स्वतंत्रता संग्राम में हमारे साहित्यकारों का योगदान
साहित्य समाज का दर्पण होता है। जैसा समाज होता है वैसा ही साहित्य दिखाई देता है। यह बात पूरी तरह सही है । जब हमारा देश पराधीननता की बेड़ियों में जकड़ा हुआ था और उनसे मुक्ति के लिए संघर्ष कर रहा था, तब हमारे देश का साहित्य और साहित्यकार भी देश की संघर्ष की उस भावना को और भी अधिक तीव्र करने का सराहनीय कार्य कर रहे थे।
अब जबकि भारतवर्ष अपनी स्वाधीनता के 75 वर्ष पूर्ण कर रहा है तो इस पावन अवसर पर अपने नाम-अनाम स्वतंत्रता सेनानियों को पूरा देश नमन कर रहा है। हम भी अपने इन नाम-अनाम स्वतंत्रता सेनानियों को नमन करते हुए उनके विषय में कवियों की कविताओं के माध्यम से अपने श्रद्घासुमन अर्पित करता है। गिरधारीलाल आर्य लिखते हैं :–
जो उतरे थे मुर्दा लाशों को लडऩे का पाठ पढ़ाने,
जो आये थे आजादी के मतवालों का जोश बढ़ाने,
मैं आया हूं उन राजद्रोही चरणों पर फूल चढ़ाने।’
भारत का स्वाधीनता संग्राम हमारे लिए चाहे स्वाधीनता संग्राम था, परंतु अंग्रेजों के लिए तो हमारे क्रांतिकारी राजद्रोही की श्रेणी के अपराधी थे। उस समय राजद्रोही होना अंग्रेजों की दृष्टि में अपराध था, परंतु हमारे क्रांतिकारी स्वतंत्रता सेनानियों के लिए वह गौरव का विषय था। क्योंकि यह लोग राष्ट्रद्रोही नहीं थे, राष्ट्र तो उनका वंदन कर रहा था। हां राजद्रोही अवश्य थे। तभी तो उस समय की शासन व्यवस्था उन्हें अपने विरुद्ध विद्रोही – द्रोही मानकर अपने दमन और अत्याचारों का शिकार बना रही थी । अपने इन सभी क्रांतिकारी बलिदानियों और उनके संघर्ष पर आज हमें भी गर्व और गौरव की अनुभूति होती है। मां भारती को आजाद कराने की यह पवित्र भावना उसी दिन से आरंभ हो गई थी जब विदेशी आक्रमणकारी ने भारत की आजादी को छीनने का पहला हमला किया था। यदि 712 ई0 से इस प्रक्रिया की शुरुआत मानें तो राजा दाहिर और उनके सैनिक हमारी स्वाधीनता की लड़ाई के पहले योद्धा थे ।
<span;>बाद में हमारे देश के इतिहास में ऐसे अनेकों वीर योद्धा, क्रांतिकारी, बलिदानी हुए जिन्होंने विदेशी सत्ता को उखाड़ने का अथक संघर्ष किया । अंग्रेजों के काल में ऐसे क्रांतिकारियों को राजद्रोही कहा जाता था। नेताजी सुभाष चंद्र बोस ऐसे राजद्रोहियों के सिरमौर हैं। उनके विषय में कवि लिखता है-
संसार नमन करता जिसको ऐसा कर्मठ युग नेता था,
अपना सुभाष जग का सुभाष भारत का सच्चा नेता था
सीमा प्रांत की धरती का रत्न शहीद हरकिशन 9 जून 1931 को मियां वाली जेल में (पाकिस्तान) फांसी पर लटकाया गया। उनके विषय में कवि ने क्या सुंदर लिखा है-
हम भी आराम उठा सकते थे घर पर रहकर
हमको भी मां-बाप ने पाला था दु:ख सहकर
बवक्ते रूखास्ति उन्हें इतना भी ना आये कहकर
गोद में आंसू कभी टपकें जो मुख से बहकर
तिफल इनको ही समझ लेना जी के बहलाने को
दूर तक यादे वतन आई थी समझाने को।
इस प्रकार की कविताओं से न केवल हमारे बलिदानी क्रांतिकारियों का सम्मान होता था बल्कि युवा पीढ़ी को नई प्रेरणा भी मिलती थी और वह भी देश के लिए समर्पित होकर बलिदान देने को तैयार होते थे।
पंडित रामप्रसाद बिस्लिम उन क्रांतिकारियों में से एक थे जो एक अच्छे कवि भी थे, उन्होंने लिखा है-
”अरूजे कामयाबी पर कभी हिन्दोस्तां होगा
रिहा सय्याद के हाथों से अपना आशियां होगा
चखाएंगे मजा बरबादिये गुलशन का गुलची को
बहार आ जाएगी उसी दम जब अपना बागबां होगा
यह आये दिन की छेड़ अच्छी नहीं एक खंजर-ए-कातिल
बता कब फैसला उनके हमारे दरमियां होगा
जुदा मत हो मेरे पहलू से ए-दर्दे वतन हरगिज
न जाने वाद मुर्दन में कहां और तू कहां होगा?”
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत