भारतवर्ष में गुरु के प्रति श्रद्धा रखना प्राचीन काल से एक संस्कार के रूप में मान्यता प्राप्त किए हुए हैं। संसार में आने पर सबसे पहला गुरु माता होती है जो हमारे पिता से भी हमारा परिचय कराती है ।संसार के सभी संबंधों का ज्ञान हमें माता से होता है । दूसरा गुरु पिता होता है । पिता ही हमें आचार्य के विद्यालय में या गुरुकुल में छोड़ कर आता है। आचार्य के गुरुकुल में विद्यार्थी हाथों में समिधा लेकर जाता है । हाथों में समिधा का विशेष अर्थ है जैसे समिधाओं के भीतर अग्नि छुपी होती है और वह लौकिक अग्नि के संपर्क में आकर प्रज्वलित हो उठती है वैसे ही गुरु के संपर्क में आकर हम अपने भीतर की ज्ञान रूपी अग्नि को प्रज्वलित करते हैं। आचार्य का यही कार्य है। वह हमारे पहले स्वरूप को मिटाकर दूसरा स्वरूप प्रदान करता है अर्थात दूसरा जन्म प्रदान करता है। हमें द्विज बनाता है। आचार्य के गुरुकुल रूपी गर्भ से हमारा दूसरा जन्म होता है । इसीलिए गुरु को मृत्यु या यम कहते हैं। मृत्यु भी हमें दूसरा जीवन देती है और गुरु भी हमें दूसरा जीवन देता है।
नचिकेता के पिता ने जब नचिकेता से कहा था कि मैं तुझे मृत्यु को दूंगा तो उसका अभिप्राय भी यही था कि उन्होंने उसे गुरु के पास भेजने को कहा था। जहां से उसका दूसरा जन्म होना था। गुरु के गर्भ में 3 दिन रहने का अभिप्राय है कि हम त्रयी विद्या अर्थात ज्ञान कर्म और उपासना को प्राप्त हो जाते हैं।
जो गुरु हमें गांजा, चरस भांग पिलानी सिखाए और अज्ञान में धकेले वह गुरु नहीं होता। वह पाखंडी ढोंगी होता है ।जो समाज को पतन की अवस्था में ले जाता है। गुरु का अभिप्राय अज्ञान अंधकार को मिटाने वाला होता है, जो अज्ञान रूपी अंधकार को मिटाये वह गुरु है और जो उसमें हमें और भी अधिक धकेले वह कभी भी गुरु नहीं हो सकता। जो गुरु परम पिता परमेश्वर से ना मिला कर अपने आप को उसका दूत, अवतार या मध्यस्थ घोषित करता है और अपने आप को ही पारब्रह्म परमेश्वर मानने की शिक्षा अपने शिष्यों को देता है वह और भी अधिक पाखंडी होता है। ऐसे गुरुओं से बचने की आवश्यकता होती है। गुरु वही होता है जो अपने आप को परमपिता परमेश्वर के दिव्य ज्ञान का एक माध्यम मानकर विद्यार्थी के हृदय में उस परमपिता परमेश्वर के प्रति समर्पण और मिलन की आग को प्रज्वलित कर दें और फिर अपने आप पीछे हट जाए।
गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागू पाय ।
बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताए ।।
जो लोग कबीर दास जी के दोहे की यह व्याख्या करते हैं कि कबीर दास जी ने भी गुरु को परम पिता परमेश्वर से उत्कृष्ट माना है वह भी संसार के लोगों में गुरुडमवाद को फैलाने के लिए ऐसा कहते हैं। वास्तव में कबीर दास जी यहां पर केवल इस संशय में है कि यदि गुरु और परमात्मा एक साथ सामने आ जाएं तो पहले किसके चरण स्पर्श करूंगा ? क्योंकि परमपिता परमेश्वर तो सबका मालिक है ही परंतु उस सब के मालिक का परिचय कराने वाला गुरु है ,यहां पर उन्होंने यह नहीं कहा है कि सबसे पहले पूजनीय गुरु है। उनका आशय यहां पर गुरु के प्रति श्रद्धा को व्यक्त करना है और गुरु के प्रति श्रद्धा प्रकट करना वैदिक दृष्टिकोण है।
परमपिता परमेश्वर ही परम गुरु है । जिसे पंजाबी में अकाल पुरुष या अकाल पुरख कहा जाता है वह अकाल पुरख जो काल के परे खड़ा है ऋग्वेद ने उसी को गुरुओं का गुरु माना है।
गुरु पूर्णिमा के पवित्र अवसर पर हम अपने उस गुरु के प्रति समर्पण और श्रद्धा व्यक्त करें जो हमें परमपिता परमेश्वर से मिलने का रास्ता बताता है। हमें ज्ञानी ध्यानी बनाता है और हमारे सभी स्वार्थों को त्यागने के लिए हमें प्रेरित करता है। साथ ही उस परम गुरु के प्रति श्रद्धा व्यक्त करें जिसने हमें जीवन दिया है और जो सारे संसार का सृजनहार है। पालनकर्ता है। संहारकर्त्ता है। उसके इन गुणों के कारण ही उसे हम ब्रह्मा विष्णु और महेश कहते हैं। वह परम गुरु अकाल पुरख कोई मनुष्य नहीं है जैसा कि कुछ लोगों ने उसकी मूर्ति या आकृति बना ली है।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक उगता भारत