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संपादकीय

‘नेपाल पर मोदी का मौन’

नेपाल हमारा सर्वाधिक विश्वसनीय साथी रहा है। आजकल यह देश अपनी परंपरागत ‘हिंदू राष्ट्र’ की छवि को नीलाम कर एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बनने की तैयारी कर चुका है। इसने अपने नये संविधान में अपनी यह इच्छा प्रकट कर दी है कि अब उसे ‘हिंदू राष्ट्र’ ना समझा जाए और एक धर्मनिरपेक्ष देश के रूप में उसे जाना जाए। अभी तक विश्व में केवल दो देश टर्की और भारत ही धर्मनिरपेक्ष थे अब इसी रास्ते पर नेपाल चल निकला है! इस्लाम और ईसाइयत को अपनी पहचान बनाये रखने की छूट है, जबकि अन्य किसी धर्म को ऐसी छूट नही है। टर्की और भारत अपनी पहचान को मिटाते जा रहे हैं, धर्मनिरपेक्षता की उनकी शासकीय नीति ने उन्हें यही दिया है। अब हमें नेपाल के विषय में भी यही मानना चाहिए कि वह भी अपनी पहचान को अपने आप ही मिटाने के दौर में प्रविष्ट हो चुका है।

एक ओर नेपाल से लगता हुआ चीन है तो दूसरी ओर भारत है। अब नेपाल संकट के काल से निकल रहा है। वह डूब सा रहा है और चीन उसकी ओर हाथ बढ़ा रहा है। कहते हैं कि ‘डूबते को तिनके का सहारा’ ही पर्याप्त होता है। जब तिनका चीन जैसे देश का हाथ हो तो फिर तो डूबता हुआ भी ‘शेर’ बन सकता है। भारत के परंपरागत भाई नेपाल के भीतर यह शेरत्व जाग भी गया है। उसके राजदूत दीप प्रकाश उपाध्याय ने भारत को धमकी देते हुए कहा है कि अगर भारत ने हमें पीछे धकेलना जारी रखा तो मजबूरन हमें अपनी सहायता के लिए चीन की ओर जाना पड़ेगा। नेपाली राजदूत ने जो कुछ कहा है वह चीन के संकेत पर ही कहा है। कहने का अभिप्राय ये है कि वाया नेपाल चीन भारत को धमका रहा है कि ‘नेपाल के विषय में मौन रहना है जितना कुछ कर रहे हो, उससे हाथ खींच लो, अब यहां मेरी धमक हो चुकी है’। भारत अभी मौन है। वैसे भारत को नेपाल में हिंदू राष्ट्र की गिरती दीवारों को इतने हलके से नही लेना चाहिए। भारत के प्रधानमंत्री मोदी का उनकी नेपाल यात्रा के समय वहां के लोगों ने भव्य स्वागत किया था और नेपाल ने मोदी को अपने हिंदुत्ववादी स्वरूप का संरक्षक माना। परंतु मोदी उसकी अपेक्षाओं पर खरे नही उतरे हैं। तभी तो नेपाल से मिलने वाले समाचारों से यह बात स्पष्ट होती जा रही है कि नेपाल में इस समय मोदी के विरूद्घ वातावरण बन रहा है। लोगों को उम्मीद थी कि भारतीय प्रधानमंत्री उनके लिए शीघ्र ही कोई ठोस निर्णय लेंगे। पर भारत अप्रत्याशित रूप से मौन है।

उधर पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में लोग भारत के समर्थन में नारे लगा रहे हैं। वे भारत के साथ आना चाहते हैं, और इधर नेपाल अपने बड़े भाई को पुकार रहा है। पाक अधिकृत कश्मीर में जो कुछ हो रहा है उससे पाकिस्तान चिंतित है और नेपाल में जो लोग आज भी भारत को अपना ‘बड़ा भाई’ मान कर उसकी सहायता की अपेक्षा कर रहे हैं उनसे चीन चिंतित है। कश्मीर को पाकिस्तान हड़पना चाहता है और नेपाल को चीन उसी प्रकार हड़पना चाहता है जिस प्रकार उसने तिब्बत को हड़प लिया था। निस्संदेह भारत को इस समय गंभीर भूमिका निभानी चाहिए। अब नेपाल की सहायता में की जा रही देरी अपने लिए संकट खड़ा कर सकती है। नेपाल में घुस आये चीन को वहां से निकालना तो कठिन होगा ही साथ ही चीन के साथ उन परिस्थितियों में भारत की लंबी सीमा मिलने से किसी गंभीर टकराव की संभावनाएं भी प्रबल हो जाएंगी।

इस समय सारा विश्व ही बारूद के ढेर पर बैठा है। सावधानी हटते ही गंभीर दुर्घटना घटित हो सकती है। सारा विश्व इस समय दम घुटने की बीमारी से गुजर रहा है। लोकतंत्र के काल में भी लोगों को बड़ी मुश्किल से सांसें आ रही हैं। कभी भी कुछ भी संभव है।

अपने राष्ट्रीय हितों के दृष्टिगत चीन को नेपाल से दूर रखना भारत के लिए अनिवार्य है। अपने परंपरागत मित्र और छोटे भाई को साथ रखना भी आवश्यक है। ऐसा ना हो कि किसी छोटी सी बात पर ‘शक्तिसिंह’ अपने देश निकाले से खिन्न होकर ‘अकबर’ से हाथ मिलाये और जब ‘हल्दीघाटी’ का साज सजे तो उसके पश्चात ही दोनों भाई प्रायश्चित करते हुए गले मिलकर रोयें। शत्रु सामने खड़ा है और शत्रु का लक्ष्य नेपाल और भारत की पहचान को मिटा देना है। जब दो शत्रुओं का लक्ष्य सांझा हो सकता है तो नेपाल और भारत जैसे दो भाईयों का लक्ष्य सांझा क्यों नही हो सकता? भाई अपनी पूंजी होता है, सुरक्षा की गारंटी होता है, इसलिए नेपाल को भी चीन का साथ देने में या उसका साथ लेने में शीघ्रता नही करनी चाहिए। उसके नेपाल में बढ़ते अनुचित हस्तक्षेप को रोकना चाहिए और भारत को नेपाल की सहायता में देर नही करनी चाहिए, उसका साथ देना और हाथ लेना दोनों ही समय की आवश्यकता है। नेपाल से कुछ विवाद हो सकते हैं, गिले शिकवे भी हो सकते हैं पर पी.एम. मोदी को याद रखना चाहिए कि ये गिले शिकवे हमारे अपने राष्ट्रीय हितों की अपेक्षा बड़े नही हैं। यह एक व्यावहारिक सत्य है कि ‘शिकवे भी लबों पर होते हैं-खामोश भी रहना पड़ता है’ पर खामोशी का अभिप्राय कत्र्तव्य से पलायन तो नही होता।

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