अति सर्वत्र वर्जेते। किसी भी क्षेत्र में अति का दुष्परिणाम खतरनाक, भयानक और भस्मासुर वाला ही निकलता है। इसीलिए अति से लोग बचने की सीख देते हैं। फिर भी लोग अति से बाज नहीं आते हैं। अभी-अभी अमेरिका और यूरोप के अंदर में इस्लाम के अति को लेकर एक अद्भुत अभियान चल रहा है, अभियान को गति मिल रही है, हवा भी मिल रही है, तलवार और शक्ति के बल पर इस्लाम के विस्तार की मानसिकता को चुनौती मिल रही है। यह चुनाती कोई बाहरी तत्वों और किरदारों से नहीं मिल रही है बल्कि यह चुनौती इस्लाम के भीतर से मिल रही है। चुनौती देने वाले इस्लाम के ही सहचर हैं, इस्लाम के अनुयायी रहे हैं, लेकिन अब उनके लिए इस्लाम खुशी और खुशहाली के लिए नहीं बल्कि दुख और संहार और पिछड़ापन, हिंसा व खूनखराबा का प्रतीक बन गया है। इस अभियान का नाम एवोसोम विदाउट अल्लाह दिया है। यानी इस्लाम से मुक्त होने, इस्लाम छोड़ने का अभियान। यह सिर्फ एक अभियान भर नहीं है। इस अभियान के साथ बहुत बडी संख्या में इस्लाम के अनुयायी जुड़े हुए हैं, अभियान को गति दे रहे हैं, अभियान को हवा दे रहे हैं।
यह प्रचारित किया जा रहा है कि इस्लाम से मुक्त होने के बाद ही खुशहाली संभव है, शांति संभव है, हिंसा से मुक्ति संभव है, आतंकवाद से मुक्ति संभव है, मजहबी विसंगतियों से मुक्ति संभव है, जिहाद की मानसिकताओं से मुक्ति संभव है, विभिन्न धर्मो, मजहबों के बीच जारी धृणा से मुक्ति संभव है। इस्लाम छोड़ने के अभियान को ईसाइयत या फिर अन्य किसी धर्म की साजिश बता कर खारिज नहीं किया जा सकता है, क्योंकि जब कोई अभियान गंभीर हो जाता है, दबाव या फिर लोभ-लालच से मुक्त होकर लोगों को आकर्षित करने लगता है, लोगों को जुड़ने के लिए प्रेरित करने लगता है तब उस अभियान पर लांक्षणा लगाने या फिर उस अभियान पर प्रत्यारोपित आरोप लगाने का कोई अर्थ नहीं रह जाता है। आंकडे कहते हैं कि अमेरिका में जन्में हर चार में से एक मुसलमान इस्लाम का त्याग कर चुका है, वह या तो अन्य धर्म को स्वीकार कर लिया या फिर नास्तिक बन गया। इस्लाम के नियामकों और झंडाबदार लोगों को यह सोचना जरूर चाहिए कि आखिर अमेरिका और यूरोप के मुसलमान इस्लाम छोड़ने के इस अभियान के साथ जुड़ क्यों रहे हैं, खासकर पढे-लिखे लोग लगातार इस्लाम का त्याग क्यों कर रहे है?
क्या सही में इस्लाम के मूल्यों में अति है? क्या सही में इस्लाम के मूल्यों में हिंसा निहित है? क्या सही में इस्लाम के मूल्यों में आतंकवाद निहित है? क्या सही में इस्लाम के मूल्यों मे आतंकवाद निहित है? क्या सही में इस्लाम के मूल्यों से ही जिहाद की भावनाएं हिंसक होती हैं? क्या इस्लाम में विभिन्न धर्मो और मजहबों के बीच में घृणा, विवाद और तनाव के तत्व निहित है? क्या इस्लम के मूल्यों में सही में अमेरिका और यूरोप की बहुलतावाद में जहर घोलने के तत्व निहित हैं? इस्लाम के मूल्यों ने क्या सही में अमेरिका और यूरोप के अंदर में दहशतगर्दी और मजहबी अधेरगर्दी के तत्व निहित है? क्या इस्लाम के मूल्यों में पढे-लिखें मुस्लिम वर्ग को पृथक करने के तत्व निहित है? क्या इस्लाम के मूल्यों से अब मुसलमान डरे हैं, भयभीत है? क्या अब इस्लाम के मूल्यों को अमेरिका-यूरोप और अन्य लोकतांत्रिक देश के मुसलमान अपने लिए घातक और धृणा युक्त समझ बैठे हैं? क्या इस्लाम के मूल्यों के खिलाफ यह अभियान अमेरिका-यूरोप की परिधि से बाहर निकलकर लोकतांत्रिक देशों तक नहीं पहुंचेगा? क्या यह अभियान मुस्लिम देशों की शांति और सदभाव पंसद मुस्लिम वर्ग को भी आकर्षित करेगा? क्या इस अभियान को इस्लाम के मूल्यों को थिथिल करने जैसी कोई मजहबी शक्ति मिलेगी? इन सभी प्रश्नों का उत्तर खोजा ही जाना चाहिए।
मजहबी-धार्मिक मूल्यों का तुलनात्मक अध्ययण क्या है? तुलनात्मक अध्ययण की कसौटी पर जहां अन्य धर्मो में बहुलतावाद की काफी उम्मीद होती है, सर्व धर्म समभाव की उम्मीद होती है, शांति की उम्मीद होती है, हिंसा को कम करने की उम्मीद होती है, विज्ञान की कसौटी पर धर्म को परिभाषित करने की उम्मीद होती है, विज्ञान की कसौटी पर धर्म कंे मूल्यों को खारिज करने की उम्मीद होती है, धर्म के मूल्यों को खारिज कर आगे बढने की उम्मीद होती है। पर इस्लाम के मूल्यों के साथ ऐसी उम्मीद कदापि नहीं होती है? इस्लाम के मूल्य अन्य धर्मो से कहीं भी मेल नहीं खाते हैं। इस्लाम के मूल्यों में नरमी या बहुलता वाद की कोई उम्मीद ही नहीं होती है। इस्लाम के मूल्यों की वर्तमान काल की कसौटी पर व्याख्या नहीं हो सकती है, इस्लाम के मूल्यों की विज्ञान की कसौटी पर व्याख्या नहीं हो सकती है। इस्लाम के मूल्यों को विज्ञान की कसौटी पर खारिज करने की मनाही है। इस्लाम के मूल्यों के खिलाफ बोलने की मनाही है। इस्लाम के मूल्यों के खिलाफ आचरण करने की स्वीकृति नहीं है। इस्लाम के मूल्यों से इतर व्यवहार पर दंड की खतरनाक और हिंसक प्रक्रिया की धमकी निहित है। कहने का अर्थ है कि इस्लाम के मूल्यों का हर हाल में पालन करने और उस पर चलने की अनिवार्यता है।
इस्लाम के मूल्यों के खिलाफ करने, इस्लाम के मूल्यों के खिलाफ लिखने, इस्लाम के मूल्यों के खिलाफ बोलने या फिर इस्लाम के मूल्यों के खिलाफ आचरण करने पर कैसी हिंसा, कैसा आतंकवाद और कैसी धृणा उत्पन्न होती है, किस तरह से इस्लाम के अनुयायी बर्बर और हिंसक होकर खून खराबा करने ही नहीं बल्कि निर्दोष लोगों को भी मौत का घाट उतारने के लिए प्रेरित होते है, सामने आते हैं, यह सब जगजाहिर है। इसके कोई एक नहीं बल्कि अनेकानेक उदाहरण उपस्थित है। कभी महान साहित्यकर्मी सलमान रश्दी ने इस्लाम के मूल्यों के खिलाफ साहित्य सृजन को गति दी थी। आज लगभग चालीस सालों से सलमान रश्ती कडी सुरक्षा के बीच जीवन जीने के लिए बाध्य है, दुनिया की कई मुस्लिम देशों की सरकारों ने सलमान रश्दी की हत्या का फतवा दी थी। बांग्लादेश की विख्यात लेखिका तसलीमा नसरीन ने इस्लामिक मूल्यों में स्त्री के प्रश्न पर साहित्य समालोचना की थी। इस्लाम के सहचरों ने तसलीमा नसरीन के खिलाफ किस प्रकार से हिंसा बपपाने की कोशिश की थी, यह भी जगजाहिर है। तसलीमा नसरीन को बांग्लादेश छोडने के लिए बाध्य होना पड़ा था। आज तसलीमा नसरीन दुनिया में छिप-छिप कर रह रही है। फ्रांस की पत्रिका शाली एब्डों पर हमला कर एक दर्जन से अधिक पत्रकारों को मौत का घाट उतार दिया गया। फ्रांस के एक शिक्षक को सिर्फ पढाने मात्र से ही बर्बर हत्या कर दी गयी। भारत में कमलेश तिवारी की हत्या भी उल्लेखनीय है। सबसे बडी बात ईश निंदा कानून की है। ईशं निंदा कानून के तहत बर्बर भीड़ ही क्यों बल्कि इस्लामिक कानूनी नियामकों द्वारा सरेआम हत्याएं होती है। मुस्लिम देशों के अंदर हर साल ऐसी हत्याएं बडी संख्या में होती हैं।
संज्ञान लेने वाली खतरनाक एक बात और यह है कि इस्लाम छोड़ना आसान भी नहीं है। कोई भी इस्लाम स्वीकार तो कर सकता है पर आसानी के साथ इस्लाम का त्याग नही कर सकता है। अमेरिका और यूरोप के अंदर में सरकारी तौर पर कोई भी मुसलमान इस्लाम से अलग हो सकता है, अमेरिका और यूरोप का कानून इस्लाम त्यागने से मना नहीं करते पर इस्लाम के अनुयायी इसे स्वीकार नहीं करते, बरदास्त नहीं करते हैं और इस्लाम को त्याग करने वाले का खून तक कर देते हैं। इसके अतिरिक्त मुस्लिम देशों में इस्लाम छोड़ने का अर्थ होता है साक्षात मौत का आमंत्रण देना। ईरान, कतर, सोमालिया, सूडान, सउदी अरब, अफगानिस्तान, लीबिया, सीरिया आदि मुस्लिम देशों में किसी मुसलमान को इस्लाम छोड़ने की काूननी अधिकार नही है, अगर इन मुस्लिम देशों में कोई भी मुसलमान इस्लाम का त्याग करता है तो उसकी सजा सिर्फ और सिर्फ मौत होती है। मौत या तो पत्थरों से मार कर होगी या फिर सीधे फांसी पर लटका दिया जाता है। इस कारण मुस्लिम देशों का कोई इस्लाम का सहचर इस्लाम छोड़ने से पहले अमेरिका या फिर यूरोप में शरण लेना चाहता है।
एंथिस्ट मुस्लिम के लेखक अली रिजवी कहते हैं कि इस्लामिक मूल्यों में सख्ती और हिंसा की डर दिखा कर पालन कराने की दंड व्यवस्था कायम करना खतरनाक है। ऐसी प्रवृति हानिकारक है। आधुनिक और विज्ञान के दौर में ऐसी प्रवृतियां मुनष्य को मनुष्यता से दूर करती है। पर दुखद यह है कि ऐसी प्रवृति का उदार होना संभव नहीं है। वास्तव में अमेरिका और यूरोप के अंदर में इस्लाम के रूढिवादियों ने एक तरह से अंधेरगर्दी मचायी है, इस्लाम की रूढियों का खतरनाक तौर पर प्रचार-प्रसार किया है। छोटी उम्र के बच्चों और बच्चियों को इस्लाम के मूल्यों के प्रति हिंसक होने और आतंकवादी होने तक की मानसिकताएं भरी गयी। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि अमेरिका और यूरोप के अंदर भी अफगानिस्तान, सूडान, सामालिया, नाइजीरिया, सीरिया, लेबनान जैसी मानसिकताएं पसर गयी। सीरिया और इराक में अमेरिका व यूरोप से बडी संख्या में मुस्लिम युवक युवतियां आईएस की ओर से लडने गयी थी। स्थिति यहां तक पहुंच गयी है कि मुस्लिम माता-पिता अपने बच्चों को सीरिया, इराक आदि देशों में जाकर आतंकवाद का सहचर बनने रोक नहीं पा रहे हैं, घर के अंदर में भी बच्चे इस्लाम की रूढियों के सहचर होकर सरेआम अंधेरगर्दी मचा रहे हैं। इससे बचने के लिए ही अमेरिका और यूरोप मे जन्में मूसलमानों ने इस्लाम छोडने का अभियान चलाया है। खास कर अमेरिका में जन्में चार में एक मुसलमान इस्लाम का त्याग कर चुके हैं। यह आंकडा आगे और भी बडा होगा।
(लेखक वरिष्ठ स्तम्भकार हैं)
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