जब ‘स्वराज्य’ के संपादकों ने जलाये रखी स्वतंत्रता की दीपशिखा
चाहे ब्रिटिश सत्ताधीशों ने भारत के विक्षोभ और विद्रोह की हवा निकालने के लिए कांग्रेस जैसा संगठन भी खड़ा कर लिया था, परंतु भारतीयों का विक्षोभ और विद्रोह था कि शांत होने का नाम नही लेता था। अपने महान क्रांतिकारियों के महान कृत्यों का अवलोकन करने से और उनके विषय में पढऩे से ही स्पष्ट हो जाता है कि उन्होंने 1857 के पश्चात भी क्रांति की ज्वाला शांत नही पडऩे दी थी। इस क्रांति को ‘भारत का प्रथम स्वातंत्रय समर’ सिद्घ करने के लिए लिखी गयी वीर सावरकर जी की पुस्तक को प्रकाशित कराने पर ही ब्रिटिश शासन ने प्रतिबंध लगा दिया था। इसी प्रकार श्यामजी कृष्ण वर्मा के साप्ताहिक समाचार पत्र ‘इंडियन सोशियोलॉजिस्ट’ के मुद्रण पर प्रतिबंध लगा दिया था। जिससे उनके प्रकाशन के लिए कोई भी प्रकाशक तैयार नही हो रहा था। तब ब्रिटेन के सुविख्यात पत्रकार मि. गाय आल्टे्रड ने उन्हें मुद्रित करा दिया, साथ ही उनके समर्थन में एक लेख लिखा। जिससे ब्रिटिश सरकार उनसे रूष्ट हो गयी। सारे ब्रिटेन के लिए यह अप्रत्याशित घटना थी, जिनकी उन्हें कल्पना नही थी। इसलिए मि. आल्टे्रड को उठाकर जेल में डाल दिया गया। उन्हीं दिनों सावरकर भी क्रिस्टन बंदीगृह में बंद थे। उन्हीं के साथ इसी जेल में मि. गाय आल्टे्रड को भी रखा गया। मि. आल्टे्रड ने न्यायालय में अपने बयान देते समय कहा था-‘‘इतिहास की वास्तविकता से पता चलता है कि 1857 में भारत में हुआ विद्रोह स्वाधीनता के लिए एक संघर्ष था। उसे बलवा या बगावत कहना वास्तविकता पर पर्दा डालना है। भारत का स्वाधीनता आंदोलन सर्वथा न्यायोचित है। भारत को स्वाधीन किया ही जाना चाहिए।’’
इस आरोप में मि. गाय आल्टे्रड को निरंतर दो वर्षों तक जेलों की कठोर यातनाएं झेलनी पड़ी थीं। परंतु उनके बयान से सावरकर जी के इस मत की पुष्टि तो हो ही गयी थी कि 1857 का विद्रोह भारतीयों का स्वातंत्रय समर था। दूसरे इस सहृदयी अंग्रेज के इस बयान से अंग्रेजों को भारत की दुखदायी स्थिति को समझने का अवसर मिला।
जब हमारे क्रांतिकारी सन 1907 में 1857 की क्रांति के पचास वर्ष पूर्ण होने पर उस क्रांति की स्मृतियों को चिरस्थायी बनाने के उद्देश्य से विभिन्न कार्यक्रमों का आयोजन कर रहे थे, तो हमारे लोगों में बड़ा उत्साह देखने को मिल रहा था। स्वदेशी, स्वशासन, स्वतंत्रता, और स्वराज्य इत्यादि स्वबोधक शब्दों को उस समय मंचों से, लेखकों के लेखों में तथा कवियों की कविताओं में बहुत अधिक सुना जा सकता था।
ऐसे ही समय में शामली निवासी शांति स्वरूप भटनागर नामक एक क्रांतिकारी युवक ने उर्दू साप्ताहिक समाचार पत्र ‘स्वराज्य’ निकालना आरंभ किया। 1907 की दीपावली से उन्होंने इस पत्र का प्रकाशन प्रारंभ किया। श्री भटनागर अम्बा प्रसाद द्वारा स्थापित राष्ट्रभक्त ‘भारत माता सोसायटी’ के सदस्य थे। वह ‘स्वराज्य’ में बड़े देशभक्तिपूर्ण लेख लिखते थे। जैसे एक लेख का शीर्षक था-‘बम क्यों फेंका गया?’ स्पष्ट है कि वह क्रांतिकारियों के प्रवक्ता बन गये थे। फलस्वरूप उन पर ब्रिटिश शासन की भौहें तन गयीं। उन पर राजद्रोह का मुकद्दमा भी चलाया गया। जिसमें उन्हें कारावास का दण्ड और 500 रूपये का अर्थदण्ड लगाया गया। 500 रूपया न देने पर ब्रिटिश शासन ने उनकी प्रैस को ही जब्त कर लिया था। अंग्रेज सोच रहे थे कि ‘स्वराज्य’ अब बंद हो जाएगा। पर ‘स्वराज्य’ के लिए ही जिस देश का बच्चा-बच्चा साधना कर रहा था, उसमें ‘स्वराज्य’ का प्रकाशन रूकना ही असंभव था। इसलिए रामदास सुरलिया आगे आये और संपादक के रूप में ‘स्वराज्य’ के अंक गुप्त रूप से प्रकाशित करने लगे। जब उनके भी वारंट हो गये तो ब्रिटिश शासन से छुपकर वह भूमिगत होकर प्रचार कार्य करने लगे।
तब सुरलिया का स्थान तीसरे संपादक के रूप में होतीलाल वर्मा ने ग्रहण किया। उन्होंने भी ‘स्वराज्य’ की गरिमा का पूरा ध्यान रखा और एक से बढक़र एक उत्तम और राष्ट्रभक्ति पूर्ण आलेख लिखे। फलस्वरूप उन्हें भी क्रूर सत्ता ने कालापानी की सजा करके भेज दिया। देश के वीरों का उत्साह देखिए कि अंग्रेज जिस ‘स्वराज्य’ को बार-बार अस्त हुआ मान लेते थे उसके उत्तराधिकारी बन-बनकर बार-बार हमारे क्रांतिकारी सामने आते जाते थे, उनका संकल्प था कि ‘स्वराज्य’ के सूर्य को अस्त नही होने देना है। अब गुरूदासपुर निवासी बाबूराम हरि ने आकर ‘स्वराज्य’ की बागडोर संभाल ली। उनके तीन लेख छपते ही उन पर भी अंग्रेजों की क्रूरता की गाज गिरी और इलाहाबाद के सेशन जज ने उन्हें 21 वर्ष की सजा देकर जेल भेज दिया।
मां भारती ने अंग्रेजों की क्रूरता को पुन: एक ओर रखकर एक सपूत को आगे कर दिया। ये महाशय थे नंदगोपाल। नंदगोपाल लाहौर के ‘इंकलाब’ के संपादक रह चुके थे। उन्होंने भी ‘स्वराज्य’ की निर्भीक पत्रकारिता को पूर्ववत जारी रखा। फलस्वरूप लेखनी के इस धुरंधर खिलाड़ी को भी अंग्रेजों ने कालापानी की सजा देकर जेल भेज दिया। इस प्रकार कालापानी हमारे क्रांतिकारियों के लिए तीर्थस्थल बन गया। सचमुच अण्डमान की वह जेल जिसमें हमारे अनेकों क्रांतिकारी बंद रहे संपूर्ण भारतवर्ष के लिए एक तीर्थस्थल है। जिसमें क्रांति के लिए एक से बढक़र एक नरकेसरी ने अपनी अतुलनीय साधना की थी। इसी पत्र ‘स्वराज्य’ के लिए नंदगोपाल के पश्चात चार अंकों के संपादकीय लिखे-अमीचंद बम्बवाल ने। जिन्हें देखते ही अंग्रेजों ने उनके विरूद्घ भी वारंट जारी कर दिये। अमीचंद बम्बवाल यह जानते थे कि उनके साथ भी वही हो सकता है जो उनके पूर्ववत्तियों के साथ किया जा चुका है। इसलिए वह लेखनी का जादूगर वारंट जारी होते ही फरार हो गया। अंग्रेज हाथ मलते रह गये।
इन सारी घटनाओं से भी देश में क्रांति का वातावरण गरम बना रहा और सारा देश अपने क्रांतिकारियों की रोमांचकारी घटनाओं से प्रेरित होकर उनके साथ खड़ा रहा। चारों ओर से कहीं से भी ऐसा समाचार नही मिल रहा था जहां लोगों ने रक्त बहाने से डरकर कुछ ऐसा कर दिया हो जिससे हमारे क्रांतिकारियों के आंदोलन को झटका लग सकता हो।
वास्तव में लेखनी में वह शक्ति होती है जो क्रूर सत्ताओं को हिला देती है। भारत को स्वतंत्रता दिलाने में लेखनी ने जो भूमिका निभाई उसके योगदान को भी भुलाया नही जा सकता।