आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती की वास्तविक जन्मतिथि
( लेखक- इं. आदित्यमुनि वानप्रस्थ, भोपाल)
मुझे अपने गत दिल्ली प्रवास के समय उझानी (बदायूँ) के डॉ॰ पारस मिश्र और नर्मदानगर (गुजरात) के श्री भावेश मेरजा से यह जानकारी मिली थी कि परोपकारिणी सभा के पाक्षिक मुखपत्र परोपकारी के अप्रैल द्वितीय, २०१९ ई० के अंक में डॉ० ज्वलन्तकुमार शास्त्री (अमेठी) का मेरी उक्त शीर्षक पुस्तक में प्रतिपादित स्वामी दयानन्द सरस्वती की वास्तविक जन्मतिथि के खण्डन में एक विस्तृत लेख प्रकाशित हुआ है। इसका मैंने इन दोनों महानुभावों को भोपाल वापस लौटकर उत्तर देने का वचन दिया था। परन्तु भोपाल वापस आने पर भी जब मुझे उक्त अंक आया हुआ नहीं मिला, जबकि मैं इस पत्र का वर्ष २०१४ ई० से ही २,००० रु० भेजकर अगले १५ वर्षों के लिए आजीवन ग्राहक बना हुआ हूँ। वैसे मैं इस पत्र का १९५९ ई० से उसके प्रकाशनारम्भ से ही एक नियमित पाठक रहा हूँ। ऐसी स्थिति में डॉ॰ पारस मिश्र से इस लेख की छायाप्रति स्पीड पोस्ट से प्राप्त करने और उत्तर देने में मुझसे कुछ विलम्ब हुआ है।
मैंने अपनी पुस्तक में स्वामी दयानन्द सरस्वती की वास्तविक जन्मतिथि के रूप में गुजरात में प्रचलित गुजराती संवत् के अनुसार भाद्रपद शुक्ल ९, संवत् १८८१ (कार्तिकी संवत्) तदनुसार २० सितम्बर, १८२५ ई०. (मङ्गलवार) का प्रतिपादन किया था जबकि डॉ॰ ज्वलन्तकुमार शास्त्री ने सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा नई दिल्ली द्वारा मान्य और प्रचारित जन्मतिथि फाल्गुन कृष्ण १०, संवत् १८८१ (चैत्री संवत्) तदनुसार १२ फरवरी, १८२५ ई० (शनिवार) का प्रतिपादन अपने लेख में किया है। इन दोनों में से कौन सी तिथि सही है, हम पहले इसकी ही परीक्षा कर लेते हैं-
आर्यजगत् पिछले लगभग ३० वर्षों से अपनी शिरोमणि सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा के एक निर्णयानुसार आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती का जन्मदिन प्रतिवर्ष फाल्गुण कृष्ण १० संवत् १८८१ (उत्तर भारतीय चैत्री संवत्) तदनुसार १२ फरवरी, १८२५ ई० को उनका जन्म हुआ मानकर मनाता चला आ रहा है। लेकिन यह सर्वथा गलत है क्योंकि ऋषि दयानन्द ने पूना (महाराष्ट्र ) में ४ अगस्त, १८७५ ई० को दिए गए अपने पूर्वचरित्र सम्बन्धी पन्द्रहवें प्रवचन में कहा था कि-
(अ) इस समय (अर्थात् ४ अगस्त, १८७५ ई० को) मेरा वय ४९-५० वर्ष का होगा।
-द्रष्टव्य ऋषि दयानन्द सरस्वती के शास्त्रार्थ और प्रवचन (शास्त्रार्थ सम्पादक डॉ० भवानीलाल भारतीय और प्रवचन अनुवादक पं० युधिष्ठिर मीमांसक, प्रथम संस्करण, आश्विन संवत् २०३९; पृष्ठ-४३३)
(ब) हल्ली माझे वय ४९-५० वर्षाचे असेल।
-द्रष्टव्य- प्रबोधन काळातील- पुणे प्रवचन (सम्पादक प्रा. आचार्य सत्यकाम पाठक, महाराष्ट्र आर्य प्रतिनिधि सभा, नादेड़, प्रथम संस्करण, संवत् २०४०; पृष्ठ- १२३)
महर्षि दयानन्द के दो भाषाओं (हिन्दी एवं मराठी) में उपलब्ध उक्त कथनों से स्पष्ट है कि ४ अगस्त, १८७५ ई० को उनकी आयु ४९ वर्ष से अधिक परन्तु ५० वर्ष से कुछ कम थी। लेकिन सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा द्वारा मान्य जन्म दिनाङ्क १२ फरवरी, १८२५ ई० के मानने से तो ४ अगस्त, १८७५ ई० को वे ५० वर्ष से अधिक परन्तु ५१ वर्ष से कुछ कम वय के सिद्ध होते हैं जो स्वयं आर्यसमाज के संस्थापक के ही कथन के विरुद्ध है। अत: फाल्गुण कृष्ण १० संवत् १८८१ (चैत्री संवत्) की यह जन्मतिथि ही गलत है। दूसरी ओर मेरे द्वारा मान्य जन्म दिनाङ्क २० सितम्बर, १८२५ ई० के अनुसार वे ४ अगस्त, १८७५ ई० को मात्र ४९ वर्ष १० मास और १५ दिन के होते हैं जो ऋषि के उक्त कथन से सर्वथा मेल खाती है। अतः यही तिथि सही है।
२- इसी प्रकार कोलकाता में भी २२ मार्च, १८७३ ई० को बँगला भाषा में अपनी आत्मकहानी बङ्गाल के कुछ लेखकों को लिखाते समय स्वामी दयानन्द ने कहा था कि “मेरी अवस्था इस समय प्रायः ४८ वर्ष की है। ” जिस समय कि वे मेरे द्वारा मान्य जन्म दिनाङ्क २० सितम्बर, १८२५ ई० के अनुसार ४७ वर्ष ६ मास और २ दिन के होते हैं। इस प्रकार यहाँ भी स्वामी जी के उक्त कथन से मेरी तिथि ही मेल खाती है, जबकि सार्वदेशिक सभा द्वारा मान्य जन्म दिनाङ्क १२ फरवरी, १८२५ ई० मानने से वे ४८ वर्ष से अधिक वय के सिद्ध होते हैं।
३- महर्षि दयानन्द सरस्वती गुजराती थे और उनका जन्म उसी प्रान्त के मोरवी राज्य के टंकारा नगर में एक गुजराती ब्राह्मण के परिवार में हुआ था जहाँ कार्तिकी (कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा से आरम्भ होने वाले) गुजराती संवत् का प्रचलन है। अतः स्वामी दयानन्द के जन्म पर उनके माता-पिता ने उनकी जो जन्मकुण्डली बनवाई थी वह उस प्रदेश में प्रचलित गुजराती पञ्चाङ्ग के अनुसार ही बनवाई थी और बालक के कुछ बड़े होने पर वही उनके माता-पिता ने उन्हें भी बताई थी, अन्यथा किसी बालक के लिए अपनी जन्मतिथि जानने का अन्य कोई उपाय नहीं होता है।
आगे जब स्वामी दयानन्द को अपनी आत्मकथा लिखने का अवसर मुम्बई से प्रकाशित होने वाले मासिक अँग्रेजी पत्र थ्योसोफिस्ट के सम्पादक कर्नल आल्काट और मैडम ब्लेवटस्की ने प्रदान किया तो उन्होंने सर्वप्रथम इस अँग्रेजी पत्र के अक्टूबर, १८७९ ई० के अङ्क के पृष्ठ- ९ पर लिखा कि ‘It was in a Brahmin family of the Oudichya caste, in a town belonging to the Rajah of Moorwee, in province of Kattiawar, that in the year of Samvat, 1881, I, known as Dayanund Saraswati, was born.’ यह अँग्रेजी अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती के स्वहस्त से लिखित इस देवनागरी वाक्य का अनुवाद था कि ‘संवत् १८८१ के वर्ष में मेरा जन्म दक्षिण गुजरात प्रान्त, देश काठियावाड़ का मजोकठा देश, मोर्वी का राज्य, औदीच्य ब्राह्मण के घर में हुआ था।’
उक्त वाक्य में व्यक्त १८८१ का संवत् निःसन्देह वही गुजराती संवत् है जो उनके जन्म स्थान पर तब भी प्रचलित था और अब भी प्रचलित है तथा जिसे ही स्वामी दयानन्द के माता-पिता ने उन्हें उनके बचपन से ही बता रक्खा था। लेकिन उत्तर भारत के बरेली नगर में २६ अगस्त, १८७९ ई० (भाद्रपद शुक्ल ९, मङ्गलवार) को अपने जन्मदिन पर ही लिखे गए इस संवत् को उत्तर भारतीय लेखकों ने चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से आरम्भ होने वाले अपने संवत् को ग्रहण करके पहले उनका जन्म १८८१-५७ = १८२४ ई० में हुआ होना प्रचारित कर में दिया। बाद में जब उनका ध्यान स्वामी दयानन्द सरस्वती के आत्मकथोक्त इन वाक्यों पर पड़ा कि “फिर माता-पिता ने मुझे बुलाके विवाह की तैयारी कर दी। तब तक २१ इक्कीसवाँ वर्ष भी पूरा हो गया। जब मैंने निश्चित जाना कि अब विवाह किए बिना कदाचित् न छोड़ेंगे। फिर गुपचुप संवत् १९०३ के वर्ष में घर छोड़ के सन्ध्या के समय भाग उठा।” तब उत्तर भारतीय लेखकों में से एक स्व॰ पं० भीमसेन शास्त्री (कोटा निवासी) ने विचार करके ऋषि दयानन्द की जन्मतिथि १२ फरवरी, १८२५ ई० शनिवार (फाल्गुण कृष्ण १०, संवत् १८८१ (चैत्री संवत्) ‘ सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा से मान्य करा ली क्योंकि तब ही १८८१ +२१ =१९०२ संवत् की पूर्ति होकर अगली चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से संवत् १९०३ में उनका गृह त्याग करना मान्य किया जा सकता था। इस तिथि के निर्धारण में उस दिन मूल नक्षत्र का होना भी एक कारण बना क्योकि स्वामी दयानन्द सरस्वती का बचपन का नाम मूलशङ्कर (मूल नक्षत्र में जन्म लेने से) भी मान्य हो चुका था।
यहाँ तक के इन विवरणों में प्रस्तुत दो संवत् १८८१ और १९०३ गुजराती संवत् ही हो सकते हैं क्योंकि २१ वर्षीय युवक मूलशकर ने तब तक गुजरात से बाहर कहीं कदम भी नहीं रखा था और वह अपने प्रदेश में प्रचलित अपने गुजराती संवत् से ही परिचित था। उत्तर भारतीय संवत् से उसका परिचय तो बहुत आगे तभी हुआ होगा जब वह संवत् १९११ के अन्त में कुम्भ के मेले में हरिद्वार पहुँचा होगा।
अपने लेख में डॉ० ज्वलन्तकुमार शास्त्री ने मेरी स्थापनाओं के सम्बन्ध में अपनी अनेक आपत्तियाँ प्रस्तुत की हैं। अतः आगे हम उन्हीं का एक-एक करके निराकरण करते हैं-
शास्त्री जी की आपत्ति १: अब २९ वर्षों के बाद श्री आदित्यमुनि जी (भोपाल) ने ‘स्वामी दयानन्द की वास्तविक जन्मतिथि’ शीर्षक से ३६ पृष्ठों की एक लघु पुस्तक प्रकाशित की है जिसमें उन्होंने ऋषि दयानन्द की जन्मतिथि २० सितम्बर, १८२५ ई० बताने का प्रयास किया है। अपनी पुस्तक का सारांश भी एक लघु लेख के माध्यम से उन्होंने लिखा है जिसका शीर्षक है- ‘आर्यसमाज अपने संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती का जन्मदिन ही गलत मना रहा है! ‘ यह लेख उन्होंने वेदवाणी के सम्पादक श्री प्रदीप शास्त्री के पास प्रकाशनार्थ भेजा था। माननीय श्री प्रदीप जी ने यह लेख मेरे पास भेजकर मेरा उत्तर या पक्ष जानना। चाहा है, अतः प्रथमतः उनके सारांश लेख का उत्तर ही लिख रहा हूँ।
हमारा उत्तर- १: वेदवाणी मासिक पत्रिका अपने मई, २०१८ ई० के अङ्क के पृष्ठ-३४ पर ही हमारी उक्त ३६ पृष्ठीय पुस्तक की समीक्षा प्रकाशित कर चुकी है जिसमें श्री प्रदीप जी ने लिखा है कि ‘गुजराती परम्परा में प्रचलित कार्तिकादि पञ्चाङ्गानुसार महर्षि दयानन्द की वास्तविक जन्मतिथि भाद्रपद शुक्ल ९ वि० सं० १८८१ (गुजराती) तदनुसार मङ्गलवार २० सितम्बर सन् १८२५ ई० है। यही तिथि ऋषि दयानन्द के स्वलिखित जन्मतिथि से भी मिलती है। अनेक जीवनी लेखक विद्वान् उत्तर भारत में प्रचलित चैत्रादि पञ्चाङ्ग तथा गुजरात में प्रचलित कार्तिकादि पञ्चाङ्ग के मौलिक गणनात्मक भेद को न कर पाने के कारण अनुचित जन्मतिथि लिखते रहे। लेखक महोदय का अनुरोध है कि सभी आर्यजन गणनात्मकरूप से निर्धारित वर्त्तमान जन्मतिथि भाद्रपद शुक्ल नवमी (वि० सं० १८८१) महर्षि के जन्मपर्व के रूप में मनायें। ” मेरा यह लेख कि ‘आर्यसमाज अपने संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती का जन्मदिन ही गलत मना रहा है!’ मिलने पर वेदवाणी के सम्पादक श्री प्रदीप जी ने मुझे भी फोन किया था कि आप और डॉ० ज्वलन्तकुमार शास्त्री परस्पर विचार-विमर्श करके जन्मतिथि सम्बन्धी इस विवाद को सुलझावें। पर ऐसा न करके शास्त्री जी ने अपना ही लेख परोपकारी पत्र में छपवा दिया और मेरा भी यह लेख इन्दौर के वैदिक संसार के फरवरी, २०१९ ई० के अङ्क में पृष्ठ- १७, १८ पर सचित्र और सम्पादकीय इस टिप्पणी के साथ कि- ‘महर्षि दयानन्द सरस्वती की जन्मतिथि विषयक विरोधाभसों के मध्य शोधपरक एक प्रामाणिक तथ्यों से युक्त लेख’ प्रकाशित हो गया। इसके साथ ही श्री मोहन कृति आर्ष पत्रकम् के निर्माता आचार्य दार्शनेय लोकेश (ग्रेटर नोएडा) ने भी मेरे द्वारा निर्धारित जन्मतिथि को ही अपने संवत् २०७६ वि० के पञ्चाङ्ग में उसके आवरण पृष्ठ-२ पर अपने एक पृष्ठीय वक्तव्य के साथ सम्मिलित कर लिया जबकि इससे पहले वे अपने इस पञ्चाङ्ग में फाल्गुन कृष्ण १० की तिथि को ही महर्षि की जन्मतिथि के रूप में प्रकाशित करते रहे थे।
शास्त्री जी की आपत्ति-२ : पहली बात तो यह है कि सार्वदेशिक धर्मार्य सभा से निर्णीत तिथि फाल्गुन बदि दशमी १८८१ विक्रमी संवत् (१२ फरवरी, १८२५ ई०) के पक्ष में आर्यविद्वानों की लम्बी फेहरिस्त है। कुछ उल्लेख पूर्व में कर चुका हूँ। मेरी पुस्तक छपने के बाद…
हमारा उत्तर -२ : शास्त्री जी द्वारा उल्लिखित सभी विद्वान् थे तो अन्तत: अल्पज्ञ मनुष्य ही। इसलिए उनसे उनको उपलब्ध हुए विवरणों से निष्कर्ष निकालने में गलती हो सकती थी और वह उनसे हुई भी, अतः अब आर्यसमाज के चौथे नियम कि ‘सत्य के ग्रहण करने और असत्य के छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिए।’ मेरे इस नये सत्य को स्वीकार करने में विलम्ब क्यों करना चाहिए? आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द तो यहाँ तक कह गए हैं कि ‘मैं सर्वज्ञ भी नहीं हूँ। इससे आगे यदि मेरी भी कोई गलती पाई जाए तो उसे परीक्षा करके सुधार लेना। यदि ऐसा न करोगे तो आगे यह भी एक सम्प्रदाय हो जाएगा।’ ऐसे सत्याग्रही ऋषि की अपनी जन्मतिथि की परीक्षा करके अब उसे सुधार लेने में उनके अनुयायी विद्वानों और अन्यों को विलम्ब क्यों करना चाहिए? वैसे भी किसी मनुष्य की जन्मतिथि उस प्रकार का ऊहापोह करके निर्धारित नहीं की जा सकती जैसी कि ऋषि दयानन्द की जन्मतिथि फाल्गुन बदि दशमी संवत् १८८१ वि० के विषय में की गई। है। इसके लिए तो प्रत्येक मनुष्य का अपना जन्म प्रमाणपत्र अथवा उसके माता-पिता द्वारा उसके जन्म के समय बनवाई गई जन्मकुण्डली वा उनका स्वयं का कथन ही अन्तिम प्रमाण हो सकता है और मैंने वही खोजकर अब सबके सामने उपस्थित कर दिया है।
शास्त्री जी की आपत्ति-३ : आदित्यमुनि जी स्वामी जी का गृह त्याग कार्तिकी शुक्ल प्रतिपदा से प्रारम्भ होने वाली कार्तिकी गुजराती संवत् १९०३ के कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष में मानते हैं। आदित्यमुनि जी के अनुसार स्वामी जी गृह-त्याग के १०-१२ दिनों के अनन्तर सिद्धपुर में कार्तिक पूर्णिमा से प्रारम्भ होने वाले कार्तिकी के मेले में जा पहुँचे, जहाँ उनकी भेंट अपने पिता से हुई। आदित्यमुनि जी का यह मिथ्या लेखन अकाण्ड ताण्डव है और इससे उत्पन्न होने वाले अनेक प्रश्नों का जबाव उनके पास नहीं है। जैसे स्वामी जी अपने गाँव टंकारा से निकलकर कुछ दिनों बाद सायला में लाला भगत जोगी के यहाँ पहुँचे। सायला में ऋषि के निवास की अवधि एक मास रही। इसे पं० लेखराम, पं० युधिष्ठिर मीमांसक, पं० भगवद्दत्त आदि सभी ऋषि जीवनी के अनुसन्धाता विद्वान् मानते हैं।
हमारा उत्तर-३ : स्वयं ऋषि दयानन्द ने इस सम्बन्ध में स्वहस्त से जो लिखा है, वह मात्र इतना भर है कि “फिर लाला भगत की जगह जो सायले शहर में है, वहाँ बहुत साधुओं को सुनकर चला गया। वहाँ एक ब्रह्मचारी मिला। उसने मुझसे कहा कि तुम नैष्ठिक ब्रह्मचारी हो जाओ। उसने मुझको बह्मचारी की दीक्षा दी और शुद्ध चैतन्य मेरा नाम रक्खा तथा काषाय वस्त्र भी करा दिए।” ऋषि के इस लेख में कहीं भी सायले में एक मास रहने का उल्लेख नहीं है। तब हम ऋषि की माने वा शास्त्री जी द्वारा बताए गए इन अनुसन्धाता विद्वानों की?
शास्त्री जी की आपत्ति ४ : जिन श्रीकृष्ण शर्मा द्वारा कल्पित कुण्डली के आधार पर आदित्यमुनि ने ऋषि का जन्म २० सितम्बर, १८२५ ई० माना है, वे श्रीकृष्ण शर्मा भी सायला में ऋषि के निवास की अवधि एक-डेढ़ मास मानते हैं। द्रष्टव्य-‘ महर्षि दयानन्द (मूलशङ्कर) सरस्वती का वंश परिचय’ (श्रीकृष्ण शर्मा) पृ० २८ का वक्तव्य- ‘सायला लाला भगत के मन्दिर में महर्षि वहाँ कार्तिकी संवत् १९०२ के आषाढ़ और श्रावण मास में लगभग डेढ़ मास तक ठहरे थे।’
हमारा उत्तर-४ : जब स्वामी दयानन्द जी ने स्पष्टरूप से लिखा है कि उन्होंने गृह-त्याग संवत् १९०३ में किया था तो वे आगे जाकर सायला में पुनः संवत् १९०२ में वापस कैसे आ सकते थे? दरअसल यह त्रुटि पं० श्रीकृष्ण शर्मा से भी अन्यों की भाँति ही हुई है क्योकि उनके समय तक जो सामग्री उन्हें उपलब्ध थी, उसमें ऐसा ही उल्लेख पाया जा रहा था। स्वामी दयानन्द सरस्वती की स्वयं की अपनी हस्तलिखित आत्मकथा का हस्तलेख तो पहले पहल बहुत बाद में सन् १९७५ ई० में ही ऋषि के पुराने बस्तों से खोजकर डॉ० भवानीलाल भारतीय द्वारा सबके सामने लाया जा सका था और तब ही उन्होंने उसकी छायाप्रतियाँ मूलरूप में परोपकारिणी सभा द्वारा प्रकाशित करा दी थीं जो सभा के ऋषि बलिदान शताब्दी संस्करणों में भी प्रकाशित हैं। मैं इनका उपयोग तभी से निरन्तर करता चला आ रहा हूँ जबकि ऐसा उपयोग शास्त्री जी द्वारा उल्लिखित अनेक विद्वानों और उन्होंने स्वयं भी अब तक नहीं किया है।
जब पं० श्रीकृष्ण शर्मा ने अपने लेख में यह स्पष्ट लिखा है कि “महर्षि (मूलशंकर) की जो जन्मकुंडली उनके परिवारी जनों से प्राप्त हुई है उसके अनुसार महर्षि की जन्मतिथि भाद्रपद शुक्ल नवमी ही है, परन्तु स्व. पं. अखिलानन्द शर्मा ने इस तिथि को ग्रहण करते हुए अपने दयानन्द दिग्विजय नामक प्रसिद्ध काव्य-ग्रन्थ में महर्षि का जन्म चैत्री संवत् १८८१ लिया है जो वास्तव में सौराष्ट्र और गुजरात में प्रचलित कार्तिकी संवत् से छः मास पीछे है।” तब हम आर्यसमाज टंकारा के भूतपूर्व मंत्री पं० श्रीकृष्ण शर्मा की इस बात पर विश्वास क्यों न करें? आर्यसमाजियों में यह दुष्प्रवृत्ति पाई जाती है कि वे अपने अलावा अन्यों को प्रायः झूठा और जालसाज ही समझते और मानते हैं। पर मैं उनमें से नहीं हूँ।
कुछ लोग फिर भी कहते हैं कि शर्मा जी को यह कुण्डली कहाँ से प्राप्त हुई है, ऐसा उन्होंने नहीं बताया है। जब कि शर्मा जी लिखते हैं कि महर्षि के परिवारीजनों से प्राप्त हुई है तब उनकी इस बात पर विश्वास क्यों नहीं किया जाता है? कोटा के ऐसे ही शङ्कालु पं० शिवनारायण उपाध्याय जी को मैंने लिखा था कि यदि आपने महर्षि दयानन्द सरस्वती के जीवनीकार बाबू देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय द्वारा लिखित ‘महर्षि का जन्मस्थान और नाम’ सम्बन्धी प्रथम परिशिष्ट (जो सर्वप्रथम गुरुकुल काँगड़ी की पत्रिका में स्वामी श्रद्धानन्द के समय में प्रकाशित हुआ था) पढ़ा होगा तो उसमें यह भी पढ़ा ही होगा कि “भगवान् के पिता का नाम कर्शन (कृष्ण) जी लाल जी त्रिवाड़ी था और वह सामवेदी औदीच्य ब्राह्मण थे।… उनका कोई वंशधर न रहा, अतएव उनकी भूमि, घर आदि सारी सम्पत्ति उनकी बहिन के वंशधर को मिली थी। अब उनके घर में एक व्यक्ति पोपट नामी ब्राह्मण बास करता है। पोपट के पिता कल्याणजी, कल्याणजी के पिता बोगा और बोगा के पिता मङ्गल जी थे। यह मङ्गल जी ही उनके उत्तराधिकारी थे। ”
उक्त विवरण से यह सुस्पष्ट है कि स्वामी दयानन्द की एकमात्र जीवित बहिन प्रेमबा के पति को ही उनके पिता की सारी भू-सम्पत्ति, गृह और अन्य सारी सम्पत्ति उत्तराधिकार में मिली थी। इस प्रकार यह सारी सम्पत्ति उत्तराधिकार में पोपट प्रभाशङ्कर रावल तक पहुँची थी।
बाबू देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय ने अपने उक्त लेख में यह भी लिखा है कि “इन पोपट रावल जी के पास एक पुरानी खाताबही देखी गई थी जो कर्शनजी लालजी की बही थी। उसके देखने से ज्ञात हुआ कि उनका लेनदेन बहुत विस्तृत था। उसके एक स्थल में लिखा है कि पौष सुदी ८, संवत् १८५८ को उन्होंने बगला मेघपुर के ग्रासिया मनुजी तथा मथुजी गज्जनजी की भूमि १८००० कोरी में गिरवी रक्खी थी। दूसरे स्थल में लिखा है कि उन्होंने उसी बगला मेघपुर के. उदयसिंह वोजाजी की भूमि संवत् १८७३ में एक रुपया नौ आने सैकड़ा ब्याज पर १५०० कोरी में बन्धक रक्खी थी। इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि कर्शनजी लालजी एक धनाढ्य पुरुष थे जो लोगों को सहस्रों रुपया ऋण दे सकते थे और एक अच्छे साहूकार थे। ”
उक्त विवरणों से स्पष्ट है कि पोपट प्रभाशङ्कर रावल तक स्वामी दयानन्द के पिता जी के जीवनकाल के दस्तावेज विद्यमान थे। इन दस्तावेजों में यदि स्वामी दयानन्द जी की जन्मकुण्डली भी रही हो और वही पं० श्रीकृष्ण शर्मा को मिली हो जिसका ही उल्लेख उन्होंने अपने ग्रन्थ में उक्त प्रकार से कर दिया हो कि ‘महर्षि की जो जन्मकुण्डली उनके पारिवारिक जनों से मिली है, उसके अनुसार ‘महर्षि की जन्मतिथि भाद्रपद शुक्ल नवमी ही है।’ तो इसे झुठलाने के लिए अब अन्यों द्वारा झूठी कहानियाँ क्यों गढ़ी जा रही हैं?
शास्त्री जी की आपत्ति ५ : इसका कारण यह है कि ऋषि ने अपने पूना-प्रवचन में कहा है कि ” वहाँ से अहमदाबाद के समीप कोटकाँगड़े नामी गाँव में आया।. . इस स्थान पर मैं तीन महीने रहा था। ”
हमारा उत्तर-५ : स्वयं ऋषि दयानन्द ने इस सम्बन्ध में स्वहस्त से जो लिखा है, वह मात्र इतना भर है कि “जब मैं वहाँ से अहमदाबाद के पास कौठकांगड़ जो कि छोटा सा राज्य है वहाँ आया, तब मेरे गाम के पास का जान पहचान वाला एक बैरागी मिला। उसने पूछा कि तुम कहाँ से आए और कहाँ जाया चाहते हो? तब मैंने उससे कहा कि मैं घर से आया और कुछ देश भ्रमण किया चाहता हूँ। उसने कहा तुमने काषाय वस्त्र धारण करके क्या घर छोड़ दिया? मैंने कहा कि हाँ, मैंने घर छोड़ दिया है और कार्तिकी के मेले पर सिद्धपुर को जाऊँगा।” ऋषि के इस लेख में भी कोटकाँगड़े में कहीं भी तीन मास ठहरने का उल्लेख नहीं है। तब मैं स्वयं ऋषि की मानूँ या शास्त्री जी द्वारा बताए गए कुछ जीवनीकारों की ? जो सब आखिरकार थे तो अल्पज्ञ मनुष्य ही ।
पूना-प्रवचन में कोटकाँगड़ के प्रसङ्ग में उनके लेखकों की असावधानी से (क्योंकि तब न तो टेपरिकार्डर थे और न ही शार्टहेण्ड का आविष्कार हुआ था)। यहाँ तीन मास रहने और एक रानी के वैरागियों के फन्दे में आ जाने का विवरण अस्थान पर जुड़ गया है। वस्तुत: यह प्रसङ्ग तो आगे व्यासाश्रम का है जहाँ वे तीन मास ठहरे थे। इस सम्बन्ध में पाठक जन्म-चरित्र, पूना-प्रवचन और कलकत्ता-कथ्य का मेरे द्वारा सम्पादित संयुक्त संस्करण अपना जन्मचरित्र(दीपावली संवत् २०६७ वि० पर प्रकाशित) के पृष्ठ-३४ पर मेरी टीप क्र. ६० और ६१ देखें।
शास्त्री जी की आपत्ति-६ : आदित्यमुनि की मुसीबत हम समझते हैं। आज से ३० वर्ष पहले उन्होंने लिखा था कि स्वामी जी ने टंकारा के अपने गृह का त्याग १९०२ विक्रमी में किया था। इसके उत्तर में जब हमने लिखा कि स्वामी जी की लिखित आत्मकथा में उनके गृह त्याग का वर्ष १९०३ विक्रम संवत् लिखा है। अतः स्वामी जी का गृह-त्याग १९०२ विक्रमी में नहीं हो सकता। मेरे आक्षेप से बचने के लिए उन्होंने अब १९०३ विक्रम तो माना किन्तु चैत्री उत्तरीय विक्रम संवत् १९०३ न मानकर द्रविण प्राणायाम करके गुजराती कार्तिकी संवत् १९०३ मान लिया। ‘ताड़ से गिरकर खजूर पर अटके’ वाली कहावत आदित्यमुनि पर चरितार्थ हो गई।
हमारा उत्तर ६ : हम ३० वर्ष पहले पं० अखिलानन्द शर्मा के संस्कृत काव्य-ग्रन्थ दयानन्द दिग्विजय के अनुसार महर्षि की जन्मतिथि भाद्रपद शुक्ल ९, संवत् १८८१ वि० तदनुसार गुरुवार दिनांक २ सितम्बर, १८२४ ई० ही मानते थे और उसी का प्रतिपादन अपने लेखों और ग्रन्थों में करते थे। देखें हमारे द्वारा सम्पादित और प्रकाशित महर्षि दयानन्द सरस्वती द्वारा तीन बार में कहा और लिखाया गया अपना जन्मचरित्र जो ऋषि के जन्म दिनांक पर ही २ सितम्बर, १९८७ ई. (भाद्रपद शुक्ल ९, सं० २०४४ वि०) पर प्रकाशित हुआ था। (देखें इस संस्करण के पृष्ठ २९ पर मेरी पाद टिप्पणी क्र. ४३)। मेरे ऐसे ही लेखों से प्रभावित होकर वेद संस्थान नई दिल्ली ने सर्वप्रथम भाद्रपद शुक्ल ९ संवत् २०४३ वि० तदनुसार शुक्रवार १२ सितम्बर, १९८६ ई० को ऋषि दयानन्द का जन्मदिन अपने यहाँ मनाया जिसमें आमन्त्रित होकर सार्वदशिक आर्य प्रतिनिधि सभा के प्रधान स्वामी आनन्दबोध सरस्वती भी पधारे थे। इसी समय उनसे वेद संस्थान द्वारा आर्यजगत् में व्यापक स्तर पर स्वामी जी का जन्मदिन मनाने का अनुरोध किया गया था। इसके फलस्वरूप ही आर्यजगत् में ऋषि का जन्मदिन मनाने की परिपाटी चली थी।
जब हमें पं० श्रीकृष्ण शर्मा द्वारा प्रस्तुत की गई जन्मकुण्डली मिली तो मैंने पहले उसे भी भाद्रपद शुक्ल ९ संवत् १८८१ वि० (चैत्री संवत्) की ही मानकर उसे दिल्ली के ज्योतिषी श्री कृष्णकुमार जोशी के पास परीक्षणार्थ भेजा। तब उन्होंने उसे देखकर उसे भाद्रपद शुक्ल ९ संवत् १८८१ (गुजराती) अर्थात् १९-२० सितम्बर, १८२५ ई० का होना मुझे बताया था, जैसा कि पं० श्रीकृष्ण शर्मा ने पहले से ही अपने विवरण में लिख रक्खा था। इससे उसकी सत्यता में मुझे कोई सन्देह नहीं रह गया था। वैसे बाद में मैंने उसे ग्रेटर नोएडा के आर्ष पञ्चाङ्गकर्ता आचार्य दार्शनेय लोकेश जी को भी भेजा जो पहले उसे सन् १८२४ ई० के सन्दर्भ में गलत बता चुके थे, पर उन्होंने इसे सन् १८२५ ई० के सन्दर्भ में पूर्ण सत्य पाया जिससे उन्होंने इस वर्ष के अपने पञ्चाङ्ग में भी उसे स्थान दे दिया है।
इस प्रकार १८२४ ई० की २ सितम्बर को पड़ने वाली भाद्रपद शुक्ल ९ की तिथि से ऋषि की २१ वर्ष की आयु भी २ सितम्बर, १८४५ ई० को ही पूरी होती थी और इसके आगे अगले छः मासों- आश्विन, कार्तिक, अगहन, पौष, माघ और फाल्गुन तक भी अर्थात् ऋषि के जीवन के २२वें वर्ष में भी चैत्री संवत् १९०२ ही बना रह रहा था, इसीलिए मैंने तब उनके संवत् १९०२ वि० में ही गृह त्याग की बात लिखी थी जैसा कि आर्यसमाज कोलकाता के शिलालेखादि कतिपय स्थलों पर अब तक भी लिखा हुआ मिल रहा है। अब मैंने इसमें परिर्वतन पिछले वर्ष अपनी उक्त शीर्षक ३६ पृष्ठीय पुस्तक लिखते समय स्वयं ही किया है, न कि शास्त्री जी की किसी आलोचना से बचने के लिए मैंने ऐसा किया है।
शास्त्री जी की आपत्ति ७ : साथ ही महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि १९०३ विक्रम संवत् (चैत्री) न मानकर कार्तिकी संवत् १९०३ में गृह त्याग वर्ष स्वामी जी को अभीष्ट है, इसमें क्या प्रमाण है? १९०३ विक्रम संवत् (चैत्री) मानकर ही स्वामी जी के सायला और कोटकांगड़ा में क्रमशः १ मास और ३ मास की निवास अवधि संगत हो सकती है।
हमारा उत्तर-७ : मैंने कब कहा कि ऋषि के गृह-त्याग का संवत् १९०३ चैत्री है।
ऋषि जब तक गुजरात से बाहर निकल कर उत्तर भारत के किसी स्थान तक नहीं पहुँच जाते हैं, तब तक उनके द्वारा उल्लिखित समस्त संवत् ही गुजराती परम्परा के कार्तिकी संवत् ही माने जाएँगे। सो २० सितम्बर, १८२५ ई० (भाद्रपद शुक्ल ९) को जन्मे ऋषि दयानन्द के जीवन के जब २१ वर्ष आगे ३१ अगस्त, १८४६ ई० (गुजराती संवत् १९०२ भाद्रपद शुक्ल ९ को) पूरे हो गए तब अगले ५१ दिनों के बाद ही कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा से वहाँ की परम्परानुसार गुजराती संवत् १९०३ स्वत: ही आ गया था जब उन्होंने गृह त्याग किया था। सायले में एक मास और कोटकाँगड़े में ऋषि ने अपनी ठहरने की अवधि जब स्वहस्त से कहीं तीन मास लिखी ही नहीं है जैसा कि हम पहले ही बता चुके हैं तो हम पर बाहर से आरोपित इस बात को लेकर उनको मिथ्यावदी सिद्ध करने का लाञ्छन नहीं लगाया जा सकता।
शास्त्री जी की आपत्ति-८ : स्वामी जी ने १९०३ विक्रमी संवत् (चैत्री) को ही लक्ष्य कर लिखा है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण स्वामी जी की आत्मकथा का यह वक्तव्य है- “संवत् १९१२ विक्रम समाप्त हुआ। १९१३ विक्रम में अगले पाँच मास में कानपुर वा प्रयाग के मध्यवर्ती अनेक प्रसिद्ध स्थान मैंने देखे। भाद्रपद के आरम्भ में मिर्जापुर पहुँचा। वहाँ एक मास से अधिक विन्ध्याचल अशोल जी के मन्दिर में निवास किया। आश्विन के आरम्भ में काशी पहुँचा।” जाहिर है कि चैत्र मास के पाँच मास बाद भाद्रपद मास आता है। ऋषि विक्रम १९१३ के भाद्रपद मास में मिरजापुर पहुँचे। वहाँ एक मास से अधिक विन्ध्याचल में रहकर आश्विन के प्रारम्भ में काशी पहुँचे। यदि ऋषि को अपनी आत्मकथा में कार्तिकी संवत् अभीष्ट होता तो ऐसा लेखन वे न करते। क्योंकि कार्तिक के पाँच मास बाद भाद्रपद प्रारम्भ नहीं होता।
हमारा उत्तर- ८ : हमारे द्वारा सम्पादित और प्रकाशित ऋषि के अपना जन्मचरित्र के अनुसार यह अंश उनकी आत्मकथा का तृतीय भाग है जिसका मूल हस्तलेख अद्यावधि अप्राप्त है। अतः यहाँ जो कुछ उधृत किया जा रहा है वह उनकी थ्योसोफिस्ट पत्रिका में अँग्रेजी में छपे लेख का आर्यभाषा में अनुवादमात्र है। इसके अनुसार “तदनन्तर श्रङ्गीरामपुर से आगे बढ़कर जब मैंने छावनी के पूर्व की सड़क से कानपुर में प्रवेश किया, तब विक्रमाब्द समाप्त हो रहा था। अगले पाँच महीनों में कानपुर और इलाहाबाद के मध्यवर्ती अनेक स्थानों पर गया। भाद्रपद के प्रारम्भ में मिरजापुर आया, जहाँ विन्ध्याचल अशूलजी के स्थान(मन्दिर, समाधि, वेदी) के निकट प्राय: एक महीने तक रहा। फिर आश्विन के आरम्भ में बनारस पहुँचकर (वरुणा एवं गङ्गा के सङ्गम पर स्थित) एक गुफा में मैंने डेरा डाला जो उस समय ब्रह्मानन्द सरस्वती के स्वामित्व में थी। ”
इस प्रकार स्वामी जी जब गङ्गातट पर भ्रमण करते हुए कानपुर पहुँचे तो उन्होंने देखा कि लोग अपने पिछले संवत् की समाप्ति पर अगले नए संवत् के आगमन की प्रतीक्षा कर रहे हैं, अतः उन्होंने उत्तर भारत के कानपुर में पहुँचकर वहाँ प्रचलित चैत्री संवत् का ही यहाँ प्रयोग किया, इसमें अस्वाभाविक क्या है? क्या वे तब वहाँ अप्रचलित किन्तु अपनी जन्मभूमि गुजरात में प्रचलित गुजराती संवत् का प्रयोग करते और बताते कि अभी उसके आने में सात मास का समय शेष है !
शास्त्री जी की आपत्ति ९ : वस्तुस्थिति यह है कि श्रीकृष्ण शर्मा और आदित्यमुनि दोनों ही स्वामी जी को मिथ्यावादी मानते हैं, फर्क केवल यह है कि श्रीकृष्ण शर्मा जी गृह त्याग चैत्री संवत् १९०२ विक्रमी में मानते हैं। इस स्थल पर श्रीकृष्ण शर्मा स्वामी जी को मिथ्यावादी बतलाते हैं। पहले आदित्यमुनि भी ऐसा ही मानते थे। मेरी आलोचना के बाद उन्होंने स्वामी जी की आत्मकथा में १९०३ विक्रम संवत् का कार्तिक शुक्ला से प्रारम्भ होने वाला संवत् मानकर किसी प्रकार संगति लगाने का प्रयास किया किन्तु उनके इस प्रयास से दूसरे स्थल पर कोटकाँगड़ में ऋषि के निवास की अवधि तीन मास नहीं बन सकती। अतः इस स्थल पर आदित्यमुनि के अनुसार स्वामी जी का लेखन मिथ्या हो गया!
हमारा उत्तर- ९ : पं० श्रीकृष्ण शर्मा को ऋषि की आत्मकथा के उनके सामने प्रस्तुत हुए विवरणों के आधार पर संगति लगाने के लिए विवशतः जो लिखना पड़ा, उसमें उनका उतना अपराध नहीं है जितना अपराध ऋषि से पूना में सुने हुए विवरणों की गलत रिपोर्टिंग करने वाले प्रवचन लेखकों का है। मैंने तो अब ऋषि की आत्मकथा के १९७५ ई० में प्राप्त हस्तलेखों के अनुसार सब कुछ सही-सही कर दिया है, इसके लिए शास्त्री जी को हमारा धन्यवादी होना चाहिए, न कि अपनी गलत जानकारी के आधार पर अब भी हमें ही मिथ्यावादी ठहराना चाहिए।
शास्त्री जी की आपत्ति १० : ऋषि दयानन्द उत्तर भारत में होने पर उत्तर भारतीय संवत् और दक्षिण भारत में होने पर दक्षिण भारतीय गुजराती संवत् का ही अपने पत्र व्यवहारादि में उल्लेख करते थे। यदि यह माना जाए तब तो आत्मकथा की तीन किश्तों को लिखकर भेजने के समय वे उत्तर भारत के बरेली नगर में थे। अत: आत्मकथा में विक्रम संवत् उत्तर भारत में प्रचलित चैत्री विक्रम संवत् ही है, दक्षिण भारतीय गुजराती संवत् नहीं।
हमारा उत्तर १० : ऐसा लिखते हुए शास्त्री जी पत्र-व्यवहार करने और आत्मकथा लिखने में अन्तर नहीं कर सके। आत्मकथा एक प्रकार का इतिहास है जिसमें घटनाओं के सन्-संवत् वही लिखे जाते हैं जिनमें वे घटनाएँ घटित होती हैं। जबकि पत्र व्यवहार में उनके लेखन का वर्तमान दिनाँक वा तिथि ही अङ्कित की जाती है। जैसे ऋषि दयानन्द ने अपने आत्मचरित्र की प्रथम किश्त अपने जन्मदिन पर ही लिखकर उसे अगले दिन २७ अगस्त, १८७९ ई० (भाद्रपद शुक्ल ११, सं० १९३६) को मुम्बई में अपने मैंनेजर मुंशी समर्थदान के पास भेजी थी। लेकिन अपनी आत्मकथा में उन्होंने विभिन्न घटनाओं से सम्बन्धित वर्ष वे ही दिए हैं जो उन्हें पहले से स्मरण थे। यथा जन्म वर्ष और गृह त्याग वर्ष। इसी प्रकार मुम्बई में आर्यसमाज की स्थापना करके अगले दिन जो पत्र ऋषि दयानन्द ने पं० गोपालराव हरिदेशमुख को लिखा था उसमें तिथि ‘संवत् १९३१ मिति चैत्र शुद्ध ६ रविवार’ लिखी थी जो उत्तर भारत की तब चैत्र शुक्ल ६, संवत् १९३२ वि० (सन् १८७५ ई० ) की तिथि थी।
शास्त्री जी की आपत्ति ११ : हम पूर्व में यह दिखा आए हैं कि गृह-त्याग का विक्रम संवत् १९०३, चैत्री विक्रम संवत् १९०३ मानकर ही संगत होता है दक्षिण गुजराती कार्तिकी संवत् मानकर नहीं। यह भी नहीं माना जा सकता कि स्वामी जी ने अपना जन्म संवत् १८८१ तो विक्रमी कार्तिकी संवत् के अनुसार लिखा और गृह-त्याग संवत् १९०३ उत्तर भारतीय चैत्री संवत् को मानकर लिखा। क्योकि अर्धजरतीय न्याय वाली और घालमेलवाली उत्तरी और दक्षिणी प्रयोग ऋषि क्यों करते?
हमारा उत्तर- ११ : यह खामख्याली तो शास्त्री जी ही पाले हुए हैं क्योंकि उन्हें गृह त्याग के बाद सिद्धपुर के मेले में ऋषि की पहुँच पर्यन्त चार साढ़े चार मास तक स्वामी जी को सायले और कोटकाँगड़े में रोककर रखना है जबकि मैंने इन अवधियों का विद्यमान न होना ही ऋषि के हस्तलेख से प्रमाणित कर दिया है। तब हमारे लिए इस पूरे मार्ग में लगने वाला समय १०-१२ दिन से अधिक का नहीं हो सकता। हमने ऋषि की आत्मकथा में आरम्भ से लेकर गृह-त्याग तक एकमात्र गुजराती कार्तिकी संवत् ही माना है अर्थात् ऋषि जन्मे भी गुजराती संवत् के अनुसार ही १८८१ में थे और उन्होंने गृह त्याग भी गुजराती संवत् १९०३ में ही किया था जो उनकी २१ वर्ष की आयु पूरी होने के ५१ दिन बाद ही आरम्भ हो रहा था।
शास्त्री जी की आपत्ति १२ श्री मीमांसक जी ने यह कहीं नहीं लिखा है कि ऋषि की आत्मकथा में संवत् का उल्लेख दक्षिणी गुजराती संवत् के अनुसार किया है। उन्होंने अपनी पुस्तक महर्षि दयानन्द सरस्वती का भ्रातृवंश और स्वसृवंश में पृष्ठ १५ पर स्पष्ट लिखा है कि उनका जन्म संवत् १८८१ के अन्त में हुआ था। यह चैत्री विक्रम संवत् १८८१ का ही संकेत है।
हमारा उत्तर- १२ : भले ही मीमांसक जी ने यह बात चैत्री संवत् १८८१ को ध्यान में रखकर ही लिखी हो, पर यह कार्तिकी संवत् १८८१ पर भी पूर्णतया लागू हो रही है क्योंकि ऋषि के जन्मदिन (भाद्रपद शुक्ल ९) के ५१ दिनों के बाद ही प्रस्तुत गुजराती संवत् की समाप्ति होकर अगला गुजराती संवत् कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा से आरम्भ हो जाता है।
शास्त्री जी की आपत्ति १३ : ऋषि की आत्मकथा में लिखित संवत् की संगति कोई भी व्यक्ति दक्षिणी गुजराती संवत् मानकर नहीं लगा सकता, यह मेरी चुनौती है। अच्छा तो यह रहेगा कि आदित्यमुनि मेरी चुनौती स्वीकार कर कहीं भी दिल्ली, गुरुकुल रेवली (सोनीपत) या परोपकारिणी सभा, अजमेर में मुझसे शास्त्रार्थ कर लें। दोनों पक्षों के वक्तव्य टेप कर लिए जाएँ और बाद में पुस्तकाकार प्रकाशित कर देश के आर्य विद्वानों और इतिहासज्ञों से सम्मति माँग ली जाए, दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा। क्या आदित्यमुनि को मेरी चुनौती स्वीकार है?
हमारा उत्तर- १३ : वैसे तो यह विषय शास्त्रार्थ (शास्त्र के अर्थ करने का) है ही नहीं। फिर भी शास्त्री जो को यदि इसका ही चस्का लगा हुआ हो तो समझो उन्होंने अपना वक्तव्य परोपकारी पाक्षिक पत्र के अप्रैल द्वितीय २०१९ ई० के अङ्क पृष्ठ-२० से २७ पर रिकार्ड करवा दिया है। अब परोपकारी के सम्पादक महोदय से मेरा भी निवेदन है कि वे मेरा यह आलेख (वक्तव्य) भी आद्यन्त पर्यन्त अगले किसी अङ्क में मुद्रित और प्रकाशित करके * और इन दोनों को ही एक जिल्द में बँधवाके शास्त्री जी की इच्छानुसार देश के सभी आर्य विद्वानों और इतिहासज्ञों को उनकी सम्मति देने के लिए स्वयं परोपकारिणी सभा भेज दे और निर्णय प्राप्त कर ले।
शास्त्री जी की आपत्ति-१४ : ऋषि की जन्मकुण्डली की बात ही गप्प है। यह सब श्रीकृष्ण शर्मा की करामात है। ऋषि जीवनी को विकृत करने वाले वे ही लोग हैं जो अपनी प्रसिद्धि के लिए असत्य और कपोल-कल्पनाओं का सहारा लेते हैं। ऐसे कुछ लोगों के नाम ये हैं- (१) जैनी जियालाल (दयानन्द छल-कपट दर्पण) (२) टहलराम गिरधारी दास (विश्वासघात) (३) मेधार्थी या मेधारथी स्वामी (४) पं० लाभशङ्कर शास्त्री (५) श्रीकृष्ण शर्मा (६) पं० दीनबन्धु वेदशास्त्री और आदित्यपाल सिंह यां आदित्यमुनि। आदित्यमुनि जिस श्रीकृष्ण शर्मा द्वारा प्रस्तुत जन्मकुण्डली की बात करते हैं, वे महागप्पी व्यक्ति थे।
हमारा उत्तर- १४ : ऋषि की जन्मकुण्डली गप्प क्यों है? क्या ऋषि के माता-पिता आर्यसमाजी थे जो उन्होंने अपने ज्येष्ठ पुत्र की (जो बाद में आर्यसमाज का संस्थापक बना) जन्मकुण्डली ही नहीं बनवाई थी? यदि वे आर्यसमाजी थे तो वे मूर्तिपूजा (शिवलिङ्गपूजा) क्यों करते थे? यदि आर्यसमाज टंकारा का भूतपूर्व मंत्री और आर्यमिश्नरी पं० श्रीकृष्ण शर्मा महागप्पी व्यक्ति थे तो क्या मैं यह न मान लूँ कि आर्यसमाजों के सभी मन्त्री और प्रचारक भी गप्पी ही होते हैं। इनमें से कुछ को मैंने नहीं देखा है, पर जिन पर मैंने काम किया है उस काम के लिए मैं पुरस्कृत तक हो चुका हूँ और लखनऊ (आर्यमित्र), कोलकाता (आर्य संसार) तथा दिल्ली (आर्यजगत्) के आर्यपत्र मुझ पर अपने-अपने सम्पादकीय तक लिखकर मेरा प्रशस्ति-गान कर चुके हैं और आप स्वयं (ज्वलन्तकुमार शास्त्री) भी हमें आर्य सम्पादकाचार्य के पद से एक लेख लिखकर सम्मानित कर चुके हैं। (द्रष्टव्य- आर्यसेवक, नवम्बर, २००४, पृष्ठ-२)
जिनकी जन्मकुण्डलियाँ गलत थीं, उनकी आलोचना मैं स्वयं अपनी ३६ पृष्ठीय पुस्तिका में कर चुका हूँ और जो कुण्डली सही है वह उसके जानकार दो ज्योतिषयों से प्रमाणित है। खेद है कि शास्त्री जी स्वयं तो इस विषय में सर्वथा कोरे ही हैं पर अन्यों को प्रमाणपत्र बाँट रहे हैं!
शास्त्री जी की आपत्ति १५ : श्रीकृष्ण शर्मा ने अपनी पुस्तक ‘महर्षि दयानन्द (मूलशंकर) सरस्वती का वंश परिचय’ के प्रकाशनादि का समय इस प्रकार लिखा है- दयानन्दाब्द १४१, विक्रम संवत् २०२०, ईस्वी सन् १९६४ । २०२० विक्रम संवत् और १९६४ ई० में श्रीकृष्ण शर्मा द्वारा अभिमत दयानन्दाब्द १४१ कैसे होगा?
हमारा उत्तर- १५ : १९६४ ई० में गुजराती विक्रम संवत् १९६४ + ५६ = २०२० होगा और दयानन्द के १८२५ ई० के सितम्बर मास में जन्मे होने से सितम्बर तक १९६४-१८२५ = १३९ वर्ष होते हैं। यदि वह पुस्तक सितम्बर मास के बाद में छपी हो तो उसका दयानन्दाब्द १४० हो सकता है जैसा कि उन्होंने अपनी एक अन्य पुस्तक ‘महर्षि दयानन्द स्मारक का इतिहास’ में छपवाया है। हो सकता है कि तब तक उन्हें ऋषि की जन्मकुण्डली न मिली हो, अत: उन्होंने उससे पूर्व पं० अखिलानन्द शर्मा द्वारा उनके ग्रन्थ दयानन्द दिग्विजय के आधार पर दयानन्दाब्द १९६४-१८२४ = १४० +१ = १४१ छपवा दिया हो।
शास्त्री जी की आपत्ति १६ : श्रीकृष्ण शर्मा द्वारा प्रस्तुत जन्कुण्डली कपोल कल्पित और अप्रमाणिक है। इसके निम्न हेतु हैं-
(अ) पं० उदयवीर शास्त्री – यह कुण्डली राजकोट निवासी पं० श्रीकृष्ण शर्मा को कहाँ से प्राप्त हुई ?
(ब) डॉ० भवानीलाल भारतीय– परन्तु उन्होंने यह नहीं बताया कि यह कुण्डली उन्हें कहाँ से प्राप्त हुई?
हमारा उत्तर- १६ : जब पं० श्रीकृष्ण शर्मा ने यह स्पष्ट लिख दिया है कि ‘महर्षि (मूलशङ्कर) की जो जन्मकुण्डली उनके परिवारिक जनों से प्राप्त हुई है, उसके अनुसार महर्षि की जन्मतिथि भाद्रपद शुक्ल नवमी ही है। तो यह व्यर्थ की बात क्यों की जा रही है? आर्य वही होता है जो कभी झूठ नहीं बोलता। पं० श्रीकृष्ण शर्मा भी आर्यसमाज टंकारा के मंत्री होने से आर्य ही थे। अतः उनके कथन पर विश्वास किया जाना चाहिए।
शास्त्री जी की आपत्ति १७ : स्वामी दयानन्द का जन्म कार्तिकी संवत् के अनुसार १८८१ विक्रमी में भाद्रपद शुक्ला नवमी अर्थात् उत्तर भारत में प्रचलित विक्रमी संवत् (चैत्र शुक्ला से प्रारम्भ होने वाला) १८८२ विक्रमी में भाद्रपद शुक्ला नवमी तदनुसार २० सितम्बर, १८२५ ई० को हुआ था। इस प्रकार ऋषि दयानन्द की आत्मकथा में प्रयुक्त संवत् का तात्पर्य कार्तिकी संवत् से समझना चाहिए।
हमारा उत्तर- १७ : निःसन्देह ऋषि के जन्म से लेकर उनके गृह-त्याग की समस्त घटनाओं के लिए गुजराती संवत् ही लेना चाहिए जैसा कि मैंने अब लिया है। मुझसे पहले पं० श्रीकृष्ण शर्मा आदि ने यदि पूना-प्रवचनों की गलत रिपोर्टिंग के आधार पर कुछ अन्यथा लिया था तो वह अब मान्य नहीं है। वैसे ऋषि के परिवारी जनों के नामों का उनकी जन्मकुण्डली से कोई नाता नहीं है, इसलिए हम शास्त्री जी की इस विषयक व्यर्थ की आपत्तियों को यहाँ निरस्त करते हैं। हम तो इतना ही जानते हैं कि ऋषि की बहिन के वंशज अब बांकानेर (राजकोट) के अलावा छत्तीसगढ़ के रायपुर में रह रहे हैं जिनके पास उनकी वंशावलियाँ उपलब्ध हैं। छत्तीसगढ़ में उनका पता है श्री प्राणशङ्कर रावल, गली नं० ४, फाफाडीह नाका, रायपुर ४९२०००९ (फोन नं० ५२७३८८३)।
इनसे हमारा वर्ष १९९६ ई० के आरम्भ में पत्राचार और फोन पर सम्पर्क हुआ था। आगे भी उन्होंने हमसे एक बार और सम्पर्क किया था। (देखें मेरे ग्रन्थ ‘सिंहावलोकन’ का पृष्ठ ५९६ और इससे आगे के विवरण)
शास्त्री जी और कुछ अन्य आर्यविद्वान् अपनी नाक ऊँची रखने के लिए पं० श्रीकृष्ण शर्मा जैसे एक आर्यसमाज के मंत्री को गप्पी और षड्यन्त्रकारी लिखकर दरअसल यही प्रचारित कर रहे हैं कि सभी आर्यसमाजी प्रायः गप्पी और षड्यन्त्रकारी ही होते हैं। ऐसे में हम यह क्यों न मान लें कि स्वयं शास्त्री जी और प्रो० दयाल जी भाई आदि भी गप्पी और षड्यंत्रकारी ही हैं।
शास्त्री जी की आपत्ति १८ : ऋषि-जीवन से सम्बन्धित नाना प्रकार की गप्पों को उद्घाटित करने का शौक श्रीकृष्ण शर्मा के स्वभाव में रहा है। इसी परम्परा में उन्होंने ऋषि दयानन्द की काल्पनिक जन्मकुण्डली स्वयं बनाकर या किसी से बनवाकर ऋषि जीवनी में प्रक्षेपित करने का षड़यंत्र रचा और वह भी तब जब सार्वदेशिक सभा की धर्मार्यसभा ने उनसे मिलकर उनकी काल्पनिक बातों को न मानकर ऋषि दयानन्द की जन्मतिथि फाल्गुन कृष्णा दशमी १८८१ विक्रमी घोषित कर दी।
हमारा उत्तर- १८ : हम अपने इस लेख (वक्तव्य) के आरम्भ में ही यह बता आए हैं कि पं० श्रीकृष्ण शर्मा द्वारा प्रस्तुत की गई जन्मकुण्डली के अनुसार ही ऋषि की जन्मतिथि २० सितम्बर, १८२५ ई० अब ऋषि के वचनों पर कसने पर खरी उतर रही है, न कि सार्वदेशिक धर्मार्य सभा द्वारा मान्य जन्मतिथि १२ फरवरी, १८२५ ई०। इस बात को मेरे लेख- ‘आर्यसमाज अपने संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती का जन्मदिन ही गलत मना रहा है!’ में पढ़कर भी उस पर शास्त्री जी द्वारा अपनी कोई प्रतिक्रिया व्यक्त न करना ही यह दर्शाता है कि शास्त्री जी को अपनी गलती का ऐहसास हो चुका है, पर अब अपनी नाक ऊँची रखने के लिए वे व्यर्थ में ही इधर-उधर अपने हाथ-पैर मार रहे हैं। यदि पं० श्रीकृष्ण शर्मा को ऋषि की जन्मकुण्डली की सत्यता के प्रति जरा भी संशय रहा होता तो वे सार्वदेशिक सभा की धर्मार्य सभा से उन्हें अमान्य कर दिए जाने पर वे उसे प्रकाशित ही न करते जो हम जैसों को उसके प्रकाशन के २१ वर्ष बाद वह हाथ लग पाती और ५५ वर्ष बाद हम उस पर यहाँ विचार-विमर्श कर रहे होते।
शास्त्री जी की आपत्ति १९ : श्रीकृष्ण शर्मा की काल्पनिक जन्मकुण्डली के समान ही मोर्वी के सेठ की बही में सौगात भेजने की राशि का उल्लेख भी मिथ्या ही किया है। क्योंकि हम ऊपर निरूपित कर चुके हैं कि कि स्वामी जी की जन्मतिथि का वर्ष संवत् १८८१ है १८८२ नहीं। अतः १८८२ में स्वामी जी की छठी मनाने का प्रश्न ही नहीं उठता।
हमारा उत्तर- १९ : हम यह पहले ही बता चुके हैं कि स्वामी दयानन्द अपनी २१ वर्ष की अवस्था तक गुजरात में ही जन्मे और रहे और वहीं से उन्होंने अपनी २२वीं वर्ष की अवस्था में गृह त्याग किया था। इसलिए तब तक वे केवल गुजराती परम्परा के ही कार्तिकी संवत् से परिचित थे। अतः उनका जन्म वर्ष १८८१ संवत् और गृह-त्याग वर्ष १९०३ संवत् गुजराती संवत् ही है, भले ही कार्तिक मास के आरम्भ से उसमें और उत्तर भारतीय संवत् में एक वर्ष की वृद्धि होकर वह क्रमशः १८८२ और १९०४ हो जाता हो। केवल इसीलिए मोर्वी के सेठ के द्वारा सौगात न भेजने की बात करना निरी मूर्खता ही है। वैसे ही जैसे कोई कहे कि दयानन्द सरस्वती का जन्म भाद्रपद शुक्ल ९ संवत् १८८१ (गुजराती) में तो हुआ था, पर २० सितम्बर, १८२५ ई० को कोई दयानन्द पैदा नहीं हुआ था।
शास्त्री जी की आपत्ति २० : वस्तुत: सबसे पहले ऋषि की जाली जन्मकुण्डली ऋषि दयानन्द के निन्दक जियालाल जैनी ने बनाई या बनवाई और उसे अपनी पुस्तक ‘दयानन्द ‘छल कपट दर्पण’ (१८९४ ई०) में छापा। पं० अखिलानन्द ने ‘दयानन्द दिग्विजय’ काव्य (प्रकाशन वर्ष १९१० ई०) में यही तिथि मान ली। इनके बाद टहलराम गिरधारीलाल ने अपनी पुस्तक ‘विश्वासघात’ में (जो (१९३१ ई० में छपी) एक और कुण्डली छपवाकर इसी तिथि की वकालत की। इन्हीं सबसे प्रेरणा प्राप्त कर श्रीकृष्ण शर्मा ने भी ऋषि की एक दूसरी जन्मकुण्डली बनबाई और उसे १९६४ ई० में छापा। सारी कुण्डलियाँ अप्रामाणिक हैं, इन कुण्डलियों की चर्चा ऋषि दयानन्द की भगिनी प्रेमबाई के प्रपौत्र पोपटलाल कल्याणजी रावल ने कभी नहीं की।
हमारा उत्तर- २० : पं० अखिलानन्द शर्मा कविरत्न के पिता पं० टीकाराम शर्मा ऋषि दयानन्द के अनन्य भक्त और शिष्य थे। हो सकता है किसी प्रसङ्ग में ऋषि ने अपनी जन्मतिथि पं० टीकाराम शर्मा को बताई हो और अपने पिता से पं. अखिलानन्द शर्मा को विदित हुई हो जिसका उल्लेख उन्होंने अपने प्रसिद्ध दयानन्द दिग्विजय नामक काव्य ग्रन्थ में किया है। उल्लेखनीय है कि पं० टीकाराम शर्मा ने अपने गृहस्थ जीवन के प्रथम फल के रूप में शिशु अखिलानन्द को ऋषि के चरणों में समर्पित कर दिया था। बाद में इन्हीं शर्मा जी ने बड़े भक्तिभाव से ऋषि का संस्कृत काव्य में जीवन चरित्र ‘दयानन्द दिग्विजय’ लिखा। चूँकि पं० अखिलानन्द शर्मा उत्तर भारतीय थे अतः उन्होंने संवत् १८८१ (चैत्री) का पञ्चाङ्ग ही कहीं से प्राप्त कर दयानन्द की जन्मतिथि उसके आधार पर २ सितम्बर, १८८१ गुरुवार (भाद्रपद शुक्ल ९) लिख दी। पं० केशवराम पण्ड्या भी ऋषि के समकालीन एक गुजराती भक्त सञ्जन थे। उन्होंने भी ऋषि दयानन्द का जीवन चरित्र लिखा था। जो आर्यसमाज गणेशगंज, लखनऊ में रक्खा है। इसमें भी ऋ० द० की जन्मतिथि भाद्रपद शुक्ल ९, गुरुवार संवत् १८८१ वि० ही दी हुई है। इसे ऋषि के पत्रों के गवेषक स्व० मामराज सिंह ने देखा था। इन्हीं के अनुकरण में जियालाल जैनी और टहलराम गिरधारी लाल ने भी अपनी-अपनी अन्य प्रकार की ही कुण्डलियाँ प्रस्तुत की हैं जो दयानन्द को बदनाम करने के लिए कापड़ी जाति के रामपुरा ग्राम में जन्मे किसी शिवभजन नामक व्यक्ति की हैं। पर ये सभी कुण्डलियाँ १८२४ ई० के भाद्रपद शुक्ल ९ की हैं, जबकि पं० श्रीकृष्ण शर्मा द्वारा प्रस्तुत की गई जन्मकुण्डली एक वर्ष बाद १८२५ ई० के भाद्रपद शुक्ल ९ की है, जो स्वयं दयानन्द के कथनों से मेल खाती है, जैसा कि हम आरम्भ में ही बता चुके हैं। अतः इनमें से यही एक सत्य और मान्य है।
शास्त्री जी की आपत्ति-२१ : यही हाल जन्मकुण्डली की चर्चा करने वाले जियालाल से लेकर आदित्यपाल तक ऋषि के द्रोहियों और तथाकथित भक्तों का है। वेदों पर आक्षेप और निन्दा करते-करते पेट भरा नहीं है तो ऋषि की प्रामाणिक जन्मतिथि को झुठलाने के लिए आदित्यपाल जी पिल पड़े। यदि साहस हो तो इस विषय पर शास्त्रार्थ समर में उतरिये।
हमारा उत्तर- २१ : २००६ ई० से पूर्व वेदप्रचारिणी सभा नागपुर द्वारा आयोजित किए गए कुछ कार्यक्रमों में स्वयं सम्मिलित होकर और उनसे उत्साहित होकर डॉ॰ ज्वलन्तकुमार शास्त्री ने उसके सचिव श्री उमेश राठी के सामने यह प्रस्ताव किया कि वे वेदों के सम्बन्ध में उठने वाले विभिन्न प्रश्नों का उत्तर देने के लिए नागपुर में एक विद्वन्मिलन आयोजित करें जिसमें वे भी उत्तर देने के लिए उपस्थित होंगे। तब श्री उमेश राठी ने मुझसे अनुरोध किया कि मैं वेदों के सम्बन्ध में कुछ प्रश्न तैयार कराके उनके पास भेजूँ। तब मैंने भोपाल के स्व० पं० वी० उपेन्द्रराव से वेद विषयक सौ प्रश्न तैयार कराके और उन्हें छपवाकर वेद प्रचारिणी सभा के माध्यम से आर्यसमाज के ४०-४५ वेद के विद्वानों के पास अक्टूबर, २००६ ई० में भिजवा दिए । इन विद्वानों से निवेदन किया गया था कि वे पहले यह बताएँ कि वे किन-किन प्रश्नों का उत्तर देंगे। इस प्रकार सभी सौ प्रश्नों के उत्तरदाता विद्वान् मिल जाने पर यह कार्यक्रम नागपुर में आयोजित किया जाएगा। पर दो-तीन विद्वानों के अलावा किसी ने भी इसके लिए अपनी सहमति नहीं दी और न सभी सौ प्रश्नों के उत्तरदाता विद्वान् ही मिले जिससे यह कार्यक्रम अन्ततः आयोजित नहीं हो सका। इनमें इस कार्यक्रम के प्रस्तावक डॉ० ज्वलन्तकुमार शास्त्री भी सम्मिलित हैं जिन्होंने फिर लौटकर इस आयोजन को करने की खबर तक नहीं ली। इस प्रकार वे इस शास्त्रार्थ समर से भगोड़े (रन्छोड़) ही साबित हुए। वे अपनी यही खीज मिटाने के लिए अब हमें इस शास्त्रार्थ समर में उतरने का आह्वान कर रहे हैं! सो मैं तो इस समर में कूद ही पड़ा हूँ। उनका ही साहस हो तो वे मेरे इन उत्तरों को परोपकारी में छपवाकर और अपने पूर्व के परोपकारी पत्र में प्रकाशित लेख को विद्वानों को एक साथ भिजवाकर उनका निर्णय प्राप्त कराकर मुझे परोपकारिणी सभा के मंत्री श्री ओम् मुनि वानप्रस्थ के हस्ताक्षरों से अवगत करा दें।
परोपकारी पत्र मात्र में प्रकाशनार्थ उसके सम्पादक डॉ० सुरेन्द्रकुमार, परोपकारिणी सभा, केसरगंज, अजमेर-३०५००१ को प्रेषित् ।
संलग्न एक भोपाल, दिनाङ्क ३ मई, २०१९ ई०
( ९ मई को यह लेख अपने गन्तव्य पर पहुँच गया)
आदित्यमुनि वानप्रस्थ
मो. 9425605823
- मेरा यह लेख परोपकारी के सम्पादक ने नहीं छापा जिससे हम पर यह स्पष्ट हो गया कि ऋषि की उत्तराधिकारिणी सभा तक ने भी उनके सत्य को ग्रहण करने और असत्य को छोड़ देने में सदैव तत्पर रहने की सीख को तिलांजलि दे दी है।- आदित्य मुनि वानप्रस्थ
नई खोज कितनी प्रमाणिक है? – इस दृष्टिकोण से लेख को पढ़ना अवश्य चाहिए। लेखक के मत से उगता भारत का सहमत होना अनिवार्य नहीं है , परंतु उनके अनुसंधान पर विचार अवश्य होना चाहिए ।ऐसी हमारी मान्यता है : समाचार संपादक