‘दयानंद दिवाकर’ नामक ग्रंथ के लेखक श्री आदित्यमुनि वानप्रस्थ जी हैं। जिनका पूर्व नाम आदित्य पाल सिंह आर्य रहा है। उनके द्वारा लिखित यह ग्रंथ आर्य जगत के लिए अनुपम है। जिससे हमें समग्र क्रांति के अग्रदूत महर्षि दयानंद जी के विषय में अद्भुत जानकारी प्राप्त होती है। इस महान ग्रंथ के अध्ययन के उपरांत प्रत्येक पाठक यही निष्कर्ष निकालेगा कि ऐसे ग्रंथ की आर्य जगत के लिए एक महती आवश्यकता थी। जिसे पूर्ण करके आदित्य मुनि जी ने महान कार्य संपादित किया है।
इस महान ग्रंथ के लेखन में अनेकों विद्वानों के उदाहरण प्रस्तुत किए गए हैं । जिससे ग्रंथ प्रमाणिक बन गया है। ग्रन्थ को विशाल आकार देने और अनेकों विद्वानों के उद्धरणों को इसमें प्रस्तुत करने से स्पष्ट होता है कि लेखक ने कितना परिश्रम इस ग्रंथ को तैयार करने में किया है ?
बहुत सटीक प्रमाणों के आधार पर लेखक ने महर्षि दयानंद जी के जन्म संबंधी तिथि को भी 12 फरवरी न मानकर 20 सितंबर 1825 सिद्ध किया है। जिसमें आर्य जगत में ज्योतिष के क्षेत्र में अपना विशिष्ट स्थान बनाने वाले आचार्य दार्शनेय ‘लोकेश’ जी के परिश्रम को भी उन्होंने स्थान दिया है। बालक मूल शंकर के बालपन में उनकी धाय माँ रत्नाबाई ने जिस प्रकार महर्षि दयानंद जी को एक बार आभूषण के लालच में मारने का प्रयास किया था उसे भी लेखक ने बड़ी सहज-सरल शैली में प्रस्तुत किया है । आदित्य मुनि जी की लेखन शैली इस प्रकार की है कि पाठक उनसे यदि एक बार जुड़ गया तो वह जुड़ा ही रहता है । इस प्रकार की लेखन शैली से पुस्तक बहुत ही रोचक बन गई है।
लेखक ने महर्षि दयानंद जी के जीवन चरित्र को बहुत ही उत्तमता से पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करने के लिए ऋषि के जन्म से लेकर निर्वाण तक की सारी घटनाओं को बहुत ही सरल सहज ढंग से शब्दों के मोतियों की माला में पिरोकर प्रस्तुत किया है। मूलशंकर का जन्म, उनका नामकरण संस्कार, विद्यारंभ संस्कार, यज्ञोपवीत संस्कार, शिवरात्रि व्रत,
शिक्षा के सोपान ,अपने कुछ परिजनों की मृत्यु से साक्षात्कार ,अगली शिक्षा के लिए मूल शंकर के काशी भेजने के निवेदन सहित सायले शहर में, कोटकांगढ़ , सिद्धपुर का मेला, अहमदाबाद में, बड़ौदा में , वाराणसी में, नर्मदा तट पर भ्रमण, महिष्मति से धर्मराय तीर्थ ,धर्मराय तीर्थ से चाणोद, चाणोद में सन्यास की घटनाओं को प्रस्तुत करते हुए भी लेखक ने अनेकों ऐसे अनछुए तथ्यों और पहलुओं पर प्रकाश डाला है जो कई पाठकों को अब से पूर्व में पढ़ने को नहीं प्राप्त हुए होंगे।
लेखक ने महर्षि दयानंद जी के वैदिक विचारों और उनके चिंतन को प्रस्तुत करने में महर्षि के साथ पूरा न्याय करने का प्रयास किया है। पुस्तक के आद्योपांत अध्ययन से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि महर्षि दयानंद जी ने अपने जीवन में कभी विश्राम नहीं किया। क्योंकि लेखक ने महर्षि दयानंद जी के जीवन के प्रत्येक वर्ष की और कहीं-कहीं तो प्रत्येक तिथि तक की सूचना पुस्तक के माध्यम से उपलब्ध कराई है। वह सतत संघर्षशील रहे और इस संघर्ष के बीच महर्षि दयानंद की यह अद्भुत विशेषता थी कि उन्होंने अपनी साधना को भी भंग नहीं होने दिया। वे नित्य प्रति अपनी साधना के पवित्र कार्य में भी लगे रहे। महर्षि दयानंद एक ऐसे महापुरुष हैं जो अपनी आध्यात्मिक साधना में तो लगे ही रहे, साथ ही राष्ट्र की साधना में भी लगे रहने का अनुपम और अद्वितीय कार्य किया। लेखक ने उनके उन महान कार्यों को पुस्तक में यथा स्थान बहुत ही अच्छे ढंग से प्रस्तुत किया है। जिससे पाठकों को महर्षि दयानंद के प्रेरणास्पद जीवन से प्रेरणा अवश्य मिलेगी।
पुस्तक की यह अद्भुत विशेषता है कि इसमें महर्षि दयानंद के जीवन के प्रत्येक वर्ष की सभी महत्वपूर्ण घटनाओं को समाहित किया गया है । जिसके लिए लेखक ने अलग-अलग कई अध्याय बनाए हैं। पुस्तक के अध्ययन से यह बात भी अपने आप स्पष्ट हो जाती है कि लेखक ने इस ग्रंथ का नाम दयानंद दिवाकर ही क्यों रखा ? सचमुच महर्षि दयानंद भारत के लिए उस समय एक दिव्य दिवाकर ही थे, जिनका प्रकाश न केवल आज तक यथावत फैला हुआ है अपितु सृष्टि के अंत तक भी ऐसे ही फैलता रहेगा और आने वाली पीढ़ियों को भी लाभान्वित करता रहेगा।
महर्षि दयानंद के दिव्य दिवाकर स्वरूप के दृष्टिगत लेखक ने ग्रन्थ के अध्यायों के नाम भी दिवाकर से ही प्रारंभ किये हैं। लेखक ने दिवाकर का बाह्य जगत में विचरण, दिवाकर की विस्तृत गगन अर्थात कार्यक्षेत्र में तपन, दिवाकर का अस्तांचल की ओर प्रस्थान जैसे अध्यायों में महर्षि दयानंद के जीवन की एक – एक घटना का सजीव वर्णन किया है।
ग्रंथ में महर्षि दयानंद जी के अजमेर , मारवाड़, जयपुर , दिल्ली, हरिद्वार, कुंभ मेले ,कश्मीर , लद्दाख , उत्तराखंड , टिहरी, श्रीनगर, शिवपुरी, केदारनाथ, उखीमठ ,रामपुर, मानसरोवर ,कैलाश, लहासा, तिब्बत ,दार्जिलिंग, नेपाल, कोलकाता, कामरूप, दक्षिण भारत के अनेकों नगरों के अनुभवों को प्रस्तुत किया गया है।
लेखक ने ‘दिवाकर की विस्तृत गगन में तपन’ – नामक अध्याय में किशनगढ़, पुष्कर, मेरठ ,कनखल, शुक्रताल, मीरापुर, मोहम्मदपुर, परीक्षितगढ़, गढ़मुक्तेश्वर, करणवास, फर्रुखाबाद, अनूपशहर, झांसी, धौलपुर, रामघाट, अहार, कादरगंज ,नरदौली, काकोड़ा, कायमगंज, कंपिल, फर्रुखाबाद, जलालाबाद, कासगंज, काशी, मिर्जापुर, बिजौली, भागलपुर, कोलकाता, वर्धमान ,पटना, छपरा, आरा, अहमदाबाद ,मुंबई, पुणे, शाहजहांपुर ,सहारनपुर, अमृतसर, गुरदासपुर, जालंधर, वजीराबाद, ज्वालापुर जैसे उन अनेकों शहरों व नगरों का विस्तृत वर्णन किया है जिसमें महर्षि ने किसी समय विशेष पर रहकर कोई न कोई महत्वपूर्ण कार्य किया था। इस अध्याय में लेखक ने 1864 से लेकर 1880 ईसवी तक की छोटी-बड़ी सभी घटनाओं को समाविष्ट करने का प्रयास किया है। जबकि अंतिम अध्याय अर्थात ‘दिवाकर का अस्तांचल की ओर प्रस्थान’ – में 1880 से लेकर 1883 ई0 तक की घटनाओं को स्थान दिया गया है। जिसमें मुजफ्फरनगर, मेरठ, सहारनपुर, देहरादून ,आगरा, भरतपुर, जयपुर, अजमेर, ब्यावर, चित्तौड़ ,मुंबई, खंडवा, रतलाम ,जावरा, जोधपुर, आबू शहरों में महर्षि के प्रवास पर प्रकाश डाला गया है और उनके जीवन के अंतिम दिन किस प्रकार व्यतीत हुए उसको स्पष्ट किया गया है।
परिशिष्ट में लेखक ने महर्षि दयानंद जी की आत्मकथा ,जन्मपत्रिका फलादेश, ऋषि की अज्ञात जीवनी, सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा नई दिल्ली का पत्र, महर्षि द्वारा लिखित स्वमन्त्वयामन्तव्यप्रकाश:, ऋषि कृत ग्रंथों का संक्षिप्त परिचय, ऋषि का हस्तलेख और हस्ताक्षर आदि भी दिए गए हैं।
ऋषि भक्त आर्यजनों को यह पुस्तक निश्चय ही अपने पास रखनी चाहिए । क्योंकि इससे उन्हें महर्षि दयानंद के व्यक्तित्व और कृतित्व को समझने में सहायता प्राप्त होगी । लेखक को इस महान ग्रंथ को प्रस्तुत करने के लिए बहुत-बहुत बधाई।
इस ग्रंथ का मूल्य ₹600 है और इसकी पृष्ठ संख्या 752 है। प्रकाशक एवं प्राप्ति स्थान :- गंगा प्रकाशन मंदिर, एच – 128, राजहर्ष कॉलोनी, अकबरपुर, कोलार रोड ,भोपाल 4620 42 ( मध्य प्रदेश) है। पुस्तक प्राप्ति के लिए 9425605823 व 9425302023 मोबाइल नंबर पर संपर्क किया जा सकता है।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत