि विश्व में एक साथ भारत तथा हिन्दू विरोध कहीं भी नहीं है जितना भारत में।
भारत ने सर्वदा इस चुनौती को साहसपूर्वक स्वीकार किया है।
इस्लाम का प्रसार
यदि ऐतिहासिक संदर्भ में देखें तो यह सर्वविदित है कि हिन्दू देश भारत सदैव ही इस्लाम के लिए एक महान चुनौती रहा है।
उनकी सदैव ही भारत के दारुल-हरब से दारुल इस्लाम बनाने की प्रबल इच्छा रही है।
मोहम्मद बिन कासिम से लेकर मुगलों के अंतिम शासक बहादुरशाह जफर तक भारत को इस्लामीकरण तथा गुलामीकरण के दर्जनों असफल प्रयास होते रहे हैं।
क्रूर मुस्लिम शासकों ने मतान्धता तथा मजहबी उन्माद के आधार पर भारत को मुस्लिम तथा ‘जिम्मी’ एवं काफिर में बांटकर रखा। इस निमित्त हिन्दुओं पर क्रूर अत्याचारों, भीषण नरसंहार तथा जबरदस्ती कन्वर्जन के निरंतर कुत्सित प्रयास होते रहे हैं।
संकलित आंकड़ों से ज्ञात होता है कि 1000 ई. अर्थात महमूद गजनवी के समय भारत की जनसंख्या लगभग 20 करोड़ थी जो आगामी 500 वर्षों में घटकर 17 करोड़ हो गई थी।
संख्या घटने के कारण थे।
मुस्लिम जिहाद,जबरदस्ती सामूहिक कन्वर्जन, नरसंहार तथा मुस्लिम बनने पर तरह-तरह की सुविधाएं प्रदान करना।
1600-1800 ई. तक अर्थात लगभग 200 वर्षों तक इसमें कोई उल्लेखनीय अन्तर नहीं आया।
यह स्थिति न केवल भारत में बल्कि विश्व के अन्य देशों में भी था। भारत में केवल 26 प्रतिशत की वृद्धि हुई।
ब्रिटिश संरक्षण
ईस्ट इंडिया कंपनी के शासनकाल में भारत को मुस्लिम तथा गैर मुस्लिम में बांटा गया।
भारत में सीधे ब्रिटिश शासन होने पर इसे अल्पसंख्यक तथा बहुसंख्यक शब्दों के साथ दोनों को अलग किया गया।
ब्रिटिश शासनकाल में जहां अंग्रेजों ने ‘बांटो और राज करो नीति का अनुकरण किया’,
वहां साथ-साथ मुस्लिम संरक्षण तथा तुष्टीकरण का भी सहारा लिया।
यदि 1881 ई. की जनगणना से निरंतर 1941 ई. तक की समस्त जनगणनाओं के विकासक्रम को देखें अथवा पाकिस्तान के बनने से पूर्व तक के आंकड़ों का विश्लेषण करें तो यह सरलता से पता चलता है कि प्रत्येक दस वर्षीय जनगणना रपटों में हिन्दुओं की जनसंख्या बिना किसी अपवाद के घटती रही।
अंग्रेज सदैव हिन्दुओं की जनसंख्या को बड़ा खतरा कहते रहे। इसके विपरीत मुसलमानों की जनंसख्या निरंतर बढ़ती गई, सरकारी आंकड़ों के अनुसार 1881 ई. में हिन्दुओं की जनसंख्या भारत की कुल जनसंख्या का 75.09 प्रतिशत थी जो क्रमश: 1891 ई. में
74.24 प्रतिशत, 1901 ई. में 72.68 प्रतिशत, 1911 ई. में 71.68 प्रतिशत,1921 ई.में 70.73 प्रतिशत, 1931 में 70.67, 1941 ई. में 69.46 प्रतिशत रही (देखें, प्रो. विक्टर पेट्रोव, इंडिया: स्पॉटलाइट्स ऑन पापुलेशन, पृ. 78)
विश्व के एकमात्र हिन्दू बहुसंख्यक देश भारत में उसकी लगभग छह प्रतिशत जनसंख्या घट गई थी।
विश्व में शायद ही किसी भी देश में ऐसा घटता हुआ अनुपात रहा हो इसके विपरीत मुसलमानों की जनसंख्या 1881 ई. में कुल 19.97 प्रतिशत थी जो निरंतर बढ़कर क्रमश: 1891 ई. में 20.41 प्रतिशत, 1901ई. में 21.88 प्रतिशत, 1911 ई. में 24.28 प्रतिशत हो गई।
अर्थात इस काल 1905 में पांच प्रतिशत बढ़ गई।
उल्लेखनीय है कि 1941ई. की जनगणना में अंग्रेजों ने मुसलमानों के प्रति पक्षपातपूर्ण रवैया अपनाया।
मुसलमानों की जनगणना में तथाकथित वकीलों की संख्या भी जोड़ दी (देखें, वहीं, पृ. 77)
ब्रिटिश राज्य में हिन्दू मुस्लिम जनगणना का असंतुलन अनोखा था इसके अनेक कारणों में से ब्रिटिश संरक्षण प्रमुख था।
कांग्रेस द्वारा मुस्लिम तुष्टीकरण
भारत का विभाजन अथवा पाकिस्तान का निर्माण कांग्रेस द्वारा ‘मजहब के आधार’ को स्वीकार करने पर हुआ था।
भारत के 96.5 प्रतिशत मुसलमानों ने पाकिस्तान के निर्माण का समर्थन किया था।केवल 3.5 प्रतिशत मुसलमानों ने इसके बनने का विरोध किया था। विभाजन के साथ ही, विश्व के इतिहास में पहली बार इतनी बड़ी जनसंख्या की अदला-बदला की गई और वह भी केवल तीन महीने में।
इसमें लाखों लोग खून खराबे का शिकार हुए।
विभाजन पर भारत में मुसलमानों की कुल जनसंख्या केवल 3.5 प्रतिशत रह गई थी जिन्होंने विभाजन का विरोध किया था। 1951 ई. की दस वर्षीय जनगणना के अनुसार भारत में हिन्दुओं की जनसंख्या 84-98 प्रतिशत थी तथा मुसलमानों की अचानक बढ़कर 9.91 प्रतिशत हो गई थी।
विभाजन के पश्चात मुसलमानों की इतनी बढ़ी हुई जनसंख्या का प्रमुख कारण यह था कि अनेक मुसलमान भारत के प्रधानमंत्री पं. नेहरू के आश्वासन पर भारत में ही रुक गये थे,यद्यपि उन्होंने पाकिस्तान के निर्माण का भरपूर समर्थन किया था।
इतना ही नहीं, अनेक मुसलमान पाकिस्तान से लौटकर वापस आ गये थे।
1961 ई. की जनगणना में हिन्दुओं की संख्या 85 प्रतिशत थी जो 1971 ई. में घटकर 83.00 प्रतिशत हो गई थी जबकि इस कालखण्ड में मुसलमानों की जनसंख्या बढ़कर 11.21 प्रतिशत हो गई थी।
26 जनवरी 1950 से भारत में गणतंत्र की स्थापना हुई।
इसके साथ ही चुनाव में वोट की राजनीति प्रारंभ हुई। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने अपने घटते हुए जनाधार के चलते एक ओर मुस्लिम तुष्टीकरण का सहारा लिया तो दूसरी ओर हिन्दू प्रतिरोध किया।
पं. नेहरू तथा इन्दिरा गांधी को तो पहले से ही हिन्दुत्व से कोई लगाव न था।
जहां कांग्रेस ने मिश्रित संस्कृति, मुस्लिम अल्पसंख्यक तथा हिन्दू साम्प्रदायिकता का राग अलापा, वहां आपातकाल के दौरान समाजवाद तथा सेकुलरवाद को जोड़कर इनकी मनमानी व्याख्या की गई।
संजय गांधी ने मुस्लिम तुष्टीकरण का अवश्य कुछ विरोध किया, विशेषकर नसबंदी के प्रश्न पर दिल्ली के तुर्कमान गेट के आसपास के क्षेत्र में नसबंदी अभियान चला, जिसका परिणाम उसे भुगतना पड़ा।
कांग्रेस के भावी एजेण्डे से मुसलमानों की नसबंदी अभियान हटा दिया गया।
कांग्रेस के साथ अन्य छद्म सेकुलरवादी दलों तथा वामपंथियों ने भी मुसलमानों की मजहबी भावना तथा उन्माद को प्रोत्साहन दिया।
केन्द्रीय कांग्रेस सरकार तथा प्रांतीय सरकारों ने मुस्लिम वोट प्राप्त करने के लिए उन्हें तरह-तरह के प्रलोभन तथा सुविधाएं दीं।
अलग अल्पसंख्यक मंत्रालय, 15 सूत्रीय कार्यक्रम में बजट में विशेष सुविधाएं, आरक्षण में विशेष ध्यान, हज यात्रा पर विशेष छूट तथा आयकर से मुक्ति, पंचवर्षीय योजना केविकास में 15 प्रतिशत धन अल्पसंख्यकों पर व्यय आदि इसी तुष्टीकरण के प्रमाण हैं।
इसी कड़ी में सच्चर कमेटी व रंगनाथ मिश्र आयोग की सिफारिशें भी हैं।
कांग्रेस शासन की भी कानून की उपेक्षा तथा उदासीनता से मुसलमानों के विरुद्ध किसी मुस्लिम को बढ़ावा मिला।
उदाहरणत: मुम्बई में 50,000 मुसलमानों का हिंसक प्रदर्शन हुआ, परंतु भारत का गुप्तचर विभाग तथा पुलिस विभाग मूकदर्शक मात्र बना रहा।
लाखों असमी पुरुषों तथा महिलाओं को योजनाबद्ध ढंग से फैलाई अफवाहों के फलस्वरूप दक्षिण भारत तथा मुम्बई से वापस असम भागना पड़ा।
ताज्जुब है कि सरकार को इसका बहुत समय तक पता ही नहीं चला।
लाखों मुस्लिम बंगला घुसपैठिये नित्य भारत की सीमाओं को लांघकर असम तथा बंगाल सरकार के नागरिक भी बन गए।
इसके साथ ही पाकिस्तान से हजारों हिन्दू अनेक कष्ट उठाकर भारत आये।
परंतु कांग्रेस राजनीति तो मुस्लिम तुष्टीकरण तथा उनकी जनसंख्या वृद्धि में लगी रही।
उल्लेखनीय है कि गत 2014 के चुनाव के दिन ज्यों-ज्यों निकट आये त्यों-त्यों भारत के कई राजनीतिक दलों में भी मुसलमानों की चापलूसी की प्रतिद्वन्द्विता बढ़ती गई।
कांग्रेस ने भी राष्ट्रहित को भुलाकर क्षुद्र पार्टी स्वार्थ को महत्ता दी।
शीघ्र ही भारतीय नेताओं द्वारा मुस्लिम टोपियां ओढ़कर मुसलमानों को रिझानें का स्वांग प्रारंभ हुआ।
कल तक मजहब, जाति को गाली देने वाले, कठमुल्ले-मौलवियों के पांव चाटते दिखलाई देने लगे।
2011 की भारतीय जनगणना में मुस्लिम जनसंख्या के आंकड़े चौकाने वाले हैं इसमें मुसलमानों की जनसंख्या 14 प्रतिशत बतलाई गई है।
इसमें गैरकानूनी रूप से आये ढाई-तीन करोड़ से अधिक मुस्लिम नहीं हैं।
यदि ये मिला दें तो यह जनसंख्या 16 से 18 प्रतिशत हो जाती है तो वे इस्लाम खतरे में का नारा लगा देते हैं,स्वतंत्र देश की मांग करने लगते हैं।
यद्यपि भारत में सभी मुसलमान ऐसे नहीं हैं।
इनमें से अनेक देशभक्ति की भावना से ओत-प्रोत भी हैं।
पीयू- रपट
3 अप्रैल 2015 के वाशिंगटन के एक अमरीकी थिंक टैंक ने 2010 से लेकर 2050 ई.तक के संदर्भ में अपने पीयू रिसर्च सेंटर से एक भावी 35 वषार्ें के बाद विश्व में विभिन्न धार्मिक समुदायों की जनसंख्या की रपट निकाली है।
यह उनके निष्कर्ष हैं।
यह सेंटर अपने को किसी भी प्रकार के धार्मिक या अन्यत्र समुदायों से प्रभावित नहीं मानता है।
विशेषकर विश्व तथा भारत के संदर्भ में इसके निष्कर्ष चौकाने वाले चमत्कारपूर्ण तथा कौतहुल उत्पन्न करने वाले है।
भारत के सभी समाचारपत्रों तथा पत्र-पत्रिकाओं ने इसे प्रमुख स्थान दिया है।
विश्व के संदर्भ में रिपोर्ट में 2010ई. को आधार मानकर 2050 ई. तक विभिन्न प्रमुख धार्मिक ८ समुदायों की जनसंख्या का आंकलन किया है।
रपट के अनुसार 2010 से 2050 तक विश्व की जनसंख्या की 35 प्रतिशत की वृद्धि होगी,जिसमें प्रमुख समुदायों में मुसलमानों की जनसंख्या सर्वाधिक यानी 73 प्रतिशत, ईसाई समाज की 35 प्रतिशत तथा हिन्दुओं की जनसंख्या 34 प्रतिशत बढ़ेगी, विश्व में क्रम की दृष्टि से ईसाई सर्वाधिक, तत्पश्चात मुसलमान तथा इसके बाद हिन्दू होंगे।
रपट में जनसंख्या वृद्धि के मुख्यत: दो कारण दिये हैं। प्रथम मुसलमान युवकों की आयु 22 की है जबकि अनुपात में गैर मुस्लिम की 30 है।
अर्थात मुसलमानों को 7-8 वर्ष आयु न होने का लाभ मिलेगा जो जनसंख्या वृद्धि में सहायक होगा।
दूसरे, मुस्लिम महिला की प्रजनन शक्ति का अनुपात 3.2 है जबकि हिन्दुओं का 2.5 तथा ईसाइयों का 2.3 है।
उल्लेखनीय है कि रपट में मुस्लिम जनसंख्या की वृद्धि के कारण तो बताये, परंतु ईसाई समुदायों के बढ़ने की समुचित कारण मीमांसा नहीं की गई।
विचारणीय है कि इस्लाम या ईसाई समाज के जनसंख्या वृद्धि के महानतम कारण कन्वर्जनपर कोई उल्लेखनीय प्रकाश न डालकर उसे छिपाया गया है।
हिन्दू जनसंख्या की बढ़ोतरी बताई पर उसका अनुपात वही बताया जो 2010 में था।
भारत के संदर्भ में रपट विश्व में जनसंख्या की की दृष्टि से सर्वाधिक में बतलाया गया कि 2050 ई. में विश्व जनसंख्या की दृष्टि में से सर्वाधिक मुसलमान भारत में होंगे।
अभी तक इण्डोनेशिया इसमें सबसे आगे है।
रपट के अनुसार सर्वाधिक मुसलमानों की जनसंख्या क्रमश: भारत, पाकिस्तान तथा इण्डोनेशिया में होगी।
इसके साथ यह भी बताया गया है कि 2070 ई. में विश्व में सर्वाधिक जनसंख्या मुसलमानों की होगी।
उपरोक्त आंकड़ों के आधार पर पीयू रिसर्च सेंटर की रपट चौकाने वाली अवश्य है कि यह किसी को भयभीत करने वाली नहीं है।
यह संदेहास्पद तथा सभी प्रकार के तथ्यों का गहन अध्ययन न कर बनाई गई प्रतीत होती है।
वस्तुत: जनगणना एक बड़ी पेचीदगी प्रक्रिया है जो किसी भी देश के सामाजिक तथा आर्थिक कारणों, भौगोलिक तथा प्रकृति विज्ञान का परिणाम होती है (देखें, डी आर बेलन्दाई, द फण्डामेन्टल्स ऑफ पॉपुलेशन स्टडी)
बदलते हुए विभिन्न क्षेत्रों में परिवेश का इस पर बड़ा प्रभाव होता है। यह उल्लेखनीय है किगणित या भौतिक विज्ञान की भांति इसके निष्कर्ष या आंकड़े सही साबित नहीं होते हैं।
मानव व्यवहार के बारे में ऐसे निष्कर्ष प्राय: बेबुनियाद होते हैं तथा ऐतिहासिक कसौटी पर खरे नहीं उतरते।
इसके साथ ही रपट पूर्वाग्रहों से ग्रसित तथा ईसाईयत के समर्थक द्वारा बनाई गई लगती है।
इसके लेखक हिन्दुओं के प्रति पहले से ही पूर्वाग्रहों से विचलित दिखाई देते रहे हैं।
उदाहरण के लिए इसमें भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी के 2002 के काल जब वे गुजरात के मुख्यमंत्री थे के दंगों का वर्णन करते हुए 2000 लोगों के मरने की संख्या दी है जो आज पूर्णत: गलत साबित हो चुकी है तथा राजनीतिक प्रचार का केवल हथियारमात्र रही है। इसी भांति पीयू की पहली रपट में उसे गुजरात का गर्वनर लिखा है जो बाद में सुधार किया गया है।
उक्त रपट यद्यपि प्रोजेक्शन मात्र है, परंतु हिन्दुओं के लिए यह चेतावनी है।
यह अत्यंत गंभीर चिंता का विषय है कि भारत में अब भी कुछ नेता बेशर्मी से यह कहते नहीं सकुचाते कहते हैं कि निकट भविष्य में कोई परेशानी का कारण नहीं है।
अगले बीस वर्षों में जब मुसलमानों की जनसंख्या 30 प्रतिशत हो जायेगी, तब सोचने का वक्त आयेगा। पीयू रपट जहां हिन्दुओं के लिए भावी खतरा है, वहां देश की एकता, अखण्डता की स्वतंत्रता देश के नवयुवकों को आह्वान भी है। क्या भारत का हिन्दू अभी भी न चेतेगा?

-डॉ. सतीशचन्द्र मित्तल,,,,पांचजन्य से साभार उद्धृत

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