एस. निहाल सिंह
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हाल ही की विदेश यात्रा में हमने उन्हें संसार की शक्तिशाली और मशहूर हस्तियों से कसकर गले मिलते देखा, लेकिन अमेरिका की इस पांच दिन लंबी यात्रा से सच में क्या हासिल हुआ? उनकी पहली उपलब्धि यह है कि उनकी और देश की छवि पहले से ज्यादा दिखाई देने लगी है। इसके अलावा दूसरी उपलब्धि यह है कि अमेरिका के राष्ट्रपति और नरेंद्र मोदी के मध्य संवाद का सिलसिला इस बार भी जारी रहा है और तीसरी उपलब्धि यह होगी कि इस दौरे ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की स्थाई सदस्यता पाने वाले अभियान को और अधिक गति प्रदान की है।
यात्रा के नकारात्मक पहलू की बात करें तो इस बात का डर है कि मोदी भारतीय राजनीति का डोनल्ड ट्रंप बनने की ओर अग्रसर हैं। विदेशों में रह रहे अनिवासी भारतीय मित्रों का दिल जीतने की जो प्रकिया उन्होंने अपनाई है, उसमें जाने-अनजाने में जो देशव्यापी सर्वसम्मति का नुकसान हुआ है, उस पर मोदी के शेष कार्यकाल की सफलता टिकी हुई है। सैन जोस में एकत्र हुई अपने प्रशंसकों की भीड़ को खुश करने की खातिर गांधी-नेहरू परिवार की कथित गलतियों का बखान करते हुए मोदी ने कांग्रेस पार्टी की भत्र्सना करने के कार्य को नई सीमा तक पहुंचा दिया है।
संयुक्त राष्ट्र स्थापना के 70 वर्ष पूरे हो चुके हैं। इस अवसर का लाभ उठाते हुए मोदी की यह सूझ वाकई बढिय़ा है, जिसमें उन्होंने जी-4 नामक संगठन के बाकी के तीन मूल सदस्यों जर्मनी, जापान और ब्राजील को देश के इस ध्येय की पूर्ति के लिए साथ लिया है ताकि भारत के अलावा इनके द्वारा भी संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता देने की वैध मांग फिर से उठाई जा सके। लेकिन जी-4 नामक यह संगठन अपने ध्येय से अभी बहुत दूर है। सच तो यह है कि यूरोपीय संघ में अपनी आर्थिक और राजनीतिक श्रेष्ठता के बूते पर जर्मनी पहले ही जी-5-जमा-1 गुट में शामिल है और इस नाते संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की महत्वपूर्ण बैठकों में बतौर मानद सदस्य शामिल होता आया है। अपने अति व्यस्त कार्यक्रम के बावजूद अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने मोदी से मुलाकात का वक्त निकाला, जिस दौरान मुख्य रूप से पर्यावरण को दुरुस्त करने के लिए समयबद्ध कार्यक्रम स्थापित करने पर जोर दिया गया है, ओबामा का यह संकेत भारत की तरफ अमेरिका की बढ़ती निकटता का रुझान दर्शाता है।
अमेरिका के साथ भारत के बढ़ते निकट संबंध विदेश मंत्रियों की उस त्रिपक्षीय शिखर वार्ता से भी देखने को मिलते हैं, जिसमें दक्षिण चीन, जापान और फिलीपींस के बीच पड़ते सागर में सभी देशों को मुक्त आवागमन के अधिकार देने की घोषणा पर अमल के प्रति अमेरिका-जापान-भारत ने सम्मिलित रूप से अपनी प्रतिबद्धता फिर से दिखाई है। क्योंकि चीन अपने दक्षिण और पूर्वी तटों के साथ लगते सागरों के ज्यादातर हिस्से पर अपना दावा जताता है और वह अमेरिका और फिलीपींस की नाराजगी की परवाह किए बिना वहां समुद्री चट्टानों से बने टापुओं पर भविष्य के सैनिक अड्डे बना रहा है। भारत के लिए इस संयुक्त घोषणा का महत्व इसलिए भी है कि इस मुद्दे पर चीन की संवेदनशीलता जाहिर दिखाई देनेे के बावजूद हिंदुस्तान अपने वजूद का एहसास दिलवाने के लिए मजबूती से खड़ा है।
हालांकि मोदी की अमेरिका यात्रा से पहले भारत द्वारा अमेरिकी सैनिक वायुयानों की खरीद को मंजूरी देना रिश्तों में मिठास बढ़ाने वाली प्रकिया का हिस्सा है, लेकिन इनको देश में बनाने की खातिर तकनीक हस्तांतरण के मुद्दे पर प्रगति होना अभी बाकी है। सरकार की मंजूरी के बाद आने वाली हर नई तकनीक को हथियाने के लिए देश के बड़े औद्योगिक घरानों के बीच होड़ लग जाती है। सच तो यह है कि अमेरिका की आधिकारिक यात्रा पर पहुंचे चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग का स्वागत गुस्से भरे माहौल में किया जा रहा है क्योंकि चीन के आधिकारिक इंटरनेट हैकरों ने अमेरिका की व्यावसायिक साइटों में सेंध लगाकर उनके तकनीकी राज चुरा लिए हैं जो यह दर्शाता है कि तकनीक के मामले में अमेरिका अपनी वैश्विक श्रेष्ठता कायम रखने की परवाह किस हद तक करता है। भारत के विशेषज्ञों को अभी भी यह स्पष्ट नहीं है कि अमेरिका के साथ हुआ तकनीकी समझौता यथार्थ में कितना लागू हो पाएगा।
एक महाशक्ति के रूप में चीन के उद्भव की वजह से बिला शक भारत और अमेरिका पास आ गए हैं, क्योंकि अब जापान और ऑस्ट्रेलिया के अतिरिक्त भारत को भी चीन का प्रति-संतुलन देश बनाने की खातिर अमेरिका सहयोग करना चाहता है।
इन चार देशों के बीच बढ़ता हुआ सैन्य सहयोग संयुक्त सैनिक अभ्यासों और संवेदनशील सूचनाओं के आदान-प्रदान के रूप में देखने को मिल रहा है।
विश्व की तकनीकी-राजधानी के रूप में विख्यात कैलिफोर्निया में मोदी के आगमन के पीछे एक अलग किस्म का प्रयोजन है। उनकी सदा से कोशिश रही है कि वे खुद को तकनीक के मामले में अन्य नेताओं से अलहदा दिखाएं कि कितनी जल्दी वह इसे अपनाते हैं क्योंकि इससे न सिर्फ उन्हें अपनी छवि को चमकाने में सहायता मिलती है बल्कि इसके जरिए वे लोगों के साथ एकतरफा संवाद कायम करने और प्रशासन चलाने का नया माध्यम भी स्थापित कर सकते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो फेसबुक के हेडक्वार्टर पर इसके मालिक मार्क जुकरबर्ग के साथ मोदी की नाटकीय भावपूर्ण लम्हों वाली मुलाकात न सिर्फ अपनी छवि चमकाने की एक कोशिश थी बल्कि यह प्रचारित करने का भी प्रयास था कि वे कितने दूरंदेश नेता हैं।
गूगल की मदद से भारत के 500 रेलवे स्टेशनों को जोडऩा और देश में लगने वाली नई परियोजनाओं के लिए अतिरिक्त धन जुटाने से सबका भला होगा। कुछ हद तक मोदी देश में नया और ज्यादा सुविधाजनक तकनीक-मित्र वातावरण तैयार करके बड़ी संख्या में भारतीय मूल के तकनीक-विशेषज्ञों को फिर से हिंदुस्तान लौटने के लिए प्रोत्साहित कर सकते हैं, इससे देश का आधुनिकीकरण करने में मदद मिलेगी। लेकिन देश में आवश्यक सुधारों को लागू करने वाला मोदी-ध्येय अभी भी बाकी पड़ा हुआ है।
इस परिप्रेक्ष्य में विदेशी भूमि पर मोदी द्वारा घरेलू विरोधी पार्टियों की भत्र्सना खासतौर पर दुर्भाग्यपूर्ण कही जाएगी। अगर वह और उनकी पार्टी भाजपा कांग्रेस और विपक्षी पार्टियों को धूल में मिलाना ही चाहते हैं तो फिर सुधारों वाले कानून पर संसद और देश के भीतर उनकी मदद किस मुंह से प्राप्त करने की हसरत रखते हैं?
जल्द ही मोदी अन्य राज्यों में पहले किए गए अपने चुनाव प्रचार की भांति बिहार विधानसभा चुनाव में भी आक्रामक रवैया अपनाने वाली मुद्रा में दिखाई देंगे। सहमति बनाने की बजाय विपक्ष-खंडण वाला समय फिर से सामने आने वाला है। प्रधानमंत्री की कोशिश है कि वह राज्यसभा में भाजपा सदस्यों की संख्या किसी तरह बढ़वा सकें, लेकिन अपना यह ध्येय वे 2017 से पहले पूरा नहीं कर पाएंगे।
प्रधानमंत्री को अपनी छवि चमकाने और अपने दल के हिंदुत्व सिद्धांत को बढ़ाने की खातिर विदेशी नेताओं से कसकर गले मिलने और अन्य उपाय करने के अलावा एक जादुई छड़ी की अभी भी जरूरत है ताकि इस बहु-सांप्रदायिक और बहु-सांस्कृतिक देश का राजकाज सुचारु रूप से चलाया जा सके।