हमारे जिन क्रांतिकारियों ने भारत के विषय में और भारतीय स्वाधीनता के विषय में इतने ऊंचे विचार रखे उन्हीं के कारण आज हम स्वतंत्र भारत के स्वतंत्र नागरिक हैं। आज हम स्वतंत्र होकर सोच सकते हैं और स्वतंत्र होकर लिख सकते हैं। जिनके बलिदानों ने हमें आजादी की ये नेमत दी है, उनके विषय में रामधारी सिंह दिनकर जी की ओजस्वी लेखनी ने भी ऐसा कमाल किया कि देश के अनेकों युवा उनकी कविताओं को पढ़कर देश के लिए काम करने को समर्पित हो गए। उन्होंने हमारे वीर क्रांतिकारियों की आरती उतारते हुए जिन पंक्तियों का प्रयोग किया, वे आज के युवाओं को भी देश के लिए मर मिटने को प्रेरित करने के लिए पर्याप्त हैं।
दिनकर जी ने लिखा है-

कलम आज उनकी जय बोल

जला अस्थियां अपनी सारी,
छिटकाई जिनने चिंगारी

जो चढ़ गये पुण्य वेदी पर,
लिये बिना गर्दन का मोल।
कलम आज उनकी जय बोल

अंधा, चकाचौंध का मारा,

क्या समझे इतिहास बेचारा,

साखी हैं उनकी महिमा के
सूर्य, चंद्र, भूगोल, खगोल।
कलम आज उनकी जय बोल।

<span;>दिनकर जी की इन पंक्तियों में न केवल समकालीन वीर योद्धाओं का गुणगान है बल्कि भारत के क्रांतिकारी इतिहास के उन गौरवपूर्ण पलों को भी इस कविता के माध्यम से श्रद्धांजलि अर्पित की गई है जो इस देश की ‘दाधीच परंपरा’ को प्रकट करते हैं और देश के जन गण मन के लिए अपना सर्वस्व समर्पित करने वाले वीर योद्धाओं को नमन करते हैं।
<span;>भारत युग-युगों तक अपने बलिदानियों के बलिदान को नमन करता रहेगा और कृतज्ञ भाव से उनकी जय बोलता रहेगा। ये वही लोग थे, और वही देश धर्म के परवाने थे जिनके विषय में राम प्रसाद बिस्मिल जी ने बड़ा कमाल का लिखा-

सर फ़िदा करते हैं कुरबान जिगर करते हैं,
पास जो कुछ है वो माता की नजर करते हैं ,

खाना वीरान कहाँ देखिये घर करते हैं!
खुश रहो अहले-वतन! हम तो सफ़र करते हैं ,

जा के आबाद करेंगे किसी वीराने को !
नौजवानों यही मौका है उठो खुल खेलें
खिदमते कौम में आये जो बलाये झेलें

फिर मिलेंगी न माता की दुआएं ले लो।

कौम के सदका में माता को जवानी दे दो

देखें कौन आता है इरशाद (आज्ञा) बजा लाने को….

<span;>यतीन्द्रनाथ दास देश पर बलिदान हुए। 13 सितंबर 1929 उनकी जीवन यात्रा का अंतिम दिन था। सभी साथी उनकी चारपाई के चारों ओर खड़े थे एक हिचकी आई और उनके प्राण पखेरू साथ लेकर चली गयी। सभी साथियों ने अश्रुपूर्ण नेत्रों से अपने साथी को अंतिम श्रद्घांजलि दी। इसके बाद दो बांसों की शैया पर उनका शव श्रंगार किया गया। उनका बलिदान जेल में हुआ था। इसलिए जैसा बन पड़ा वैसा करके ‘वंदेमातरम्’ की धुन के साथ उस शव शैया को कंधा देकर जेल के फाटक पर विशाल जनसमूह को सौंप आये। उनके विषय में राष्ट्रकवि दिनकर ने लिखा है-

निर्मम नाता तोड़ जगत का अमरपुरी की ओर चले,
बंधन मुक्ति न हुई जननी की गोद मधुरतम छोड़ चले

जलता नंदवन पुकारता, मधुक कहां मुंह मोड़ चले?
बिलख रही यमुना माधव! क्यों मुरली मंजु मरोड़ चले?

 

डॉ राकेश कुमार आर्य

संपादक : उगता भारत

Comment: