(भक्त अमीचंद की पुण्यतिथि पर विशेष रूप से प्रकाशित)
प्रेषक- डॉ विवेक आर्य
स्वामी दयानन्द 1877 को रावलपिंडी से चलकर झेलम पहुँचे। उन दिनों अमीचंद मेहता वहां के दरोगा थे। झेलम जिले पिण्डदादन खाँ तहसील के हरणपुर गांव निवासी अमीचंद मेहता तहसील में पहले लिपिक के रूप में नियुक्त हुए और उन्नति करते करते चुंगी के दारोगा के पद पर पहुँचे थे। गायन विद्या के प्रेमी होने के कारण मिरासियों और वेश्याओं की संगती में पड़कर पथभ्रस्ट हो गए थे। उन्होंने अपनी सती साध्वी पत्नी को त्याग दिया, मद्य व मांस से उन्हें कोई परहेज नहीं था। मालगुज़ारी के महकमे में कार्य करने के कारण रिश्वतखोर थे और मुफ्त का माल दिल बेरहम की कहावत को चरितार्थ करते हुए यह बेईमानी का पैसा शराब, कबाब और वेश्यावृति में लुटाते थे।
आश्चर्य है कि विभिन्न व्यसनों तथा दुर्गुणों से ग्रस्त यह व्यक्ति उच्च कोटि का संगीतज्ञ तथा गान विद्या का रसिक था। जिस समय महर्षि दयानन्द के व्याख्यान जेहलम में हो रहे थे, उस समय स्थानीय सरकारी डॉक्टर के आग्रहवश अमीचंद मेहता भी महाराज के व्याख्यानों में जाने लगे। लोगों को आग्रह करने पर अमीचंद ने महर्षि के व्याख्यान प्रारम्भ होने से पूर्व एक अत्यंत रसीला भजन सुनाया, जिसे सुनकर सभी श्रोता मंत्रमुग्ध हो गये। महर्षि को जब गायक पूरा परिचय मिला तो उन्होंने यही कहा, ‘ठीक हो जायेगा, देखो, सुधर जाएगा।’ दूसरे दिन पुन: जब मेहताजी अपना भजन गाकर निवृत हुए और उसके पश्चात ,महाराज का व्याख्यान समाप्त हुआ तो उन्होंने कुपथगामी संगीतज्ञ अमीचंद की पीठ पर हाथ धरकर कहा – मेहताजी तुम हो तो हीरे, किन्तु कीचड़ में पड़े हो। युगपुरुष दयानन्द के मुख से अपने प्रति इस प्रकार का प्रशंसा वाक्य सुनते ही पापपंक में आपाद मस्तक लिप्त रहनेवाले मेहताजी के नेत्र आँसुओं से भर आये। पश्चाताप के स्वर में आचार्य प्रवर के चरणों स्पर्श कर कहा, “महाराज यदि आपका आशीर्वाद प्राप्त होता रहा, तो आपने जैसा मुझे (हीरा) कहा है, वैसा ही बनकर दिखाऊँगा। ”
दूसरे दिन जब मेहता अमीचंद स्वामीजी की व्याख्यान सभा में उपस्थित हुए तो वे सर्वथा परिवर्तित व्यक्तित्व लेकर आये थे। दुराचारों और व्यसनों से उन्होंने मुँह तोड़ लिया था। अब उन्होंने जो स्वरचित गीत सभा में प्रस्तुत किया, वह दो अर्थक था। इसमें एक ओर जहाँ परमपिता की असीम करुणा तथा अनुकम्पा के प्रति अपना विनम्र कृतज्ञता भाव प्रदर्शित किया गया था, वहाँ उन्होंने इस लोक में अपने महान पथप्रदर्शक इस सन्यासी के प्रति भी आभार व्यक्त किया था। जिसकी प्रेरणा से उसके जीवन में यह सुखद परिवर्तन आ सका। आगे चलकर अमीचंद मेहता काव्य तथा संगीत के माध्यम से आर्यसमाज के प्रचार में जैसा योगदान किया, वह इतिहास का एक स्मरणीय पृष्ठ बन चुका है।
वह गीत इस प्रकार था
तुम्हारी कृपा से जो आनंद पाया। वाणी से जाये वह कैसे बताया।।
तुम्हारी कृपा से अजी मेरे भगवन। मेरी जिंदगी ने अजब पलटा खाया।।- अमीर सुधा, पृष्ठ 2
निश्चित रूप से महर्षि दयानन्द रूपी पारस पत्थर को छूकर मेहता अमीचंद सोना बन गए।
सन्दर्भ- डॉ भवानीलाल भारतीय, नवजागरण के पुरोधा: महर्षि दयानन्द सरस्वती, भाग 1, पृष्ठ 559-560, श्री घूड़मल प्रह्लादकुमार आर्य धर्मार्थ न्यास
अमीचंद मेहता जी का स्वर्गवास 29 जुलाई,1893 को हुआ था। आपकी कृतियां अमीरसुधा-संपादक:दौलतराम शास्त्री और अमितसंसार संपादक चमूपति ने प्रकाशित की थी।