इतिहास की एक भूल थी ‘पाकिस्तान’

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संजय खाती

पाकिस्तान कोई मुल्क नहीं है। वह एक भूलभुलैया है, एक पहेली जिसे आज तक पाकिस्तानी खुद भी हल नहीं कर पाए। न्यूयॉर्क टाइम्स के डेक्लान वॉल्श से एक पाकिस्तानी अफसर ने कहा था, यह कई कमरों वाले एक मकान की तरह है, जिसमें एक कमरे को दूसरे की खबर नहीं होती। खुद वॉल्श को पाकिस्तान उस जापानी बॉक्स वाली पहेली की तरह लगा, जिसके फंदों को एक साथ सुलझाया नहीं जा सकता।

वॉल्श ने करीब 10 साल पाकिस्तान में गुजारे- पहले गार्जियन के लिए और फिर न्यूयॉर्क टाइम्स के लिए। लेकिन मई 2013 में अचानक उन्हें फौरन देश छोड़ने का फरमान थमा दिया गया। बरसों बाद वॉल्श को अंदाजा हो सका कि यह सजा उन्हें बलूचिस्तान पर रिपोर्ट छापने के लिए मिली थी। बलूचिस्तान पाकिस्तान की सबसे दुखती रग है, क्योंकि यही इलाका है जहां से पाकिस्तान के वजूद को सबसे बड़ी चुनौती मिलती है।

दक्षिण एशिया के मुसलमानों के लिए बना यह देश दरअसल पंजाबी, सिंधी, बलूच, पठान, शिया, सुन्नी, मुहाजिर, हाजरा और दूसरे फिरकों में बंट कर रह गया। 1959 में जब अहमदिया लोगों के खिलाफ दंगे हुए तो जस्टिस मुनीर की अगुआई में एक कमिशन बना। इस कमिशन ने इस्लामी पहचान की पड़ताल की और सवाल उठाया कि अगर अहमदिया मुसलमान नहीं हैं तो मुसलमान कौन है?

पता चला कि यह पहचान तो कई टुकड़ों में बंटी हुई है और एक दूसरे को इसका हक देने के लिए तैयार नहीं। तब जस्टिस मुनीर ने लिखा, इस्लाम की बुनियाद पर सभी नागरिकों के लिए एक राष्ट्र राज्य की स्थापना कैसे हो, इस सवाल पर नेताओं को फौरन विचार करना चाहिए, क्योंकि यह इतना बुनियादी सवाल है कि पाकिस्तान को बना या बिगाड़ सकता है।

इस सवाल का जवाब आज तक नहीं मिला, और नतीजतन एक ऐसा देश तैयार हुआ, जो क्यों और कैसे चलता है, कोई नहीं जानता। अपनी किताब ‘नाइन लाइव्स ऑफ पाकिस्तान’ में वॉल्श इस पहेली से निराश होने की हद तक उलझते दिखते हैं। यह कहने के बावजूद कि उन्हें पाकिस्तान से प्यार हो गया, यह एक तकलीफ और खीझ से भरी दास्तान है।

इसमें पाकिस्तान एक अंधे कुएं की तरह नजर आता है, जिसकी तकदीर भयानक साजिशों, हत्याकांडों, यातनाओं और पीड़ाओं से भरी है। जगहों और लोगों के जरिए वॉल्श हमें पाकिस्तान के डरावने संसार में ले जाते हैं, जो इतिहास, पहचान और आस्था के चक्रवात में घूम रहा है। क्या यह टिका रहेगा? पाकिस्तान के लोग भी असमंजस में हैं। कुछ हैं, जो भारत, अमेरिका या इजरायल की दखल के साजिशी किस्सों में सुकून खोजने की कोशिश करते हैं। ‘यह आहों और पछतावों का देश है, जहां कई लोग इसके वजूद को लेकर अफसोस तक करते हैं’। पाकिस्तान अगर टिका हुआ है तो सिर्फ अंधी आस्था पर।

पाकिस्तान में पहले प्रधानमंत्री की हत्या कर दी गई, एक पूर्व प्रधानमंत्री को मार डाला गया, एक पूर्व प्रधानमंत्री को फांसी पर लटका दिया गया, एक मिलिट्री शासक का रहस्यमय ऐक्सिडेंट हो गया, तालिबान के गुरु कहे जाने वाले मुल्ला की भी जान ले ली गई, पूर्व प्रधानमंत्रियों को जेल काटनी पड़ी, देश संभाल रहे कई लोगों को विदेश भाग जाना पड़ा…। पाकिस्तान में कोई भी महफूज नहीं रहा। और इन सब के पीछे रहस्य की गाथाएं बनती गईं।

जिस आर्मी को पाकिस्तान का माई-बाप माना जाता है, क्या खुद वह भीतर से एक है? जिस खुफिया एजेंसी का वहां राज चलता है, क्या वह खुद अपने आप से सुरक्षित है? जिन कट्टरपंथियों, आतंकवादियों को हम पाकिस्तान का टट्टू कहते हैं, क्या वाकई उनका कोई मालिक है? ऐसा लगता है जैसे पाकिस्तान में अनगिनत ताकतें हैं और सब एक-दूसरे का चक्कर काट रही हैं।

कराची और इस्लामाबाद जैसे शहरों में पैसे और रसूख वालों की जिंदगी की निराली दुनिया भी यहां है, जिनकी पार्टियां कभी फीकी नहीं पड़तीं। यहां हम आईएसआई के सुपर एजेंट सुल्तान अमीर तरार उर्फ कर्नल इमाम से भी मिलते हैं, जिसने अफगानिस्तान में अल कायदा और तालिबान को खड़ा किया, लेकिन आखिर में पाकिस्तानी तालिबान ने तड़पा-तड़पा कर उसकी जान ले ली। यहां पख्तूनख्वा के जिद्दी और मनमौजी पठानों की करीबी पड़ताल है, जो सदियों पुराने कबायली माहौल में अफगानी आतंकवादियों के हमदम बन गए।

यह होना ही था। पाकिस्तान इतिहास की एक भूल थी और वह भूल अपनी कीमत वसूले बिना कैसे रहती। इसलिए इस्लाम के तले भी पाकिस्तान अपनी साझा पहचान नहीं बना पाया। किसी तरह राष्ट्रवाद जगाने के लिए 1965 में उसने एक और भूल की- भारत से जंग और इस के बुरे अंजाम ने हमेशा के लिए उसकी चाल बिगाड़ दी। 1960 में पाकिस्तान की जीडीपी सिंगापुर के बराबर थी, भारत के उलट वह आर्थिक तौर पर खुला हुआ और अमेरिकापरस्त देश था। लेकिन जब शुरुआत ही गलत बुनियाद पर हो तो अनहोनी को कैसे टाला जा सकता था? उसे कश्मीर का बदला लेना ही था, उसे भारत से भिड़कर ईस्ट पाकिस्तान को खोना ही था, वहां जिया उल हक के तौर पर कट्टरपंथ को परवान चढ़ना ही था, उसे अफगानिस्तान के ग्रेट गेम में फंसना ही था, उसे 9/11 के बाद अपने भस्मासुरों के निशाने पर आना ही था।

दुनिया में शायद ही कोई दूसरा देश हो, जिसकी किस्मत इतनी खराब रही हो, जिसे चाहे-अनचाहे महाशक्तियों का मोहरा बनना पड़ा हो और फिर उसकी ऐसी कीमत चुकानी पड़ी हो। 1979 से लेकर 1989 तक पाकिस्तानी आर्मी और सरकार ने अफगानिस्तान में सोवियत संघ के खिलाफ मुजाहिदीन को खड़ा करते हुए खूब डॉलर वसूले। उधर जनरल जिया ने पाकिस्तान को सचमुच इस्लामी देश में बदलने का प्रॉजेक्ट चला रखा था। लेकिन जैसे ही सोवियत टैंकों ने अफगानिस्तान से विदा ली, रौनक उड़ गई। इसी दौरान अमेरिका से नाराजगी पैदा हुई और पाकिस्तान में जिहादी अड्डे पनपने लगे। फिर 9/11 के बाद वह वक्त आया जब पाकिस्तान को अपने ही जिहादियों के खिलाफ मोर्चा खोलना पड़ा, जो कि सबसे दर्दनाक दौर था। 2007 में इस्लामाबाद में लाल मस्जिद के इमाम भाइयों ने सरकार को अपने खिलाफ गोला-बारूद बरसाने को मजबूर कर दिया।

पाकिस्तान आज उसी रास्ते पर लड़खड़ाता चला जा रहा है, पहले से ज्यादा गरीब और गुस्सैल। क्या इसका कोई हल है? पुराने डिप्लोमैट हुसैन हक्कानी ने पाकिस्तान के लीडरान को तीन सुझाव दिए थे, जिहाद की आइडियॉलजी छोड़िए, भारत से बेमतलब की बराबरी को भूल जाइए और पाकिस्तान को एक लड़ाकू मुल्क की बजाए व्यापारी मुल्क के तौर पर देखिए। लेकिन क्या किस्मत अपना रास्ता बदलेगी? यही सबसे बड़ा सवाल है उस देश में, जहां जवाब नहीं मिलते।

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