आरक्षण नही:आर्थिक विकास
देश के शिक्षण संस्थानों में पिछड़ा वर्ग के आरक्षण के सरकारी प्रस्ताव के विरोध में अपना आंदोलन तेज करते हुए मेडिकल व इंजीनियरिंग छात्रों ने कुछ दिनों पूर्व सारे राष्ट्र का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया था। आज फिर आरक्षण का विरोध हो रहा है। वैसे आरक्षण का विरोध देश में पहली बार नही हो रहा है, अपितु ‘मंडल कमीशन’ की सिफारिशों के आधार पर वी.पी. सिंह सरकार ने अपने शासनकाल में जब आरक्षण को लागू किया था तो उस समय भी ऐसा हुआ था। कई छात्रों ने इसके विरोध में तब आत्महत्या तक भी की थीं।
शांतिपूर्ण सभा और विरोध प्रदर्शन किसी भी लोकतांत्रिक देश के नागरिकों का संवैधानिक मूल अधिकार है। किंतु यह विरोध प्रदर्शन आत्मदाह तक बढ़े तो यह ऐसा विरोध प्रदर्शन करने वालों की निराशा-हताशा को तो दर्शाता ही है साथ ही लोकतांत्रिक प्रशासनिक मशीनरी की असफलता को भी दर्शाता है। छात्र अपने मौलिक अधिकार का प्रयोग करें-यह तो अच्छी बात है। किंतु इस मुद्दे को राजनीतिक रंग दें और कुछ राजनीतिज्ञों के हाथों की कठपुतली बनें यह उचित नही है। उनकी मांगों से राष्ट्र का हर संवेदनशील व्यक्ति सहमत है।
देश में स्वतंत्रता के पश्चात के छह दशकों में हमारी सरकारों ने जो बड़ी भूलें की हैं उनमें भी सबसे बड़ी भूल आरक्षण की नीति को अपनाने की है। वोट के भूखे राजनीतिज्ञों ने देश के संविधान के प्राविधान केवल ‘शो पीस’ बनाकर रख दिये हैं।
संविधान की मूल भावना थी जातिवाद, साम्प्रदायवाद को और लिंग भेद को मिटा डालने की। इसका कारण था कि भारतीय हिंदू समाज जातीय आधार पर इतना विभक्त हो चुका था (और आज भी है) कि जातीय विद्वेष के कारण छुआछूत और ऊंचनीच की भावना यहां बड़ी प्रबल थी। लोग एक दूसरे के हाथ का पानी तक पीने को तैयार नही होते थे। यहां पर छोटी जातियों के लोगों का मंदिर प्रवेश तक निषिद्घ था। परिणामस्वरूप सामाजिक ताना-बाना सारा ही अस्त-व्यस्त था। विदेशी शासकों ने हमारी इस दुर्बलता का भरपूर लाभ उठाया। उन्होंने यहां जातिवाद को और बढ़ाया और जातियों का विभाजन अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के रूप में एवं आदिवासियों की जाति के रूप में काल्पनिक आधार पर और कर दिया। इससे जातीय विद्वेष और भी बढ़ गया।
हमारे संविधान निर्माताओं ने भारतीय समाज की दुर्बलता को समाप्त करने के लिए समानता की बात कही कि कानून के समक्ष सभी समान होंगे। सभी को अपनी योग्यता प्रदर्शन का समान अवसर उपलब्ध होगा। अवसर की समानता के दोहरे मानदण्ड नही अपनाये जाएंगे। संविधान की प्रस्तावना कहती है कि हम समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्रदान कर रहे हैं। इससे स्पष्ट हो जाता है कि हमारे संविधान निर्माताओं ने एक ही झटके में सामाजिक-ऊंचनीच और छुआछूत की भावना को समाप्त कर दिया था। हमारे संविधान निर्माताओं ने समानता शब्द संविधान की उद्देशिका में डालकर यह भी स्पष्ट कर दिया कि वह सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक और शैक्षणिक रूप में पिछड़े लोगों को अपना संरक्षण प्रदान कर रहे हैं। देश में इन सभी क्षेत्रों में जिन लोगों ने ‘अगड़ा’ होने के कारण अपना वर्चस्व स्थापित किया हुआ है वह अब नही चलेगा। अपितु उनके अवैध वर्चस्व को समाप्त कर अवसर की समानता सभी को उपलब्ध करायी जाएगी। प्रतिभा को प्रतिष्ठा मिलेगी। प्रतिभाओं का निर्माण बगैर किसी पक्षपात के होगा, दबी कुचली और उपेक्षित प्रतिभाओं को ढूंढ़-ढूंढ कर पीछे से आगे लाया जाएगा। यह था संविधान का संरक्षणवादी दृष्टिकोण।
हमारे विवेकशून्य जन प्रतिनिधियों ने इस संरक्षण को आरक्षण में परिवर्तित कर दिया। परिणाम निकला-प्रतिभाओं की उपेक्षा। प्रतिभाओं का निर्माण जातीय आधार पर होने लगा और तो और प्रतिभा की प्रतिष्ठा भी गिरा दी गयी। एक व्यक्ति चालीस प्रतिशत अंक लेकर प्रतिभावान माना गया तो दूसरा 80 प्रतिशत अंक लेकर भी पीछे कर दिया गया। क्योंकि सीट आरक्षित है-किसी आरक्षण के लाभार्थी के लिए। इससे समाज में प्रतिभाओं में आग लगी। जातीय आधार जो कि देश के लिए बड़ा घातक रहा था और भी सुदृढ़ होने लगा। मूर्ख नेता अपनी वोट की राजनीति करते रहे और इस जातीय विद्वेष को और बढ़ावा देने लगे। हमारी मान्यता है कि यह राजनीतिज्ञ इस देश के लिए जितना घातक है उतना कोई अन्य प्राणी नही है। क्योंकि इन्होंने जातीय आधार पर राजनैतिक दलों का निर्माण किया और जातीय सम्मेलन किये। देश में जातीय विद्वेष की भावना को बढ़ावा दिया। मायावती, लालू प्रसाद यादव, रामविलास पासवान, मुलायम सिंह यादव और न जाने कितने नेता इस जातीय राजनीति के आधार पर फलफूल रहे हैं। यह कितना दुर्भाग्य पूर्ण है कि इस देश में जातीय सम्मेलन किये जाएं तो कोई हर्ज नही, पर यदि धर्म सम्मेलन (हिन्दू सम्मेलन) कर लिया गया तो मानो आपत्तियों का पहाड़ टूट जाएगा। देश के एक बड़े वर्ग को (जिसे बहुसंख्यक कहा जाता है) इस प्रकार अपनी विशाल एकता का प्रदर्शन करने का अधिकार नही है। हां, खंडित एकता का प्रदर्शन जातीय सम्मेलन करके अवश्य किया जा सकता है। यह स्थिति आरक्षण की मूर्खता पूर्ण नीति का ही परिणाम है। यदि हमारा संरक्षणवादी दृष्टिकोण होता तो हम वृहद हिंदू समाज की बातें करते। सबको एक साथ जोड़ते-तोड़ते नही। सब जुडक़र हिंदू समाज के लिए कार्य करते। सब मिलकर सब प्रकार के शोषण का अंत करते। किंतु ऐसा हुआ नही।
हमारी आरक्षणवादी सोच ने जब सबको आरक्षण दिया तो उच्च पदों पर जो लोग जाकर बैठे थे, तो उन्होंने उस सीट को अपने लिए सदा के लिए आरक्षित मान लिया। अपने पश्चात अपने बेटे को उस पर बैठाने की युक्ति भिड़ाने में सब कुशल हो गये। चूंकि आरक्षण आर्थिक आधार पर नही है, इसलिए एक निर्धन ब्राह्मण का बेटा अच्छे अंक लेकर भी पीछे रह जाता है। जबकि करोड़पति आरक्षित अफसर का बेटा कम अंक लेकर भी अच्छी सीट पर जा बैठता है। मायावती जैसे नेता इन उच्च पदस्थ लोगों को जो आदर्श प्रस्तुत कर रहे हैं उससे ये लोग अन्य जातियों का विरोध उम्मीदवारों के साथ प्रतिशोध का व्यवहार करके कर रहे हैं। जिससे उच्च पदस्थ आरक्षण का लाभ प्राप्त किये अधिकारियों में एक दृढ़ भाव ये पनपा है कि (तथाकथित) मनुवादियों को जैसे भी हो पीछे धकेला जाए। इसका परिणाम समाज में अभी तो एक कुण्ठा के रूप में आ रहा है पर इसका दूरगामी परिणाम बड़ा घातक हो सकता है।
प्रतिशोध मन को दूषित करता है। दूषित मन प्रदूषित चिंतन करता है और प्रदूषित चिंतन से प्रदूषित विचार निकलते हैं। जिससे समाज में ‘आग’ लगती है। हमारे लिए अपेक्षित था कि हम आग से बचते। इसलिए उचित होता कि देश के हर निर्धन व्यक्ति को संरक्षण मिलता। उसके बच्चों के लिए ही नही, अपितु सबके लिए समान अवसर उपलब्ध होते। प्रारंभिक शिक्षा से लेकर उच्चशिक्षा तक को गरीबों के लिए विशेषत: नि:शुल्क किया जाता। तब उसे प्रतिभावान बच्चों को प्रतिभा की योग्यता के अनुरूप पदों पर नियुक्ति दी जाती। इससे धीरे-धीरे जातीय भावना देश से समाप्त करने में सहायता मिलती। तब हम अपने संवैधानिक अभीष्ट के कहीं अधिक निकट होते। हमारे संविधान के पीछे जो दर्शन है उसके लिए हमें पंडित नेहरू के उस ऐतिहासिक उद्देश्य संकल्प की ओर दृष्टिपात करना होगा जो उन्होंने संविधान सभा के समक्ष 22 जनवरी 1947 को प्रस्तुत किया-संविधान सभा को भारत को स्वतंत्र प्रभुत्व संपन्न गणराज्य के रूप में घोषित करने के अपने दृढ़ और सत्यनिष्ठ संकल्प की ओर भारत के भावी शासन के लिए संविधान बनाने की घोषणा करती है। अल्पसंख्यकों के लिए पिछड़े हुए वर्गों के लिए पर्याप्त रक्षोपाय किये जाएंगे। यह प्राचीन भूमि विश्व में अपना समुचित और गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त करेंगी और विश्व शांति तथा मानव कल्याण के लिए स्वेच्छा से अपना पूरा सहयोग प्रदान करेगी।
मुख्य संपादक, उगता भारत