लोकतंत्र के लिए खुद को बचाए कांग्रेस
प्रो. एनके सिंह
कांग्रेस अब तक जिस अंदाज में काम करती आई है, उसे छोडक़र अब आगे बढऩे के लिए नई दिशाएं चुननी होंगी। गांधीजी के कार्य के तौर-तरीके मौलिक थे और इसी वजह से आज उनकी गिनती ऐसे राजनेताओं में होती है, जिन्होंने भारतीय राजनीति में अपनी एक खास छाप छोड़ी है। हालांकि इससे पहले उन्होंने सभी सफल मॉडलों का गंभीरता के साथ निरीक्षण किया, लेकिन कभी अंधानुकरण नहीं किया। राहुल को कांग्रेस में सच की लड़ाई लडऩे वाले एक विनम्र सिपाही की छवि बनानी चाहिए, न कि एक बिगड़े हुए बच्चे कीज् कांग्रेसी वर्चस्व का सूरज लगातार डूब रहा है, लेकिन देश में लोकतांत्रिक आदर्शों की रक्षा हेतु इसे खुद में जान फूंकनी ही होगी। लोकतंत्र की मूल भावना को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए संविधान निर्माताओं ने राजनीतिक ढांचे में विपक्ष की जिस अनिवार्यता की कल्पना की थी, मौजूदा दौर में कांग्रेस सही मायनों में उसे साकार कर सकती है। बहरहाल असमानता और गरीबी को हटाते हुए देश में समृद्धि और खुशहाली के संवैधानिक लक्ष्यों को प्राप्त करने हेतु संविधान की भी निष्पक्ष और गैर राजनीतिक समीक्षा करने की जरूरत है। नवीन वैश्विक क्रम की जरूरतों के साथ सामंजस्य स्थापित करने के लिए भी राष्ट्रीय उन्नति के लिए भी संविधान की यह समीक्षा आवश्यक हो जाती है। इस पूरे परिप्रेक्ष्य में एक स्वस्थ बहस के जरिए लोगों की आकांक्षाओं को एक नया रूप देने के अनेक रास्ते हो सकते हैं। कांग्रेस ही एकमात्र ऐसा दल है, जो विपक्ष के तौर पर एक प्रभावशाली भूमिका निभा सकता है। इसके अलावा न वाम और न ही क्षेत्रीय दलों के पास भारत के बेहतर भविष्य का कोई बेहतर विजन है। वाम भी अब कुछ प्रभावशाली हाथों तक सिमटता जा रहा है। हां, एक समय कांग्रेस के विकल्प के तौर पर ‘आप’ में जरूर कुछ उम्मीदें दिखने लगी थीं, लेकिन अराजक, छल-कपट से परिपूर्ण और गैर सैद्धांतिक राजनीति के आगे वे तमाम आशाएं भी मिट्टी में मिल गईं। जैसा कि पंजाब में कैप्टन अमरेंदर सिंह और बाजवा ने दीवार पर लिखी इबारत को पढक़र भांप लिया कि यहां चुनाव में उनकी टक्कर सीधे तौर पर आम आदमी पार्टी से होगी। लिहाजा पंजाब में पुन: खुद को स्थापित करने के लिए इनके सामने ‘आप’ ही बड़ी चुनौती के तौर पर दिख रही थी। पिछले कुछ समय की ‘आप’ की कार्यशैली और दिल्ली की सत्ता में आने के बाद इसके शासन के अंदाज से अविश्वास की यह भावना और भी गहरी हुई है। कुछ इसी तरह के हालात दिल्ली में भी देखने को मिले। गांधी, नेहरू और पटेल की पार्टी के तौर पर खुद की खोई हुई पहचान को पुन: हासिल करने के लिए कांग्रेस को कुछ प्रभावी प्रयास करने होंगे। भाजपा के नक्श-ए-कदम पर बढ़ते हुए कांग्रेस ने संसदीय कार्यवाही को बाधित करने की एक बहुत बड़ी गलती की है। इसके लिए उसने राजग सरकार के हर उस कदम का विरोध किया। साफ तौर पर कांग्रेस का यह आचरण देश के सामने उसकी छवि एक विकास विराधी दल के तौर गढ़ रहा है। इस प्रकार तो वह एक रचनात्मक और जिम्मेदाराना विपक्ष की भूमिका को सही ढंग से नहीं निभा पाएगी। यह सही है कि लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को बहुत बुरी हार का सामना करना पड़ा था और 500 से ज्यादा सदस्यों वाली लोकसभा में यह केवल 44 सीटों तक ही सिमट कर रह गई। लेकिन जनादेश की कद्र करते हुए इसे संसद में शालीन व्यवहार को अपनाना चाहिए। इसके लिए सबसे पहले कांग्रेस को चाहिए कि उसके कार्यकाल में भ्रष्टाचार और घोटालों के जो लांछन उसके दामन में लगे, उसे धोने के लिए प्रयास करे। इस दिशा में सुधार करते हुए सबसे पहले कांग्रेस शासित राज्यों में ऐसे मुख्यमंत्रियों और नेताओं को हटाना होगा, जिनका नाम किसी तरह के भ्रष्टाचार में संलिप्त है। पार्टी में इस तरह की सफाई से यकीनन एक संदेश जाएगा कि कांग्रेस अब पुन: गांधी-नेहरू की सियासी परंपरा को आगे बढ़ाने के लिए उत्साही दिख रही है। इसमें कांग्रेस को खीझ निकालते हुए इस तरह की तोहमतें मढऩे से बचना होगा कि भाजपा भी भ्रष्ट है और वह भी विपक्ष में रहते हुए संसदीय कार्यवाही को बाधित करती थी। इसके लिए कांग्रेस को अपना खुद का एक अलग मॉडल विकसित करना होगा। उसे अपनी पहचान एक जिम्मेदार विपक्ष के तौर पर स्थापित करनी होगी, ताकि अगले चुनावों में वह बहुमत हासिल करने की स्थिति में आ सके। इसके अलावा रॉबर्ट बढेरा को भी चाहिए कि वह खुद को सुर्खियों में बनाए रखने की आदत को छोडक़र सयंमित आचरण करें। अगला सुधारात्मक कदम यह होना चाहिए कि एक ऐसा संगठनात्मक प्रबंधन करे, जिससे भ्रष्ट और स्वार्थी नेता इसकी साख को नकारात्मक रूप से प्रभावित न कर सकें। भ्रष्टाचार और पैसे की ताकत का जहर कांग्रेसी काडर की जड़ों में गहराई तक समा चुका है।
पार्टी में जो ईमानदार और साफ छवि वाले कार्यकर्ता होते हैं, उन्हें पैसे की ताकत के दम पर पार्टी से बाहर धकेल दिया जाता है। इसकी हालत को सुधारने के लिए एक बड़ा आपरेशन आवश्यक हो चुका है। एक बीमार व्यक्ति के इलाज के दौरान उसके शरीर से जहरीले तत्त्वों को बाहर निकालना जरूरी होता है। अब कांग्रेस के पास खोने के लिए कुछ भी नहीं बचा है और पार्टी को माक्र्सवादी बंधनों और शब्दावली के उपयोग से बचना होगा। बिहार चुनाव से भी कांग्रेस ज्यादा उम्मीदें नहीं रख सकती। अब इसे एक बड़े व समर्थ सुधार की ओर बढऩा चाहिए। पार्टी में अभी तक सोनिया गांधी के नेतृत्व पर किसी तरह का खतरा नहीं है। किसी भी नेता ने नेतृत्व के लिए अपना दावा नहीं जताया है और जब तक इस वंश का इस पर नियंत्रण है, तब तक इस तरह की कोई उम्मीद भी नहीं है। इस वंश के प्रभाव में जो खुद को कांग्रेस के नेतृत्व में स्थापित कर सके, ऐसा कोई नेता फिलहाल पार्टी में दिखाई नहीं दे रहा है। मोदी और उनकी नीतियों के विरोध मात्र से कांग्रेस को भला होने वाला नहीं है। दीर्घकालीन सफलता पाने के लिए कांग्रेस को अपनी कार्यशैली का एक नया एजेंडा निर्धारित करना होगा। जब जमीनी स्तर के काडर में सफाई हो गई, तो बड़े जनसमूह में भी इसकी विश्वसनीयता बहाल होगी। जिस रोग से कांग्रेस ग्रस्त है, उसका कोई तुरंत उपचार संभव नहीं है और पार्टी को भी ऐसी स्थिति में किसी चामत्कारिक बदलाव की अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए। धैर्य और दीर्घकालीन प्रयास इसके लिए अपेक्षित रहेंगे। साथ ही रणनीति और निर्देशन बिलकुल स्पष्ट होने चाहिएं।राहुल गांधी को भी सुधार की हिदायत दी जानी चाहिए और जिस तरह वह जनता के बीच कहते हैं कि गरीबी एक दिमाग की स्थिति है, उन्हें इस तरह के अरस्तू के लिहाफ को ओढऩे से रोकने का प्रशिक्षण देना होगा। कांग्रेस को ध्यान देना होगा कि जब राहुल गांधी किसी जनसमूह को संबोधित करने जाते हैं, तो उन्हें एक विवेकपूर्ण व तार्किक स्क्रिप्ट लिखकर दी जाए। इसके अलावा खुद को पार्टी का सर्वेसर्वो साबित करने के बजाय एक शालीन सिपाही की तरह व्यवहार करना चाहिए। एक बात तो तय है कि शिष्टता और आलोचना के भारी भरकम शब्दों का प्रयोग करके वह जनता का ध्यान अपनी ओर आकर्षित नहीं कर सकते। जनता राहुल को एक विनम्र युवा नेता के तौर पर देखना चाहती है, न कि एक ऐसे कपटी और घमंडी नेता के तौर पर, जो हर कीमत पर राजग का विरोध ही जताता रहे। कांग्रेस में नयापन भरने के लिए पार्टी को ‘आप’ या मोदी की नकल करनी छोडऩी होगी, क्योंकि इन दोनों का ही काम करने की अपनी-अपनी एक खास शैली है। लिहाजा कांग्रेस अब तक जिस ढंग से काम करती आई है, उसे छोडक़र अब आगे बढऩे के लिए नई दिशाएं चुननी होंगी। गांधीजी के कार्य के तौर-तरीके मौलिक थे और इसी वजह से आज उनकी गिनती ऐसे राजनेताओं में होती है, जिन्होंने भारतीय राजनीति में अपनी एक खास छाप छोड़ी है। हालांकि इससे पहले उन्होंने सभी सफल मॉडलों का गंभीरता के साथ निरीक्षण किया, लेकिन कभी अंधानुकरण नहीं किया।