असद न असत् था, न सत् था और न रज था, प्रत्तयुत तम ही तम था
गतांक से आगे…
अत: आगे एक अदितीय सत् ही था , उसी से अग्नि और जल की उत्पत्ति हुई है ।इस विवाद से पाया जाता है कि उस जमाने में आत्मा, सत् और असत् पर विश्वास करने वाले तीन संप्रदाय थे।एक ब्रहृ से, दूसरा सत् से और तीसरा असत् से संसार की उत्पत्ति मानता था। एक कहता था कि आरंभ में ब्रह्म ही ब्रह्म था, अन्य वस्तु न थी।दूसरा कहता था कि सत् अर्थात दूसरी वस्तु (प्रकृति) ही थी और उसी से सृष्टि हुई और तीसरा कहता था कि यह दूसरी वस्तु भी नहीं थी ,केवल असत् से ही अर्थात् अभाव (शून्य) से ही सत् अर्थात दूसरी वस्तु की उत्पत्ति हुई।
सत् और असत् शब्द बड़े मार्के के हैं।इन के दो दो अर्थ हैं।सत् का एक अर्थ भाव अर्थात् अस्तित्व है और दूसरा अर्थ सृष्टि की वर्तमान दशा है।इसी तरह असत् शब्द का अर्थ अभाव अर्थात् शून्य है और दूसरा सृष्टि पूर्व की प्रलयदशा है।
ऊपर उपनिषद के जिन सत् और असत् का वर्णन है,वे भाव और अभाव ही अर्थ रखते हैं। क्योंकि कहा गया है कि असत् से तेज और जल से कैसे उत्पन्न हो सकता है। इस तेज और जल की दलील से स्पष्ट हो जाता है कि ये सत् और असत् प्रकृति के ही लिए हैं और भाव तथा अभाव ही अर्थ रखते हैं । परंतु वेदों में असत् शब्द अभाव( शून्य)अथवा पृलयदशा के अर्थ में भी आता है।ऋग्वेद में लिखा है कि – ‘नासादासिन्नो सदासीत् , नासीदज: तम आसीतमसा गुढमेग्’ अर्थात् में असद न असत् था, न सत् था और न रज था, प्रत्तयुत तम ही तम था। यहां सृष्टाचारम्भ के पूर्व का वर्णन करते हुए कहा गया है कि उस समय असत्
नहीं था, अर्थात् उस समय अभाव या (शून्य)नहीं था और सत् तथा रज भी नहीं था फिर क्या था? कहते हैं कि उस समय तम ही तम था।इसके विरुद्ध ऋग्वेद 10/72/3 में कहा गया है कि ‘देवानां युगे प्रथमेsसतः सदजायत’।अर्थात आरंभिक कालिक देव काल में असत् से ही सत् हुआ और उससे ही सृष्टि हुई। यहां असत् शब्द अभाव अर्थ में नहीं, प्रत्युत् सत रज और तम वाले सत् के विरुद्ध,वर्तमान सृष्टि की पूर्वावस्था के अर्थ में आया है। यहां असत् शब्द का अर्थ अभाव (शून्य)नहीं है। इन दोनों प्रमाणों से ज्ञात हुआ कि सत् और असत् के दो -दो अर्थ है। एक अर्थ भाव अभाव का और दूसरा सत् , रज, तम का।यद्यपि सत् , रज ,तम के विषय में भी लोगों में भ्रम फैला हुआ है,परंतु ऊपर वाले ऋग्वेद के प्रमाणों से ज्ञात हुआ कि सत् , रज, तम सृष्टि की स्थितियां है। सत् , रज ,तम के इस जटिल प्रश्न को श्रीमद् भागवत ने बहुत ही अच्छी तरह सुलझाया है।
उसमें लिखा है – आप अपनी माया से त्रिलोक की रक्षा के लिए सात्विक – शुक्ल रूप धारण करते हैं ,सृष्टि के हेतु सर्गारम्भ में राजस्व गुणप्रधान रक्त रूप धारण करते हैं और नाश के लिए तमाम गुण प्रधान कृष्ण रूप को धारण करते हैं। इससे स्पष्ट हो गया कि बनी हुई सृष्टि सत् है और इसका रूप शुक्ल है ।बनने के समय सृष्टि की आदि में यह सृष्टि राजस है और इसका रंग लाल है और प्रलय के समय यह तम है तथा इसका रूप कृष्ण है। शुक्ल, रक्त और कृष्ण रंगों की उपमा देकर रात, प्रभात और दिन के अलंकार से सृष्टि की तीनों स्थितियां समझा दी गई है। दिन का रंग शुक्ल है और वह बनी हुई सृष्टि की तरह है,अतएव यह सत् की दशा में है।प्रभात के उषाकाल का रंग लाल है और वह सृष्टयारम्भ की तरह है, अतएव रज की दशा में है और रात का रंग श्याम है ,वह प्रलय की तरह है, इसलिए वह तम् कहलाता है। अर्थात सृष्टि की स्थिति सत् है,सृष्टयारम्भ रज है और प्रलय दशा तम है।सृष्टि की स्थिति ,सृष्टि का आरंभ और सृष्टि की प्रलय आदि दशाएं सब भौतिक ही है, इसलिए यह सत् , रज ,तम भी भौतिक ही है – प्रकृति ही है। इसलिए प्रकृति को कहा गया है कि ‘अजामेका लोहिलशक्लकृष्णा’ अर्थात एक न उत्पन्न होने वाली प्रकृति है, जिसकी कार्यदशा शुक्ल है,आरंभ रक्त है और आरंभ पूर्व दशा कृष्णा है।इस वाक्य ने वेद के मंत्रों का भाव स्पष्ट कर दिया है।वेद मे जो कहा गया है कि असत् नहीं था ,उसका यही मतलब है कि अभाव नहीं था,प्रत्युत’अजा’ अर्थात् न उत्पन्न होने वाली प्रकृति थी।उसी में कहा गया है कि सत् और राज भी नहीं था।इसका मतलब यही है कि उस समय न तो सृष्टि की वर्तमान स्थिति ही थी और न सृष्टि का आरंभ ही था। परंतु मंत्र कहता है कि,उस समय तम ही तम था। इसका मतलब यही है कि उस समय प्रलयदशा थी।तात्पर्य यह है कि उपनिद्वाक्य के सत् और असत् शब्दों से परमात्मा का कुछ भी संबंध नहीं है।परमात्मा के लिए सत् ,-असत् शब्द का प्रयोग होता ही नहीं ।
क्रमश:
प्रस्तुति : देवेंद्र सिंह आर्य
चेयरमैन : उगता भारत
लेखक उगता भारत समाचार पत्र के चेयरमैन हैं।