क्यों है हमारी स्वाधीनता का रक्षक राजा दाहिर सेन?
दाहिर सेन को स्वतंत्रता सेनानी और भारतीय संस्कृति का रक्षक क्यों कहा जाए ? इस प्रश्न पर भी विचार करना बहुत आवश्यक है । क्योंकि कई लोगों को ऐसी भ्रांति हो सकती है कि हम ऐसा किसी पूर्वाग्रह से ग्रस्त होकर कह रहे हैं।
संस्कृति स्वाधीनता और वेद का ज्ञान ।
रक्षक दाहिर सेन था राजा वीर महान।।
हमारा मानना है कि राजा दाहिर सेन भारतीय स्वाधीनता संघर्ष के पहले ऐसे महान योद्धा हैं, जिन्होंने देश की स्वाधीनता और संस्कृति की रक्षा के लिए परिवार सहित अपना सर्वोत्कृष्ट बलिदान दिया था। उन्हें भारतीय स्वाधीनता का महान सेनानायक और संस्कृति रक्षक इसलिए माना जाना चाहिए कि उन्होंने भारतीय राजधर्म और राष्ट्र धर्म का निर्वाह करते हुए अपना बलिदान दिया था।
गायत्री मंत्र और राजधर्म
भारतीय राष्ट्र धर्म को भारत का गायत्री मंत्र भी स्पष्ट करता है।जिसमें कहा जाता है कि “हे परमपिता परमेश्वर ! आपका जाज्वल्यमान तेज जहाँ पापियों को रुलाता है , वहाँ अपने भक्तों, आराधकों, उपासकों के लिए आपका यह तेज आनंद प्रदाता है। ऐसे भद्र पुरुषों के लिए आपका तेज ही प्राप्त करने की एकमात्र वस्तु है। उनके ज्ञान – विज्ञान, धारणा – ध्यान की वृद्धि कर उनके सब पाप -ताप -संताप आपके तेज से नष्ट हो जाते हैं।”
गायत्री मन्त्र के केवल सांस्कृतिक और आध्यात्मिक अर्थ ही नहीं हैं बल्कि इसके सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को प्रोत्साहित करने वाले राजनीतिक व राष्ट्रपरक अर्थ भी हैं। इस बात को समझने के लिए हमें यह धय रखना चाहिए कि हमारे यहाँ राजा को ईश्वर का प्रतिनिधि माना जाता है। राजा को ईश्वर का प्रतिनिधि माने जाने का कारण है कि वह राजा के समान न्यायकारी और तेजस्वी होकर दुष्टों, पापाचारी, अत्याचारी, उपद्रवियों, उग्रवादियों ,आतंकवादियों आदि का विनाश करेगा और जो लोग विधि के शासन में विश्वास रखते हैं उनका कल्याण करेगा।
दंड वही पाते सदा जो करते अपराध।
सज्जनों की राजा सदा हरते रहे हैं व्याध।।
जैसे ईश्वर का जाज्वल्यमान तेज पापियों को रुलाता है वैसे ही राजा का भी तेज पापियों, उपद्रवियों, उग्रवादियों, समाजद्रोही, राष्ट्रद्रोही आदि को रुलाने वाला हो। सीधे रास्ते चलने वालों को जैसे ईश्वर कोई दंड नहीं देता बल्कि उन्हें पुरस्कार देता है ,और जैसे टेढ़े रास्ते चलने वालों को ईश्वर दंडित करता है वैसे ही राजा भी राज्य व्यवस्था के अंतर्गत विधि के शासन में विश्वास रखने वाले संयमित, संतुलित और सीधे चलने वाले लोगों को पुरस्कार देता है और जो इस व्यवस्था को भंग करते हैं या टेढ़े रास्ते चलते हैं, उन्हें राजा दंडित करता है।
ऐसी राजा से अपेक्षा की गई है कि वह अपने देश के लोगों की स्वाधीनता का रक्षक हो, भक्षक नहीं । वह अपने प्रजाजनों के अधिकारों की रक्षा के लिए संघर्ष करने वाला हो, संघर्ष से भागने वाला ना हो। कहने का अभिप्राय है कि यदि देश के निवासियों पर कोई विदेशी आक्रमण करता है या उनके अधिकारों का हनन करता है या उनकी स्वतंत्रता को भंग करता है तो राजा से अपेक्षा की जाती है कि वह ऐसे आततायी विदेशी आक्रमणकारी या किसी भी आतंकवादी को भी नष्ट कर दे। राजा से यह भी अपेक्षा की जाती है कि वह अपने देश के लोगों को अज्ञान के अंधकार से निकालकर ज्ञान के प्रकाश में ले जाने वाला हो। राजा को चाहिए कि वह अपने देशवासियों या प्रजाजनों को ज्ञानसंपन्न और विद्यासंपन्न बनाने के लिए गुरुकुलों, विद्यालयों और विश्वविद्यालयों की स्थापना कराए। जिससे लोग विद्यावृद्ध, ज्ञानवृद्ध और प्रत्येक प्रकार से अपने जीवन को समुन्नत करने की उत्कृष्ट भावना से भरे हुए हों।यहाँ पर अंधकार के कई अर्थ हैं।
ऐसे राजा का होना निरर्थक है
जिस देश के लोग सुख व समृद्धि से वंचित होकर दरिद्रता में जा फंसते हैं या किसी भी प्रकार के दु:ख दारिद्र्य में जीवन व्यतीत करते हैं, उसके राजा का होना भी निरर्थक होता है । लोगों के इस प्रकार की विषम परिस्थितियों में फंसने के लिए राजा को ही उत्तरदायी माना जाता है। क्योंकि राजा उस व्यवस्था का जनक और प्रतिपादन करने वाला होता है जिसके अन्तर्गत लोगों के दु:ख दारिद्रय मिटते हैं और उन्हें सुख समृद्धि पूर्ण जीवन जीने का प्रत्येक प्रकार का अवसर उपलब्ध होता है। इसलिए राजा का यह परम कर्तव्य अथवा राष्ट्र धर्म होता है कि वह अपने देश के लोगों की स्वाधीनता की रक्षा के साथ – साथ उनके दु:ख दारिद्रय को दूर करने के लिए भी सदैव जागरूक और क्रियाशील रहे।
वैदिक संस्कृति हिंसा, घातपात, रक्तपात, मारकाट और अत्याचार की विरोधी है। यही कारण है कि भारत के राजाओं ने कभी निरपराध लोगों पर हिंसा, घातपात या रक्तपात करने में विश्वास नहीं किया। इतना अवश्य है कि भारत के राजाओं ने हिंसा, घातपात, रक्तपात और मारकाट करने वाले लोगों का न केवल विरोध किया है बल्कि उनका सफाया करने के लिए भी हर सम्भव प्रयास किया है । ऐसे प्रयास को ही उन्होंने अपना राष्ट्र धर्म स्वीकार किया है। वैदिक धर्म की यह स्पष्ट मान्यता रही है कि जो राजा अपने इस राष्ट्र धर्म से दूर भागता है उसे राजा होने का अधिकार नहीं होता। हिंसा को हमारे यहाँ पर सम्पूर्ण दुर्गुणों की खान माना गया है। यही कारण है कि हमारे ऋषियों ने अहिंसा को सर्वोच्च प्राथमिकता दी है।
हिंसा खान है पाप की, अहिंसा में है पुण्य।
पुण्यमयी चिंतन करो, सब कुछ रहे अक्षुण्ण।।
भारत की ऋषि संस्कृति ने सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह आदि का विधान – प्रावधान भी अहिंसा को ही मजबूती देने के लिए किया है। हमने युगों पूर्व समाज की रचना की थी और मनुष्य के लिए ऐसा विधान किया था जिससे वह समाज का एक सार्थक प्राणी होकर अपना जीवन यापन कर सके । हमने समाज को काटा नहीं, समाज में आग नहीं लगाई और समाज के जीवन मूल्यों को नष्ट करने के लिए मारकाट की किसी भी बुराई को अपने यहाँ पनपने नहीं दिया। हमने सबके अधिकारों की रक्षा करना अपना कर्तव्य माना। कभी भी अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करने को उचित नहीं माना। अपनी संस्कृति की इसी महानता और पवित्रता के कारण हम एक महान समाज और महान राष्ट्र की स्थापना करने में सफल हो सके। संस्कृति की इस महानता और पवित्रता की सुरक्षा और संरक्षा करना देश के प्रत्येक नागरिक ने अपना कर्तव्य माना। ऐसे में किसी राजा से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वह संस्कृति के लिए स्पष्ट दिखने वाले खतरों से दूर भाग जाए या उनका सामना न करके पीठ फेर कर खड़ा हो जाए।
राजा दाहिर के व्यक्तिगत गुण
अब इन्हीं बातों को हम अपने नायक राजा दाहिर सेन पर लागू करके देखें । यदि हम ऐसा करते हैं तो निश्चय ही हमें राजा दाहिर सेन भारतीय स्वाधीनता और संस्कृति रक्षक की अपनी पवित्र भूमिका को बड़ी सफलता और सार्थकता के साथ निर्वाह करते हुए दिखाई देते हैं । उन्होंने अपने जीवन में जो कुछ भी किया वह माँ भारती की स्वाधीनता की रक्षा के लिए और संस्कृति की पवित्रता और महानता को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए अर्थात उसकी रक्षा करने के कर्तव्य भाव से प्रेरित होकर ही किया। भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और इतिहास की इन पवित्र मान्यताओं के दायरे में रखकर ही हमें अपने इतिहास के इस महानायक का मूल्यांकन करना चाहिए, न कि विदेशी इतिहासकारों की दृष्टि से ऐसा करना चाहिए।
निज नायकों को जो तोलते
विदेशियों के तर्क से ,
जो निज महानायकों का
अपमान करते कुतर्क से ।
न मानिए अपना उन्हें
हैं आस्तीन के सांप वे ,
स्वार्थहित परिचित नहीं जो
शत्रु और मित्र के फर्क से ।।
जब विदेशी आक्रमणकारी मोहम्मद बिन कासिम ने अपनी राक्षसी हुंकार भारत की सीमाओं पर भरी तो राजा दाहिर सेन उसी प्रकार अंगड़ाई लेने लगे जैसे शत्रु के पदचाप को सुनकर शेर अपनी मांद में अंगड़ाई लेने लगता है। जब शत्रु उनकी सीमाओं में प्रवेश कर गया तो उसे रोकने के लिए वह शेर की ही भांति उस पर टूट पड़े। वह एक वीर की भांति शत्रु से लड़ते रहे और इस बात की कोई चिंता नहीं की कि उन्हें युद्ध में प्राण भी गंवाने पड़ सकते हैं। उन्होंने देश और देश के सम्मान को आगे रखकर निर्णय लिया और इस बात में तनिक भी विलंब नहीं किया कि अब शत्रु के सामने यदि उसका भोजन बन कर भी कूदना पड़े तो कूदने में कोई संकोच नहीं होगा।
श्री कृष्ण जी का उपदेश और राजा दाहिर
श्रीकृष्ण जी अपने गीता उपदेश के अंत में अर्जुन को बताते हैं कि “अर्जुन ! अब तो मेरे उपदेश का अन्त ही आ गया है। अब तू इसका निचोड़ सुन ले और यह निचोड़ यही है कि तू अहंकार शून्य होकर, निष्काम होकर , निर्लिप्त और असंग होकर युद्घ के लिए तत्पर शत्रु पक्ष पर प्रबल प्रहार कर। क्योंकि ये लोग इस समय यहाँ पर भारत की सनातन संस्कृति के विरोधी होकर , उसके धर्म के विरोधी होकर और मानवता को तार-तार करने के उद्देश्य से प्रेरित होकर उपस्थित हुए हैं।
हे अर्जुन ! अपनी आत्मा को पहचान, उसका बहिष्कार कर और युद्ध में भी साधु बनकर निष्काम बनकर अपने कर्त्तव्य कर्म को कर डाल। तू ‘मैं’ के भाव से ऊपर उठते यह मान ले कि ‘मैं’ कुछ नहीं कर रहा। निस्संग रहकर अपने कर्म को करने को तत्पर हो। यदि यह भावना तेरे भीतर आ गयी तो तू एक गृहस्थी होकर भी आध्यात्मिक व्यक्ति माना जाएगा। तब तू फलासक्ति से भी मुक्त हो जाएगा। उस स्थिति में तुझ पर कर्म का बंधन अपना प्रभाव नहीं डाल पाएगा।”
श्री कृष्ण जी ने अर्जुन को ऐसा उपदेश देकर उसे शत्रुओं के विरुद्ध युद्ध के लिए सन्नद्ध किया और हमने श्री कृष्ण जी के इस उपदेश को गीता के रूप में अपने लिए सृष्टि के शेष काल तक के लिए सुरक्षित कर लिया। ध्यान रहे कि गीता के इस ज्ञान को हमने खिलौना मानकर सुरक्षित नहीं किया था, बल्कि इसका एक ही कारण था कि भविष्य में भी जब भारत की संस्कृति और स्वाधीनता का हरण करने वाले ‘शकुनि’ और ‘दुर्योधन’ किसी रूप में खड़े दिखायी देंगे तो हम उनका संहार भी गीता के उपदेश को अपने लिए मार्गदर्शक मान कर वैसे ही करेंगे जैसे अर्जुन ने उस समय किया था। भारत की सनातन संस्कृति के सनातन होने का राज ही यह है कि यह पुरातन को अधुनातन के साथ मिलाकर चलने की अभ्यासी रही है । इसके शाश्वत सनातन मूल्य कभी जीर्ण शीर्ण नहीं होते, उनमें कभी जंग नहीं लगती है। और ना ही वह कभी पुरातन हो पाते हैं। जो कृष्ण जी ने उस समय कहा था वही बात सूक्ष्म रूप में हमारे इतिहास नायक राजा दाहिर सेन के अंतर्मन को आज अपने आप ही कौंध रही थी । यह सच है कि उनके सामने श्री कृष्ण जी नहीं थे , पर श्री कृष्ण जी सूक्ष्म रूप में उनके अंतर्मन में विराजमान होकर निश्चय ही शत्रु के संहार के लिए उन्हें प्रेरित कर रहे थे। हमारे महापुरुष ‘भगवान’ इसीलिए हो जाते हैं कि वे बहुत देर तक और दूर तक अपने राष्ट्र और मानवता का मार्गदर्शन करने की क्षमता और सामर्थ रखते हैं। जब जब कोई अर्जुन कहीं किसी प्रकार की विषमता में फँसता है तब तब वे सूक्ष्म होकर अपने अर्जुन का मार्गदर्शन करते हैं। तब वह अर्जुन शत्रु पर प्रबल प्रहार के साथ आक्रमण करने के लिए उद्यत हो जाता है।
ऐसे में भारत के राष्ट्रधर्म को समझने के लिए हमें गीता के शाश्वत उपदेश को हमेशा याद रखना चाहिए,
जो मरे हुओं में भी जान डालने के लिए पर्याप्त है।
विश्वात्मा का उपकरण बना
मुक्त मनुष्य जीवन धरता ,
विश्वात्मा के द्वारा प्रेरित होकर
निज कर्मों को पूर्ण करता।
भयंकर कर्मों को भी वह
इच्छा के बिना किया करता,
अपने द्वारा किये कर्म को
वह ईश्वरादिष्ट कहा करता।।
डा. राधाकृष्णन कहते हैं कि-”मुक्त मनुष्य अपने आपको विश्वात्मा का उपकरण बना देता है, इसलिए वह जो कुछ करता है वह स्वयं नहीं करता विश्वात्मा उसके माध्यम से विश्व की व्यवस्था को बनाये रखने के लिए कर्म करता है। वह भयंकर कर्मों को भी स्वार्थपूर्ण उद्देश्यों से या इच्छा के बिना करता है। केवल इसलिए कि यह उसका आदिष्ट कर्म है। यह उसका अपना कर्म नहीं ,भगवान का कर्म है।”
श्रीकृष्ण जी अर्जुन को यहाँ विश्वास का एक ऐसा ही उपकरण बन जाने की प्रेरणा दे रहे हैं, उसे समझा रहे हैं कि तू महान कार्य करने के लिए उठ तो सही, तेरा हाथ पकडऩे के लिए वह विश्वात्मा परमात्मा स्वयं प्रतीक्षारत है। वे तेरा हाथ पकड़ेंगे और जिस महान कार्य को (दुष्ट लोगों का संहार कर संसार में शान्ति स्थापित करना) तू स्वयं करना चाहता है-उसे वह स्वयं संभाल लेंगे।
क्रमशः
(हमारी यह लेख माला मेरी पुस्तक “राष्ट्र नायक राजा दाहिर सेन” से ली गई है। जो कि डायमंड पॉकेट बुक्स द्वारा हाल ही में प्रकाशित की गई है। जिसका मूल्य ₹175 है । इसे आप सीधे हमसे या प्रकाशक महोदय से प्राप्त कर सकते हैं । प्रकाशक का नंबर 011 – 4071 2200 है ।इस पुस्तक के किसी भी अंश का उद्धरण बिना लेखक की अनुमति के लिया जाना दंडनीय अपराध है।)
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत एवं
राष्ट्रीय अध्यक्ष : भारतीय इतिहास पुनर्लेखन समिति
मुख्य संपादक, उगता भारत