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एक मुस्लिम शायर ने केवल इस्लाम को मानवीय विध्वंस के लिए जिम्मेदार ठहराए जाने और ईसाइयत की विनाश-लीला पर चुप्पी साध लेने की प्रवृत्ति पर टिप्पणी करते हुए कहा था-
“लोग कहते हैं तलवार से फैला इस्लाम,
यह नहीं कहते कि तोप से क्या फैला?”
इस बात में काफी दम है। आज जिस ईसाइयत को प्रेम और सेवा की प्रतिमूर्ति के रूप में दुनिया के सामने प्रस्तुत किया जाता है उस ईसाइयत की वास्तविकता कुछ और ही है। इतिहास साक्षी है कि ईसाईयत उस साम्राज्यवाद का एक साधन था जिसने दुनिया भर में जिस तरह नरसंहार और संस्कृतिनाश किया उसकी मिसाल इतिहास में नहीं मिल सकती। हम भारतीयों के बीच अक्सर इस्लाम के जुल्मों और अत्याचारों की चर्चा होती है, लेकिन ईसाइयत का इतिहास भी उतना ही काला, क्रूर और विकराल है।
इतिहास पर सरसरी नजर डालें तो यह देखना दिलचस्प होगा कि यहूदियों के साथ ईसाइयों ने कैसा बर्ताव किया|. ईसा को मसीहा मानने वाले ईसाइयों ने यहूदियों से प्रचंड घृणा पाल ली और उनका नरसंहार किया। ईसा ने यहूदियों का मुक्तिदूत होने का दावा किया, पर वे मृत्युदूत और यातनादूत बनकर रह गए। सारे यूरोप में ईसाइयत के फैलने के साथ यहूदी विरोध भी फैला। ज्यादातर इतिहासकारों का मानना है कि ईसाइयत के शुरूआती दिनों से ही उसमें यहूदी विरोधी भावना थी, जो आनेवाली शताब्दियों में और बलवती हो गई। ईसाइयों द्वारा की गई यहुदियों के खिलाफ हिंसा और हत्याओं ने आखिरकार “नरसंहार” (genocide) का रूप लिया।
Jesus Christ: An Artifice for Aggression के लेखक स्व.सीताराम गोयल यहूदियों के नरसंहार को सीधे ईसा से प्रेरित बताते हैं। वे लिखते हैं- “गोसेपेल (बाईबल) के ईसा ने यहूदियों की सांप, सांपों के बिल, शैतान की औलाद, मसीहाओं के हत्यारे कह कर निंदा की, क्योंकि उन्होंने ईसा को मसीहा मानने से इंकार कर दिया था। बाद के ईसाई धर्मशास्त्र ने उनको ईसा के हत्यारे के तौर पर स्थायी अपराध-भाव से भर दिया। यहूदियों को सारे यूरोप में और सदियों तक गैर-नागरिक बना दिया गया, उनको लगातार हत्याकांड का शिकार बनाया गया।… आश्चर्य नहीं कि पश्चिमी देशों के गंभीर चिंतक गोस्पेल को पहला “यहूदी विरोधी मेनीफैस्टो” मानते हैं।”
फ्रांसिसी लेखक और दार्शनिक वोल्तेयर ने ईसाइयत के इतिहास और चरित्र का अध्ययन करने के बाद टिप्पणी की थी, “ईसाइयत दुनिया पर थोपा गया सबसे हास्यास्पद, एब्सर्ड और रक्तरंजित धर्म है। हर सम्माननीय व संवेदनशील व्यक्ति को ईसाई पंथ से डरना चाहिए।” उनकी यह बात सोलह आने खरी है। ईसाइयत का सारा इतिहास रक्तरंजित दास्तान रहा है। सबसे पहला देश, जहां ईसाइयत राजधर्म बना, वह था रोम। कट्टर ईसाइयों का स्वभाव रहा है कि जैसे ही पर्याप्त शक्ति संग्रहित की कि भयंकर उत्पीडनों को तेज कर देते हैं। रोम में उन्होंने बहुदेववादियों का उत्पीड़न शुरू किया। उन यहुदियों का उत्पीडन किया जिनसे ईसाइयत पैदा हुई। रोम में उन्होंने बहुदेववादियों के सारे मंदिर नष्ट कर दिए। बाद में ईसाइयत यूनान (Greece) भी पहुंच गई। किसी जमाने में यूनान पश्चिमी सभ्यता का सिरमौर हुआ करता था; लेकिन वहां ईसाइयों का वर्चस्व बढने के साथ उसका यह सम्मान जाता रहा। प्राचीन यूनान ईसाईयत के जन्म से बहुत पहले पश्चिमी सभ्यता का पहला शिक्षक था। मगर जबसे वह ईसाई बना, उसकी सारी मनीषा और संस्कृति नष्ट हो गई। यूनानियों के पास ईसाइयों से ज्यादा प्रकाश था। ईसाई तो प्रकाश के बजाय अंधेरा लाए। भारत में जिस प्रकार मंदिरों में अनेक देव मूर्तियां साथ-साथ रहती हैं उसी तरह ग्रीक देवी-देवताओं की मूर्तियां भी वहां के मंदिरों में साथ साथ रहती थी। न तो देवताओं में ईर्ष्या और नफरत भरी प्रतिस्पर्धा थी, न पुजारियों के मध्य। लेकिन नए पंथ ईसाईयत की सोच में ही कुछ गड़बड़ी थी। इसलिए यूरोप में ईसाइयत का इतिहास विध्वंस लीलाओं से भरा रहा। ईसाइयत ने किस तरह यूरोप पर कब्जा किया, अनेक समाजों, संस्कृतियों के मठ-मंदिरों को नष्ट किया, विचार स्वातंत्र्य को खत्म किया इसका इतिहास रक्तरंजित और रोंगटे खड़ा करनेवाला है। ईसाई संतों (?) ने इसमें सबसे दुष्टतापूर्ण भूमिका निभाई। ऐसे क्रूरकर्मा लोगों को वहां संत कहा गया।
ईसाइयों में शुरू से ही यह प्रवृत्ति रही है कि एक ईसाई संप्रदाय वाला दूसरे ईसाई संप्रदाय वाले को मार डाले। दरअसल एक ईसाई संप्रदाय किसी और संप्रदाय का ईसाई होना पाप ही मानता था। उसे राज्य के विरूद्ध अपराध भी घोषित कर दिया जाता था। एक संप्रदाय के राजा कानून बनाकर भिन्न ईसाई संप्रदायों पर पाबंदी तक लगाते। असल में यूरोप में पहले पैगन (गैर-ईसाई) लोगों का वंशनाश किया गया। फिर अन्य ईसाई संप्रदायों के ईसाइयों को ढूंढ कर जलाया गया। लाखों अन्य संप्रदायों के ईसाई सार्वजनिक उत्सव के साथ जलाए गए। उन्मत्त ईसाइयों ने समाजों और कौमों का उत्पीड़न किया। इस तरह ईसाइयत ने यूरोप को अपने अधीन किया। पोप ग्रेगरी ने इंग्लैंड के बिशप आगस्तीन को सलाह दी कि जहाँ भव्य मंदिर हों उनको नष्ट न कर उन पर कब्जा करे। वहां की मूर्तियां हटा दी जाएं और वहां सच्चे ईश्वर यीशु की पूजा की जाए।
फिर यूरोप के ईसाइयों ने बाकी महाद्वीपों में जाकर यही इतिहास दोहराया। उन्होंने अमेरिका और आस्ट्रेलिया जाकर वहां के स्थानीय निवासियों (aborigins) को असभ्य करार देकर उनका नरसंहार किया और उनकी जमीन आदि पर कब्जा कर लिया। बेनेडिक्ट चर्च के पादरी कोलंबस के पीछे अमेरिका पहुंचे। उन्होंने केवल हैती में ही पौने दो लाख उन मूर्तियों को नष्ट कर दिया जिनकी वहां के स्थानीय लोग पूजा करते थे। मैक्सिको के पहले पादरी जुआन द जुमरगा ने १५३१ में दावा किया था कि उसने ५० से ज्यादा मंदिर नष्ट किए और २०० से ज्यादा मूर्तियां तोड-फोड़ कर मिट्टी में मिला दीं। एक मिशनरी ने बहुत गर्व से लिखा है, “उसका रात का खाना चार फीट उंची लकड़ी की मूर्ति का जलाऊ लकड़ी तरह प्रयोग कर तैयार किया गया था और वहां स्थानीय लोग खड़े खड़े देखते रह गए थे।”
इतिहासकार धर्मपाल के शब्दों में कहा जाए- “उनकी नजर में विजित को आखिरकार खत्म होना था। भौतिक रूप से न सही मगर संस्कृति और सभ्यता के रूप में।” आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के स्थानीय निवासी जल्दी ही नेस्तनाबूद हो गए थे। उत्तरी अमेरिका में उनके पूर्ण उन्मूलन में ३००-४०० साल लगे।
अफ्रीका महाद्वीप इस्लाम और ईसाइयत जैसे दोनों विस्तारवादी और घोर असहिष्णु धर्मों के हमलों को झेल रहा है। इससे उनकी प्राचीन संस्कृति लगभग खत्म होती जा रही है। दोनों के बीच स्थानीय लोगों को धर्मांतरित करने की होड़ चल रही है। आज अफ्रीकी अपने युगों पुराने मूल धर्मों को खोने की कगार पर हैं।
ईसाइयत के प्रसार ने न केवल कई संस्कृतियों का विनाश किया, वरन् यूरोप, अमेरिका, एशिया और आस्ट्रेलिया के लाखों लोगों की हत्या हुई। महान दार्शनिक वोल्तेयर के शब्दों में कहें तो “ईसाइयत ने काल्पनिक सत्य के लिए धरती को रक्त से नहला दिया।”
पश्चिमी देश “सेकुलर” होने के बावजूद अपने को ईसाई मानते हैं, इसलिए सार्वजनिक जीवन और शिक्षा व्यवस्था के जरिये सदियों तक ईसा के नाम पर मानवता के खिलाफ हुए अपराधों को छिपाते रहे। भारत में तो ईसाईयत के इस काले अध्याय को पूरी तरह से पोंछ दिया गया है। उस पर कभी चर्चा नहीं की जाती। ईसाइयत को प्रेम और सेवा के धर्म के रूप में प्रचारित किया जाता है, लेकिन उसमें इस बात की चर्चा नहीं की जाती कि इसके लिए कितने लोगों की बलि चढ़ाई गई। भारत भी ईसाइयों की विनाश लीला का शिकार हुआ है। पुर्तगालियों की हिंसा जगजाहिर थी तो अंग्रेजों की हिंसा सूक्ष्म थी, चुपचाप जड़ें खोदने वाली थी। एक ईसाई इतिहासकार ने लिखा है कि पुर्तगालियों नें अपने कब्जे के भारत में क्या किया। एडां टीआर डिसूजा के अनुसार, १५४० के बाद गोवा में सभी हिन्दू मूर्तियों को तोड़ दिया गया था या गायब कर दिया गया था। सभी मंदिर ध्वस्त कर दिए गए थे और उनकी जगहों को और निर्माण सामग्रीयों को नए क्रिश्चियन चर्च बनाने के लिए इस्तेमाल किया गया था। कई शासकीय और चर्च के आदेशों में हिन्दू पुरोहितों के पुर्तगाली क्षेत्र में आने पर रोक लगा दी गई थी। विवाह सहित सभी हिन्दू कर्मकांडों पर पाबंदी थी। मिशनरी गोवा में सामूहिक धर्मांतरण करते थे। इसके लिए सेंट पाल के कन्वर्जन भोज का आयोजन किया जाता था। उसमें ज्यादा से ज्यादा लोगों को लाने के लिए जेसुइट लोग हिन्दू बस्तियों में अपने नीग्रो गुलामों के साथ जाते थे। इन नीग्रो का इस्तेमाल हिन्दुओं को पकड़ने के लिए किया जाता था। जब ये नीग्रों भागते हुए हिन्दुओं को पकड़ लेते थे तो वे हिन्दुओं के होठों पर गांय का मांस लगा देते थे। इससे वह हिन्दू लोगों के बीच अछूत बन जाता था। तब उसके पास ईसाई पंथ में घर्मांतरित होने के अलावा कोई विकल्प नहीं रह जाता था। इतिहासकार ईश्वर शरण ने अपनी एक पुस्तक में लिखा है – “संत झेवियर के सामने औरंगजेब का मंदिर विध्वंस और रक्तपात कुछ भी नहीं है।” अंग्रेज शासन के बारे में नोबल पुरस्कार विजेता वी.एस. नायपाल की यह टिप्पणी ही काफी है कि “इस देश में इस्लामी शासन उतना ही विनाशकारी था जितना उसके बाद आया ईसाई शासन। ईसाइयों ने एक सबसे समृद्ध देश में बड़े पैमाने पर गरीबी पैदा की।”
कुछ वर्ष पूर्व एक पोप ने ईसाईयत के इन काले कारनामो के लिए अमेरिका से माफी मांगी थी। केवल अमेरिका और लैटिन अमेरिका से माफी मांग कर काम नहीं चलेगा। उन्हें कई देशों से, कई समाजों से, कई धर्मों और स्वयं ईसाइयत के विभिन्न संप्रदायों से माफी मांगनी चाहिए थी। उन्हें यहूदियों, अन्य संप्रदाय के ईसाइयों और हिन्दुओं से माफी मांगनी होगी। उन्हें माफी मांगनी पड़ेगी उन लाखों महिलाओं से जिन्हें यूरोप में चुडैल (witch) कह कर जला दिया गया। उन्हें माफी मांगनी होगी उन लाखों ईसाइयों से जिन्हें धर्म से विरत (heretic / apostate) होने के कारण यातनाघरों में यातनाएं दी गईं। गैलीलियों जैसे वैज्ञानिकों से प्रताड़ित किए जाने के लिए माफी मांगनी होगी। रोम के पोप माफी मांग भी लेंगे, लेकिन क्या ये प्रताडित लोग उनकी माफी कबूल करेंगे? आखिर माफी मांगने से इतिहास तो नहीं बदलता। समय के चक्र को पीछे नहीं चलाया जा सकता। फिर माफी मांगना नाटक और ईसाइयत की छवि सुधारने की कोशिश के अलावा क्या है? असली माफी तो तब होगी जब ईसाइयत अपना धूर्त, पाखण्डी, असहिष्णु और विस्तारवादी चरित्र बदले। शायद यह कर पाना किसी भी पोप के बस की बात नहीं। ईसाइयत के मूल चरित्र को वो कैसे बदल पाएंगे?
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