भारत सरकार को मैं बधाई देता हूं। उसने संयुक्तराष्ट्र में वह बात उठाई है, जो बात आज तक हमारे किसी भी प्रधानमंत्री ने नहीं उठाई। कश्मीर के सवाल पर हमारी सभी सरकारें- नेहरु से लेकर मोदी तक- दब्बूपन की नीति चलाती रही हैं। वे या तो कश्मीर पर बात करने से कतराती हैं या फिर हकलाती रहती है। अंतरराष्ट्रीय इस्लामी संगठन में भी हमारी कोशिश यह रहती रही है कि कश्मीर का सवाल उठे ही नहीं।
कश्मीर के सवाल पर मेरा मानना है कि वह सिर के बल खड़ा है। उसे उल्टो। उसे पांव के बल खड़ा करो। इसके पहले कि पाकिस्तान कश्मीर का सवाल उठाए, उसे हमें उठाना चाहिए। हर अंतरराष्ट्रीय मंच पर उठाना चाहिए और पाकिस्तान जब भी राजनीतिक संवाद की बात करे, हमारी तरफ से पहला मुद्दा कश्मीर होना चाहिए।
ऐसा क्यों होना चाहिए? इसलिए कि कानूनी तौर पर पूरा कश्मीर भारत का है। जिसे पाकिस्तान ‘आजाद कश्मीर’ कहता है, वह हिस्सा उसने 1948 में भारत से जबरन छीन लिया था। इस हिस्से को भारत सरकार ‘कब्जाया हुआ कश्मीर’ या ‘पाक-अधिकृत कश्मीर’ जरुर कहती है लेकिन पाकिस्तान से कभी नहीं पूछती कि उसे वापस कब लौटाओगे? मुझे खुशी है कि इस बार इस मुद्दे को हमारे प्रवक्ता ने संयुक्तराष्ट्र में जमकर उठाया है।
आप पूछ सकते हैं कि इस मुद्दे को उठाने से भारत को क्या फायदा है? क्या भारत उस कश्मीर को वापस ले सकता है? मेरा जवाब है कि क्या पाकिस्तान हमारे कश्मीर को ले सकता है? नहीं। फिर भी जैसे वह कश्मीर को उठाए रखता है, हम भी क्यों न उठाए रखें? बात को बात से काटें। बातों में भी क्या दरिद्रता? पाकिस्तान के शीर्ष नेताओं और सभी सेनापतियों को भी पता है कि वे भारत से कश्मीर नहीं ले सकते लेकिन अपने आंतरिक फायदों के लिए वे इस चिन्गारी को बुझने भी नहीं देते। उन्हें पता है कि युद्ध-विराम रेखा ही पक्की अंतरराष्ट्रीय सीमा है और यही हमेशा रहेगी। भारत के नेता यह भी नहीं जानते कि जब पाकिस्तानी नेता कश्मीर पर ‘संयुक्तराष्ट्र प्रस्ताव’ और जनमत संग्रह की बात उठाते हैं तो उसका जवाब कैसे दें? उस पर भी भारत का रवैया दब्बूपन का होता है। वास्तव में पाकिस्तान खुद उस प्रस्ताव के प्रावधानों का उल्लंघन करता है और जब हम ‘जनमत संग्रह’ की गहराई में जाते हैं तो उसके हाथ-पांव ठंडे हो जाते हैं। यह सब करना इसलिए जरुरी है कि पाकिस्तान शांति से रहना सीख जाए।