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[निवेदन- स्वाध्याय व ज्ञान की दृष्टि से महत्वपूर्ण आज हम डा. सोमदेव शास्त्री, मुम्बई का देहरादून के गुरुकुल पौंधा मे दिनांक 1-6-2016 को दिया गया व्याख्यान प्रस्तुत कर रहे हैं जो उन्होंने यहां आयोजित ‘सत्यार्थप्रकाश कार्यशाला’ में दिया था। हम आशा करते हैं कि पाठक इस व्याख्यान में प्रस्तुत विचारों से लाभान्वित होंगे। इससे पाठकों के ज्ञान में वृद्धि होगी और इस व्याख्यान को पढ़ने से परमात्मा प्रदत्त उनके समय का सदुपयोग होगा, कुछ मात्रा में अविद्या भी कम होगी।। -मनमोहन आर्य]
श्रीमद् दयानन्द आर्ष ज्योतिर्मठ गुरुकुल पौन्धा, देहरादून में चल रहे सत्यार्थप्रकाश स्वाध्याय शिविर के तीसरे दिन 1 जून, 2016 केा डा. सोमदेव शास्त्री ने गुरुकुल में पधारे प्रशिक्षणर्थियों को सत्यार्थप्रकाश के आठवें व नौवें समुल्लास के विषयों का उल्लेख कर ऋषि दयानन्द द्वारा उसमें दिए गए वचनों का वर्णन किया और उन पर अपनी युक्तियां व तर्क देकर उनकी पुष्टि करने के साथ उन पर प्रकाश डाला। आठवें समुल्लास के शेष भाग पर प्रकाश डालते हुए आर्य विद्वान डा. सोमदेव शास्त्री ने कहा कि सृष्टि के आरम्भ ने परमात्मा ने एक, दो या तीन नहीं अपितु सैकड़ों व सहस्रों स्त्री व पुरूषों को अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न किया था। सृष्टि के आरम्भ में अमैथुनी सृष्टि में ईश्वर ने किसी पक्षपात के कारण नहीं अपितु पूर्व सृष्टि में जीवात्माओं के कर्मों के आधार पर उन्हें भिन्न भिन्न योनियों में जन्म दिया। सृष्टि में भिन्न भिन्न आकृति व स्वभाव वाले मनुष्यों को देखकर भी यही अनुमान होता है कि सृष्टि की आदि में अनेक स्त्री-पुरुषों को उत्पन्न किया गया था। विद्वान डा. सोमदेव शास्त्री ने अमैथुनी सृष्टि के स्वरूप पर भी प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि सभी स्त्री व पुरुष युवावस्था में उत्पन्न किए गये थे। उन्होंने कहा कि सृष्टि प्रवाह से अनादि है अर्थात् इस सृष्टि का न कभी आरम्भ होता है और न अन्त होता है। यह इसी प्रकार से है जैसे कि रात्रि से पूर्व दिन, उससे पूर्व रात्रि, फिर दिन, फिर रात्रि आदि का कर्म अनादि काल से चला आ रहा है। उन्होंने बताया कि कि सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति व प्रलय का क्रम अनादि व आरम्भ रहित है। इस आरोप का उन्होंने खण्डन किया कि ईश्वर ने मनुष्यों व पशु-पक्षियों को जन्म देने में पक्षपात किया है। इस आरोप का खण्डन कर उन्होंने कहा कि ईश्वर न्यायकारी और पक्षपातरहित है। उसने जीवों के कर्मानुसार उन्हें मनुष्य, पशु व पक्षी आदि अनेक योनियों में जन्म देकर न्याय का परिचय दिया है। उन्होंने आगे कहा कि सृष्टि की आदि व उसके बाद बाद जन्म लेने वाले जीवों को ईश्वर पूर्व सृष्टि व पूर्वजन्म में उनके कर्मों के अनुसार ही मनुष्य, पशु व पक्षी आदि योनियों में जन्म देता है।
सत्यार्थ प्रकाश के आधार पर विद्वान वक्ता ने सृष्टि की आदि में मनुष्यों की प्रथम उत्पत्ति कहां हुई, की चर्चा की। इस प्रश्न को उपस्थित कर उन्होंने बताया कि सृष्टि के आरम्भ में मनुष्यों की प्रथम उत्पत्ति त्रिविष्टिप या तिब्बत में हुई थी। उन्होंने इसके अनेक तर्कपूर्ण प्रमाण भी दिये। विद्वान वक्ता ने बताया कि संसार में सम्पूर्ण मनुष्य जाति एक है। इस मनुष्य जाति में श्रेष्ठों का नाम आर्य, विद्वान व देव तथा दुष्ट स्वभाव वाले मनुष्यों का नाम दस्यु प्रसिद्ध हुआ। उन्होंने कहा कि गुण, कर्म व स्वभाव के अनुसार आर्यों के चार वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र हैं। शूद्र उस मनुष्य को कहते हैं कि जो पढ़ाने पर भी न पढ़े। अतः शूद्र शारीरिक श्रम के कार्यों को ही कर सकता है, इसलिए उसे यही कार्य करने को दिया गया। शूद्र बौद्धिक कार्य नहीं कर सकते। अन्याय से दूसरों की रक्षा करने वाले तथा शारीरिक दृष्टि से बलवान मनुष्यों का वर्ण क्षत्रिय होता है। समाज से अन्न आदि का अभाव दूर करने वालों को वैश्य तथा तीन वर्णों की सेवा का कार्य करने वालों को शूद्र कहते हैं। अविद्या को दूर करना ब्राह्मण का कार्य होता है। शूद्र इन तीनों का सहयोगी होता है। उन्होंने अंग्रेजों द्वारा किए गये दुष्प्रचार का उल्लेख किया जिसमें उन्होंने कहा कि आर्य ईरान, मध्य एशिया या उत्तरी ध्रुव से भारत में आये थे। उन्होंने कहा कि प्राचीन संस्कृत वांग्मय में इसका कहीं उल्लेख नहीं है। उन्होंने अनेक उदाहरण देकर इस विषय को स्पष्ट किया और कहा कि मथुरा के रहने वाले व सरस्वती नदी के किनारे निवास करने वाले लोगों ने अपनी पहचान बनाये रखने के लिए स्वयं को माथुर व सारस्वत कहलाना प्रसिद्ध किया। यदि आर्य बाहर से आये होते तो वह अपनी पुरानी पहचान को स्मरण रखते। उन्होंने कहा कि ऋग्वेद के किसी मन्त्र में नहीं लिखा है कि आर्य किसी अन्य देश से आये थे। इस देश का आर्यावर्त या ब्रह्मावर्त से पुराना कोई नाम नहीं है, अतः आर्य ही इस देश के मूल निवासी है।
डा. सोमदेव शास्त्री ने सत्यार्थ प्रकाश स्वाध्याय के शिविरार्थियों को बताया कि प्राचीन काल में आर्यावत्र्त से इतर दूरस्थ भिन्न-भिन्न देशों में भी वेदों का प्रचार रहा है। आर्य विद्वान ने कहा कि सत्यार्थ प्रकाश के आठवें समुल्लास के यह शब्द याद रखने योग्य हैं जिनमें कहा गया है कि ‘अब अभाग्योदय से और आर्यों के आलस्य, प्रमाद, परस्पर के विरोध से अन्य देशों के राज्य करने की तो कथा ही क्या कहनी किन्तु आर्यावत्र्त में भी आर्यों का अखण्ड, स्वतन्त्र, स्वाधीन निर्भय राज्य इस समय नहीं है। जो कुछ है सो भी विदेशियों के पादाक्रान्त हो रहा है। कुछ थोड़े राजा स्वतन्त्र हैं। दुर्दिन जब आता है तब देशवासियों को अनेक प्रकार का दुःख भोगना पड़ता है। कोई कितना ही करे परन्तु जो स्वदेशीय राज्य होता है वह सर्वोपरि उत्तम होता है। अथवा मत-मतान्तर के आग्रहरहित अपने और पराये का पक्षपातशून्य प्रजा पर पिता माता के समान कृपा, न्याय और दया के साथ विदेशियों का राज्य भी पूर्ण सुखदायक नही है। परन्तु भिन्न-भिन्न भाषा, पृथक-पृथक शिक्षा, अलग व्यवहार का विरोध छूटना अति दुष्कर है। बिना इसके छूटे परस्पर का पूरा उपकार और अभिप्राय सिद्ध होना कठिन है। इसलिये जो कुछ वेदादि शास्त्रों में व्यवस्था वा इतिहास लिखे हैं उसी का मान्य करना भद्रपुरुषों का काम है।’ (हमें यह लगता है कि स्वामी दयानन्द की मृत्यु के षडयन्त्र में अंग्रेज एक बड़ा कारण थे और उसके पीछे महर्षि दयानन्द की यह और ऐसे अनेक विचार व उनके ग्रन्थों के सन्दर्भ है। ऐसे ही विचार आज 2 जून, 2016 को भी डा. सोमदेव शास्त्री ने व्यक्त किये। लेखक)
डा. सोमदेव शास्त्री जी ने कहा कि देशवासी आर्यों के आलस्य, प्रमाद व परस्पर के विरोध आदि कारणों से देश गुलाम हुआ था। उन्होंने कहा कि प्रथम क्रान्ति सन् 1857 में भारत का राज्य ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अधिकार में था। भारत के कुछ भागों पर फ्रांस व पुर्तगाली लोग भी राज्य करते थे। यह लोग यहां पर व्यापार करने आये थे और यहां के हालात देखकर इस पर कब्जा कर लिया। इन विदेशियों ने पहले यहां अपनी कालोनी वा उपनिवेश बसाये, फिर पुलिस रखी, फिर धर्म प्रचारक रखे, इस प्रकार करते करते इन्होंने देश को पराधीन कर लिया। इसके साथ ही भारतीय प्राचीन धर्म व संस्कृति को भ्रष्ट करने के उद्देश्य से मैक्समूलर और मैकाले के द्वारा जाल बिछाया गया। सन् 1857 की क्रान्ति के बाद ब्रिटिश पार्लियामेन्ट ने भारत की सत्ता अपने हाथ में ले ली। स्वामी दयानन्द इतिहास में पहले व्यक्ति थे जिन्होंने सत्यार्थ प्रकाश के द्वारा स्वदेशी की बात की थी। डा. सोमदेव शास्त्री ने कहा कि कांग्रेस की स्थापना आर्यसमाज की स्थापना के 10 वर्ष बाद सन् 1885 में एक विदेशी श्री ए. ह्यूम ने की थी। कांग्रेस का उद्देश्य अंग्रेजों के सामने छुट-पुट मांगें रखना था और दूसरा उद्देश्य अंग्रेजी सरकार के कामों की प्रशंसा करना था। डा. सोमदेव शास्त्री ने कहा कि आर्यसमाज ने सबसे पहले विद्रोह की आवाज उठाई। आर्यसमाज ने सबसे पहले अंग्रेजी व विदेशी कपड़ों का विरोध किया था। महर्षि दयानन्द से प्रभावित जोधपुर राज्य ने कांग्रेस के असहयोग आन्दोलन से बहुत पहले अपने नागरिकों के लिए विदेशी कपड़े पहनने पर रोक लगाई थी और यह आदेश जारी किया था कि सभी लोग पाली की बनी हुई खादी पहनेंगे।
विद्वान वक्ता ने कहा कि जगत की उत्पत्ति को एक अरब छियानवें करोड़ आठ लाख त्रेपन हजार एक सौ पन्द्रह वर्ष हुए हैं। उन्होंने भोग काल व भुक्त काल की भी चर्चा की और उस पर विस्तार से प्रकाश डाला। सत्यार्थ प्रकाश के आधार पर उन्होंने प्रश्न किया कि हमारी यह पृथिवी किस पर टिकी है? उसका उत्तर देते हुए उन्होंने कहा कि हमारी यह पृथिवी व सूर्य चन्द्र आदि ग्रह व नक्षत्र आकर्षण शक्ति से टिके हुए हैं व इन सबको परमात्मा ने धारण किया हुआ है। उन्होंने सोमनाम मन्दिर को महमूद गजनवी द्वारा तोड़े जाने की चर्चा कर बताया कि वहां शिव की हवा में लटकी मूर्ति को तोड़ने के लिए उसने वहां के पण्डितों को डरा कर जानकारी ली और एक ओर का भाग तोड़ दिया जिससे चुम्बकीय शक्ति में असन्तुलन से मूर्ति गिर पड़ी। उन्होंने पृथिवी, चन्द्र, सूर्य व 27 नक्षत्रों की चर्चा कर उनसे जुड़ी अनेक खगोलीय बातों को प्रस्तुत किया। विद्वान वक्ता ने यह भी कहा कि बिना खगोल विद्या के वेदार्थ स्पष्ट नहीं हो सकता। उन्होंने यह भी कहा कि शनि ग्रह हमसे 150 करोड़ मील दूर है। यह सूर्य की एक परिक्रमा 30 साल में करता है। उन्होंने शनि ग्रह से जुड़ी पौराणिक व फलित ज्योतिषियों की मान्यताओं का खण्डन किया और उपहास में कहा कि यह शनि ग्रह पृथिवी के किसी मनुष्य का इष्ट व अनिष्ट नहीं कर सकता।
इसके बाद डा. सोमदेव शास्त्री ने सत्यार्थ प्रकाश के दशम समुल्लास का उल्लेख कर बताया कि इसके विषय विद्या, अविद्या, बन्धन और मोक्ष हैं। उन्होंने कहा कि बन्धन और मोक्ष नैमित्तिक हैं। उन्होंने वेदान्तियों की इस मान्यता का खण्डन किया कि जीव ब्रह्म का प्रतिबिम्ब है। उन्होंने कहा कि मुक्ति में जीव का ईश्वर में लय नहीं होता अपितु इसका पृथक अस्तित्व बना रहता है। मुक्ति में जीवात्मा निश्चित अवधि तक सुखों व आनन्द का भोग कर वापिस आता है। जीवात्मा के मुक्ति काल को उन्होंने 36 हजार बार सृष्टि की उत्पत्ति व प्रलय के बराबर बताया। डा. सोमदेव शास्त्री ने सत्यार्थ प्रकाश में वर्णित पंच कोशों अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय तथा आनन्दमय की चर्चा भी की। उन्होंने मनुष्यों के तीन शरीरों स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों सहित जाग्रत, स्वप्न तथा सुषुप्ति अवस्थाओं की चर्चा भी की। विद्वान वक्ता ने सत्यार्थप्रकाश के आधार पर श्रवण, मनन, निदिध्यासन और साक्षात्कार इन श्रवण-चतुष्टयों की चर्चा कर उन पर प्रकाश डाला और इसके साथ पांच क्लेशों, विविध मुक्तियों, त्रिविध दुःख आदि की चर्चा भी श्रोताओं से की। उन्होंने कहा विद्या-ज्ञान, कर्म और उपासना से जीवात्मा वा मनुष्य मुक्त हुआ करता है। श्री शास्त्री ने कहा कि बन्धन से छूटने का नाम मुक्ति है। इसे और स्पष्ट कर उन्होंने कहा कि दुःखों का अत्यन्त विच्छेद मुक्ति कहलाती है। उन्होंने यह भी कहा कि मनुष्य के सीमित कर्मों का फल भी सीमित ही मिलता है, इस कारण मुक्ति की भी सीमा है। मुक्ति के साधनों की पुनः चर्चा कर आपने बताया कि विवेक, वैराग्य, षट् सम्पत्ति, तितिक्षा, श्रद्धा, समाधान और मुमुक्षुत्व से इसे प्राप्त किया जाता है। वैराग्य की चर्चा कर उन्होंने कहा कि सांसारिक विषयों से विरक्ति वैराग्य कहलाती है। विद्वानों का उपदेश ध्यान से सुनने व उस पर मनन करने का उन्होंने श्रोताओं को परामर्श दिया। उन्होंने यह भी कहा कि मुमुक्षजनों को कम से कम प्रतिदिन दो घण्टा ईश्वर का ध्यान करना चाहिये। ऐसा करते हुए अनेक जन्म-जन्मान्तरों में जीवात्मा की मुक्ति होती है।
हम अनुभव करते हैं कि डा. सोमदेव शास्त्री ने अपनी वर्षों की तपस्या से सत्यार्थप्रकाश का जो ज्ञान अर्जित किया उसे मात्र कुछ घण्टों में श्रोताओं में वितरित कर दिया। सत्यार्थप्रकाश स्वाध्याय शिविर निश्चित ही श्रोताओं के ज्ञान को बढ़ाने में सहायक होने के साथ सत्यार्थ प्रकाश के अध्ययन में लोगों को प्रवृत्त करने का कार्य भी करेगा। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य