Categories
आओ कुछ जाने

निश्चित को छोड़कर अनिश्चित का सहारा लेने वाले की क्या होती है गति

चाणक्य नीति

यो ध्रुवाणि परित्यज्य ह्यध्रुवं परिसेवते।

ध्रुवाणि तस्य नश्यन्ति चाध्रुवं नष्टमेव तत्।।

आचार्य चाणक्य कहते हैं कि जो निश्चित को छोड़कर अनिश्चित का सहारा लेता है, उसका निश्चित भी नष्ट हो जाता है। अनिश्चित तो स्वयं नष्ट होता ही है। अभिप्राय यह है कि जिस चीज का मिलना पक्का निश्चित है, उसी को पहले प्राप्त करना चाहिए या उसी काम को पहले कर लेना चाहिए। ऐसा न करके जो व्यक्ति अनिश्चित यानी जिसका होना या मिलना पक्का न हो, उसकी ओर पहले दौड़ता है, उसका निश्चित भी नष्ट हो जाता है अर्थात् मिलनेवाली वस्तु भी नहीं मिलती। अनिश्चित का तो विश्वास करना ही मूर्खता है, इसे तो नष्ट ही समझना चाहिए। अर्थात् ऐसा आदमी अक्सर ‘आधी तज पूरी को धावे, आधी मिले न पूरी पावे’ की स्थिति का शिकार हो जाता है।
इस संदर्भ में अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं। कुछ व्यक्ति केवल मनोरथ से ही कर्म की प्राप्ति मान लेते हैं, वह जो कुछ पाने योग्य हाथ में है, उसकी परवाह किए बगैर जो हाथ में नहीं है उसके चक्कर में पड़ जाते हैं और होता यह है कि जो पा सकते थे, उसे भी गंवा बैठते हैं। ऐसे व्यक्ति केवल डींगें मारते हैं, कर्म में शिथिलता बरतते हैं और शेखचिल्ली होकर रह जाते हैं। इसलिए व्यक्ति को चाहिए कि वह अपने साधनों के अनुरूप कार्य-योजना बनाकर चले तभी वह इस जीवन-रूपी सागर को शरीर-रूपी नौका के सहारे पार जा सकता है वरना नाव मझधार में कहीं भी मनोरथ के भंवर में फंसकर रह जाएगी। अतः मनुष्य को अपनी क्षमता को पहचानकर कार्य करना चाहिए क्योंकि काम करने से ही होता है, केवल मनोरथ से नहीं।

  • राहुल धूत

Comment:Cancel reply

Exit mobile version