लेखक:- प्रशांत पोळ
कुछ वर्ष पहले, अर्थात एकदम सटीक कहे तो अप्रैल २०१६ से, मध्यप्रदेश के उज्जैन शहर में सिंहस्थ कुम्भ मेले का आयोजन हुआ. उज्जैन जैसे छोटे से शहर में लगभग २ से ३ करोड़ लोग मात्र महीना / डेढ़ महीना की कालावधि में आए, उन्होंने क्षिप्रा नदी में स्नान किया और पुण्य कमा कर वापस लौटे. इसी उज्जैन में एक ऐतिहासिक इमारत खड़ी है, जिसका नाम है – वेधशाला. कुम्भ मेले में आए हुए कितने श्रद्धालुओं ने वेधशाला देखी, इसकी जानकारी नहीं हैं. परन्तु यह वेधशाला हमारी प्राचीन भारतीय ज्ञान परंपरा का खुला हुआ द्वार हैं, और इससे मिलने वाला ज्ञान है खगोलशास्त्र का…!
राजस्थान स्थित आमेर के राजा सवाई जयसिंह (द्वितीय) ने सन १७३३ में इस वेधशाला का निर्माण किया था. उस समय वें मालवा प्रांत के सूबेदार थे. उज्जैन के अलावा राजा जयसिंह ने दिल्ली, काशी, मथुरा और जयपुर में भी ऐसी ही वेधशालाओं का निर्माण किया. सबसे पहली वेधशाला बनी दिल्ली में, सन १७२४ में, जिसे जंतर मंतर कहा गया. उन दिनों दिल्ली में मुगल बादशाह थे, मोहम्मद शाह॰ इनके समय हिन्दू और मुस्लिम खगोलशास्त्रियों के बीच कालगणना की सूक्ष्मता को लेकर बहस छिड़ी॰ तब भारतीय कालगणना की अचूकता को सिध्द करने के लिए राजा जयसिंह ने इसे बनाया॰ इसका निर्माण होने के बाद जब यह पाया गया कि इसके द्वारा प्राप्त आंकड़ों का विश्लेषण एकदम सटीक होता है, तब चार अन्य वेधशालाओ का भी निर्माण किया गया.
राजा सवाई जयसिंह खगोलशास्त्र के अच्छे जानकार थे. संस्कृत पर उनका खासा प्रभुत्व था. साथ ही, मुगलों की संगत में रहकर उन्होंने अरबी और फ़ारसी भाषाएँ भी सीख ली थीं. मजे की बात यह कि सवाई जयसिंह को मराठी भाषा भी अच्छे से आती थी. क्योंकि इन्होंने काफी समय औरंगाबाद, दौलताबाद, नगर इत्यादि स्थानों पर बिताया था. जब औरंगजेब अपनी चतुरंग सेना लेकर छत्रपति संभाजी महाराज को परास्त करने और हिन्दवी स्वराज्य को नष्ट करने महाराष्ट्र में घुसा, तब उसने राजा जयसिंह को अपनी सेना में शामिल होने का फरमान सुनाया. उस समय जयसिंह की आयु मात्र १४ वर्ष ही थी. राजा जयसिंह ने बहुत टालमटोल की॰ अंततः जब औरंगजेब के दूत स्वयं आमेर पहुँचे, तब जयसिंह को आना ही पड़ा.
ऐसा कहा जाता है कि, सवाई जयसिंह ने महाराष्ट्र के उस व्यस्त कालखंड में भी वहाँ के कई ग्रंथों का अध्ययन करने का प्रयास किया और महाराष्ट्र से कई ग्रन्थ अपने पास इकट्ठे भी किए.
राजा जयसिंह को खगोलशास्त्र में निपुण करने का श्रेय जाता है एक मराठी व्यक्ति को, जिनका नाम था पंडित जगन्नाथ सम्राट. भले ही इनके नाम में सम्राट लगा हुआ हो, परन्तु यह राजा जयसिंह को वेद सिखाने के लिए नियुक्त किए गए एक ब्राह्मण मात्र थे. इन जगन्नाथ पंडित का खगोलीय ज्ञान जबर्दस्त था. इन्होंने ‘सिद्धांत कौस्तुभ’ नामक ग्रन्थ की रचना की थी, तथा यूक्लिड की ज्यामिति का अरबी से संस्कृत में अनुवाद भी किया था.
सम्राट जगन्नाथ के नेतृत्व में राजा सवाई जयसिंह ने वेधशाला के निर्माण में कहीं भी किसी धातु का उपयोग नहीं किया. यूरोपीय वैज्ञानिकों द्वारा धातुओं के उपकरण उपयोग करने के कारण एवं उन धातुओं में बदलते मौसम के अनुसार आकुंचन / प्रसरण होते रहने के कारण अनेक बार खगोलीय गणना गलत हो जाती थीं. परन्तु सवाई जयसिंह द्वारा निर्मित पाँचों वेधशालाओं में चूना एवं विशेष आकार में निर्मित पत्थरों की मदद से सभी यंत्रों का निर्माण किया गया. इसलिए सारे आंकड़े सही आते हैं॰
दुर्भाग्य से आज इन पाँच वेधशालाओं में से केवल उज्जैन एवं जयपुर की वेधशालाएं ही सही काम कर रही हैं. मथुरा की वेधशाला तो पूरी नष्ट हो चुकी है, जबकि काशी की अत्यंत जर्जर अवस्था में है. उज्जैन की वेधशाला में सम्राट यंत्र, नाड़ी वलय यंत्र, दिगंश यंत्र, भित्ति यंत्र एवं शंकु यंत्र निर्मित हैं. इस वेधशाला का निर्माणकाल मराठों के मालवा में प्रवेश करने से कुछ वर्ष पहले का है. आगे चलकर १९२५ में ग्वालियर के शिंदे सरकार ने इस वेधशाला की मरम्मत की और रखरखाव किया.
सवाई जयसिंह की इन पाँचों वेधशालाओं में से उज्जैन की वेधशाला का महत्त्व अधिक क्यों है? क्योंकि प्राचीनकाल में अर्थात ईसा से चार सौ वर्ष पूर्व ऐसी मान्यता थी कि पृथ्वी की देशांतर रेखा (मध्यान्ह रेखा) उज्जैन से होकर जाती है. इसके अलावा कर्क रेखा भी उज्जैन से होकर जाती है, इसीलिए उज्जैन को भारतीय खगोलशास्त्र में एक महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है.
महाराष्ट्र का वाशिम शहर, प्राचीन समय के वाकाटक राजवंश की राजधानी ‘वत्सगुल्म’ है. इसी वाशिम में एक मध्यमेश्वर का मंदिर है. ऐसा माना जाता है कि प्राचीनकाल में ऐसी कल्पना की गई थी कि पृथ्वी की देशांतर रेखा इस मध्यमेश्वर की शिव पिण्डी से होकर गुजरती है. मजे की बात ये है कि पृथ्वी को वक्राकार पद्धति से देखा जाए तो उज्जैन और वाशिम, दोनों शहर एक ही रेखा में आते हैं. भास्कराचार्य ने अपने ग्रन्थ ‘लीलावती’ में इस देशांतर रेखा का उल्लेख किया है. इस उल्लेख के अनुसार उज्जैन (इस ग्रन्थ में उज्जैन को अवंतिका नामक पुराने नाम से संबोधित किया गया है) और वर्तमान हरियाणा के रोहतक नगर से ही यह काल्पनिक देशांतर रेखा गुजरती है.
उज्जैन की यह वेधशाला एक तरह से हमारे प्राचीन खगोलशास्त्र का जीर्णशीर्ण द्वार है. इस वेधशाला ने कोई नई बात प्रस्थापित नहीं की॰ परन्तु साथ ही जिन ग्रंथों के आधार पर यह वेधशाला निर्मित हुई, उन ग्रंथों का प्रत्यक्ष प्रमाण हमारे सामने मिलता हैं॰
वेधशाला यह दुनिया के लिए ना तो कोई नई बात है, और न ही आश्चर्यजनक. सवाई जयसिंह द्वारा भारत में पाँच वेधशालाओं के निर्माण से कुछ वर्ष पहले, अर्थात तेरहवीं शताब्दी में ईरान के मरागा नामक स्थान पर क्रूर चंगेज खान के पोते हलाकू खान ने एक विशाल वेधशाला का निर्माण किया था, जिसके प्रमाण उपलब्ध हैं. जर्मनी के कासल में सन १५६१ में, समय दर्शाने वाली वेधशाला का निर्माण किया गया था. भारत की वेधशालाओं का महत्त्व यह है कि यह अत्यंत वैज्ञानिक पद्धति से, खगोलशास्त्र के विविध अंगों एन खूबियों को प्रदर्शित करने वाली वेधशालाएं हैं. उज्जैन की वेधशाला में तो प्राचीन उपकरणों द्वारा सेकण्ड के आधे भाग से भी कम अंतर से समय देखा जा सकता है.
तो प्रश्न उठता है कि यह ज्ञान आया कहाँ से? जगन्नाथ सम्राट और सवाई राजा जयसिंह ने यह सब कहाँ से खोज निकाला? तो इसके उत्तर हेतु हमें इतिहास में बहुत पीछे जाना पड़ेगा.
हमारे खगोलशास्त्र का सर्वाधिक प्राचीन उल्लेख प्राप्त होता है, लगध ऋषि लिखित ‘वेदांग ज्योतिष’ नामक ग्रन्थ में. इसके शीर्षक में भले ही ‘ज्योतिष’ का उल्लेख हो, फिर भी यह ग्रन्थ खगोलशास्त्र का ही विवेचन करता है. ईसा से १३५० वर्ष पहले का कालखंड लगध ऋषि का कार्यकाल माना जाता है. इस ग्रन्थ में ‘तीस दिनों का एक मास’ ऐसे मानक का उल्लेख किया गया है. अर्थात आज से लगभग ३३०० वर्ष पूर्व भारत में खगोलशास्त्र का भरपूर ज्ञान उपलब्ध था. संभवतः इससे पहले भी हो, क्योंकि लगध ऋषि का यह ग्रन्थ ऐसा कहीं भी नहीं कहता कि उन्होंने कोई नई खोज की है. अर्थात उनसे पहले के कालखंड में मौजूद खगोलशास्त्र सम्बन्धित ज्ञान को ही यह ग्रन्थ लिपिबद्ध करता है.
दुर्भाग्य से भारत में इन प्राचीन ग्रंथों में से अनेक ग्रन्थ आज उपलब्ध नहीं हैं. मुस्लिम आक्रमणों के दौरान अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ नष्ट हो गए. उसके पश्चात भी जो ग्रन्थ बचे रह गए, उनमें से कई महत्वपूर्ण ग्रन्थ अंग्रेज शासनकाल के समय यूरोपियन शोधकर्ता अपने साथ ले गए.
ऐसा ही एक ग्रन्थ है, खगोलशास्त्र पर आधारित ‘नारदीय सिद्धांत’ का. यह भारत में उपलब्ध नहीं है, परन्तु बर्लिन में, प्राचीन पुस्तकों के एक संग्रहालय में ‘नारद संहिता’ नामक ग्रन्थ मिलता है (Weber Catalogue No. 862). इसी प्रकार खगोलशास्त्र आधारित ‘धर्मत्तारा पुराण’ का सोम-चन्द्र सिद्धांत पर एक दुर्लभ ग्रन्थ भी इसी पुस्तकालय में उपलब्ध है (Weber Catalogue no. 840). प्राचीन खगोलशास्त्र में ‘वसिष्ठ सिद्धांत’ महत्त्वपूर्ण माना जाता है. सूर्य सिद्धांत से मिलते-जुलते इस सिद्धांत का ग्रन्थ भी भारत में उपलब्ध नहीं है. अलबत्ता इस ग्रन्थ के सन्दर्भ, कोटमब्रुक्स एवं बेंटले (जॉन बेंटले : १७५०-१८२४) द्वारा लिखित खगोलशास्त्रीय ग्रन्थ में अनेक स्थानों पर उल्लेखित हैं. विष्णुचंद्र नामक भारतीय खगोलशास्त्री के गणितीय संकलन इसी वसिष्ठ सिद्धांत एवं आर्यभट्ट के ग्रंथों पर आधारित हैं. यदि यह ग्रन्थ कहीं उपलब्ध ही नहीं, तो फिर कोटमब्रूक्स और बेंटले को इस ग्रन्थ के सन्दर्भ कहाँ से मिले? इस प्रश्न का उत्तर खोजने पर जब शोध किया गया तो पाया गया कि यह ग्रन्थ ‘मेकेंजी संग्रह’ में विल्सन कैटलॉग में १२१ वें क्रमांक पर उपलब्ध हैं॰.
बेंटले ने आर्यभट्ट के कार्यों पर आधारित दो ग्रन्थ लिखे हैं. पहला है, ‘आर्य सिद्धांत’ और दूसरा है ‘लघु आर्य सिद्धांत’। ईस्वी सन की पाँचवी शताब्दी में हुए आर्यभट्ट (प्रथम) के ‘आर्य अष्टक शतः’ (जिसमें ८०० श्लोक हैं) और ‘दश गीतिका’ (जिसमें दस सर्ग हैं), इन दोनों ग्रंथों को बेंटले ने अपने ग्रन्थ में अनेक बार उद्धृत किया है. यह दोनों ही दुर्लभ ग्रन्थ बर्लिन के पुस्तकालय में वेबर कैटलॉग क्रमांक ८३४ पर उपलब्ध हैं.
पश्चिमी विद्वानों ने हिन्दू खगोलशास्त्र पर बहुत अध्ययन किया है. १७९० में स्कॉटिश गणितज्ञ जॉन प्लेफेयर ने हिन्दू पंचांग में दी गई जानकारी के आधार पर (जो यूरोप में १६८७ से १७८७ के कालखंड में पहुँची), यह ठोस तरीके से प्रतिपादित किया कि, हिन्दू कालगणना की प्रारंभिक तिथि (अथवा जहाँ तक उपलब्ध ग्रंथों एवं गणनाओं का आधारबिंदु है) ईसा पूर्व ४३०० वर्ष से पहले की है…!
मजे की बात यह है कि अठारहवीं शताब्दी में ही, यूरोपियन खगोलशास्त्र वैज्ञानिकों के ध्यान में यह बात आ चुकी थी कि, प्राचीन हिन्दू खगोलशास्त्रीय गणना के अनुसार ग्रहों-तारों की जो दिशा एवं गति निर्धारित की गई है, उसमें एक मिनट की भी चूक नहीं है. उस समय सेसिनी और मेयर ने आधुनिक पद्धति से ४५०० वर्ष पुराना तारों का जो नक्शा तैयार किया, वह बिलकुल हू-ब-हू प्राचीन हिन्दू खगोलशास्त्रियों द्वारा तैयार किए गए नक्शों के समान ही था.
प्लेफेयर, बेली एवं आधुनिक कालखंड में ‘नासा’ में काम करने वाले प्रोफ़ेसर एन. एस. राजाराम ने यह प्रतिपादित किया है कि चार – पाँच हजार वर्षों पूर्व हिन्दू खगोलशास्त्रियों द्वारा तैयार किए गए नक़्शे, प्रत्यक्ष रूप से ग्रहों एवं तारों की चाल एवं साक्षात अध्ययन पर आधारित हैं, एवं इसी आधार पर खगोलशास्त्र के गणितीय सूत्र तैयार किए गए हैं.
हमारे कौतूहल को बढ़ाने वाला एक और निरीक्षण बेली एवं प्लेफेयर ने लिख रखा है. इसके अनुसार हिन्दू खगोलशास्त्रियों ने सात ग्रहों-तारों (शनि, गुरु, मंगल, शुक्र, बुध, सूर्य एवं चन्द्र) की स्थिति एवं रेवती नक्षत्र के सापेक्ष उनका स्थान, इनके आधार पर भगवान श्रीकृष्ण के मृत्यु की सही तिथि निकाली है. यदि हम आज के आधुनिक साधनों का उपयोग करके वह तिथि निकालें तो वह आती है ईसापूर्व सन ३१०२ की १८ फरवरी. अर्थात बेली एवं प्लेफेयर लिखते हैं कि, उस कालखंड के लोगों को आकाशीय ग्रहों-तारों का अति-उत्तम ज्ञान था, एवं प्रत्यक्ष निरीक्षण से उन्हें चिन्हित एवं अंकित करने की पद्धति भी उस समय मौजूद थी. मजे की बात यह कि उस प्राचीन कालखंड में स्थापित की गई चंद्रमा की स्थिति में एवं आज की आधुनिक गणनाओं के अनुसार चंद्रमा की स्थिति के बीच का अंतर केवल ३७ अंश है॰ अर्थात नगण्य…!
यह सब पढ़कर / जानकर हम अचंभित हो जाते हैं. प्राचीन खगोलशास्त्र के अनेक शोधकों का ऐसा मत है कि, भारतीय ग्रंथों में उल्लिखित कालगणना के अनुसार ईस्वी सन से पहले ११,००० वर्षों तक की जानकारी प्राप्त होती है. अर्थात आज से लगभग तेरह हजार वर्ष अथवा उससे भी पहले से हमारे पूर्वजों को आकाश, नक्षत्र, ग्रह, तारे इत्यादि का ज्ञान पक्के तौर पर था. परन्तु मूल प्रश्न फिर भी बाकी रहता है, कि ऐसा अत्याधुनिक एवं सटीक ज्ञान, इतने हजारों वर्ष पहले हमारे पूर्वजों के पास आया कहाँ से…?
– ✍🏻प्रशांत पोळ