एम वेंकैया नायडू
तोक्यो ओलिंपिक भारत के लिए क्या शानदार उपलब्धि रही! भाला फेंक प्रतियोगिता में युवा खिलाड़ी नीरज चोपड़ा के स्वर्ण पदक की बदौलत, 13 वर्षों के लंबे इंतजार के बाद देश का गौरव, हमारा तिरंगा, शान से ओलिंपिक स्टेडियम में फहराया गया। उन्होंने आजाद भारत के लिए ऐथलेटिक्स प्रतियोगिता का पहला ओलिंपिक स्वर्ण पदक जीता और क्या शान से जीता! 2008 में अभिनव बिंद्रा के बाद यह ओलिंपिक की एकल प्रतियोगिताओं में केवल दूसरा स्वर्ण पदक है।
पिछले 24 ओलिंपिक खेलों में देश ने भाग लिया और उनमें निराशाजनक प्रदर्शन के बाद तोक्यो में भारत ने दुनिया को दिखाया कि ‘हां, हम भी कुछ करके दिखा सकते हैं।’ नया महत्वाकांक्षी भारत हर चार साल में और अधिक से अधिक पदकों की अपेक्षा करता रहा है, लेकिन हर बार निराशा ही हाथ लगती थी। तोक्यो ने अतीत की इस निराशा को तोड़ा है। सिर्फ पदकों की संख्या की दृष्टि से ही नहीं बल्कि हमारे कितने ही खिलाड़ी अपने जज्बे, अपने कौशल के कारण, प्रतियोगिता में पदक जीतने के नजदीक तक पहुंच गए।
एक उपनिवेश के रूप में भारत ने पहली बार 1900 के पैरिस ओलिंपिक में हिस्सा लिया था और दो पदक भी जीते। 2 से 3 पदक तक पहुंचने में 108 वर्ष लगे और 2012 में लंदन ओलिंपिक में इसे 6 तक ले जाने के लिए 4 साल और इंतजार करना पड़ा। पिछले रियो ओलिंपिक तक, 24 ओलिंपिक खेलों में भारत कुल 27 पदक ही जीत सका था। स्वाभाविक था कि हर चार साल में ओलिंपिक में असफलता के साथ भारत का विश्वास टूटता था। खासकर जब आर्थिक रूप से हमारे बराबर के अन्य देश, तेजी से मेडल मंच की तरफ बढ़ते जाते थे।
रियो में भारतीय दल में 118 खिलाड़ी शामिल थे। उनमें से लगभग 20 ही क्वॉर्टर फाइनल या उससे आगे तक पहुंच सके। तोक्यो में 120 में से 55 क्वॉर्टर फाइनल या उससे आगे तक गए। हमारे खिलाड़ियों ने जिन 18 खेलों में भाग लिया, उनमें से 10 में क्वॉर्टर फाइनल या उससे आगे तक पहुंच सके। इनमें से 5 ने तो स्वर्ण पदक के लिए प्रतिस्पर्धा में हिस्सा लिया, 43 ने हॉकी सहित सेमीफाइनल की चार प्रतिस्पर्धाओं में हिस्सा लिया और 7 ने 3 खेलों के क्वॉर्टर फाइनल में भाग लिया।
स्वर्ण पदक के साथ कुल 7 पदक जीत कर, हमारे खिलाड़ी 2012 के लंदन ओलिंपिक से आगे बढ़े। हमारे खिलाड़ियों, हमारे ऐथलीटों ने जिस जुझारू जज्बे का प्रदर्शन किया है, उसने पदकों के भूखे भारतीयों का दिल जीत लिया। नीरज चोपड़ा पहले प्रयास में जेवलिन के क्वॉलिफाइंग प्रतियोगिता में सबसे शिखर स्थान पर रहे, जो शुभ संकेत था। कमलप्रीत कौर ने डिस्कस थ्रो के लिए दूसरे स्थान पर रहकर क्वॉलिफाई किया। 39 वर्षीय अनुभवी खिलाड़ी अचंत शरत कमल टेबल टेनिस के क्वॉर्टर फाइनल में स्वर्ण पदक विजेता मा लॉन्ग से हार तो गए, लेकिन उन्होंने एक गेम जीता अवश्य। महिला टेबल टेनिस के प्री-क्वॉर्टर फाइनल में मोनिका बत्रा का खेल सराहनीय रहा। कुश्ती में बजरंग पुनिया और रवि दहिया ने हर राउंड में बेहतरीन प्रदर्शन किया और बाजी पलटकर अगले राउंड में प्रवेश किया। भारत ने ओलिंपिक में तलवारबाजी में पहली बार भाग लिया था और भवानी देवी ने पहला राउंड जीता भी। गोल्फ में अदिति अशोक तो आखिर तक टिकी रहीं। वह बहुत ही कम अंतर से कांस्य पदक से दूर रह गईं। पुरुषों की 4×400 मीटर रिले दौड़ में नया एशियाई रेकॉर्ड कायम किया गया, जबकि पुरुषों की 800 मीटर दौड़ और लंबी कूद में नए राष्ट्रीय रेकॉर्ड बने। खिलाड़ियों का यह नया जज्बा देखकर भारतीयों के चेहरे नई आशा से खिल उठे हैं। अगर तीरंदाजी और निशानेबाजी में भी हमारे खिलाड़ियों ने आशा के अनुरूप प्रदर्शन किया होता तो हमारी पदक संख्या कहीं बेहतर होती। ओलिंपिक में खिलाड़ियों पर बहुत दबाव होता है। अगर पदक जीत सकने वाले प्रतिभाशाली खिलाड़ियों को हम, इस स्तर पर पड़ने वाले दबावों के बीच अपना बेहतरीन खेल प्रदर्शन कर सकने का प्रशिक्षण दे सकें, तो हम कई और पदक जीत सकते हैं।
लेकिन वह तोक्यो हॉकी प्रतिस्पर्धा का ‘चक दे’ क्षण ही था, जिसने भारतीयों की टूटती आशाओं में फिर से प्राण फूंक दिए। 8 ओलिंपिक स्वर्ण पदकों का गौरवशाली अतीत और इस खेल के लिए देशवासियों का प्यार, राष्ट्र की अस्मिता से जुड़ा है। पिछले 41 वर्षों में इस खेल में पदक न जीत सकने के कारण देश का आत्मविश्वास और आत्मगौरव आहत हुए थे। आत्मविश्वास और गौरव के बिना, किसी भी देश से किसी भी क्षेत्र में बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद नहीं की जा सकती। महिला और पुरुष दोनों टीमों ने बेहतरीन प्रदर्शन किया, सही समय पर कठिन परिस्थितियों में उभर कर आगे आईं। उनके खेल ने इस राष्ट्रीय खेल और उससे जुड़े राष्ट्रीय गौरव को पुनर्जीवित कर दिया है। भले ही हमारे देशवासियों के दिमाग में क्रिकेट हो, लेकिन हमारे दिलों पर तो हॉकी ही राज करती है। यही ‘चक दे’ भावना तोक्यो खेलों को हमारे लिए विशेष बनाती है।
आगे का मिशन
तोक्यो ने भविष्य के लिए हमारे आगे के मिशन को दिशा दी है। 4 स्वर्ण पदकों के साथ भारत पदक तालिका के पहले 20 देशों में आ सकता था। अगर और 4 जीते होते तो पहले 10 देशों में। तोक्यो में हमारे प्रदर्शन को देखते हुए ऐसा कर पाना बिलकुल संभव है। 2015 से ही भारत सरकार द्वारा खेल प्रतिभाओं को पहचानने और उन्हें प्रोत्साहित करने के लिए सार्थक प्रयास किए गए हैं, उनके परिणाम तोक्यो में दिखाई भी पड़े। यह मिशन तभी सफल हो सकता है, जब हम देश भर में खेलों की संस्कृति को बढ़ावा दें, उसको संरक्षण दें, भविष्य के अपने प्रतिभाशाली खिलाड़ियों को जरूरी पेशेवर और तकनीकी सुविधा और सहायता उपलब्ध कराएं। केंद्र सरकार ने इस दिशा में सही सार्थक कदम उठाना शुरू भी कर दिया है। तोक्यो 121 वर्ष के हमारे ओलिंपिक इतिहास का सबसे बेहतरीन पल है, जिसने यह साबित कर दिया है कि ‘हां भारत कर सकता है’। ‘थोड़ा और तेज, थोड़ा और ऊंचा, थोड़ा और शक्तिशाली होना’, प्रमुख खेल शक्तियों की श्रेणी में आने के लिए बस यही एक कुंजी है। समय है कि हम स्थिर, एकाग्र होकर 2024 में अगले ओलिंपिक खेलों पर ध्यान केंद्रित करें और 140 करोड़ भारतवासियों की प्रार्थनाएं सुफल हों।
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