ज्ञान से होता कर्म है,श्रद्धा से सत्कर्म
ज्ञान से होता कर्म है,
श्रद्धा से सत्कर्म ।
धर्म होय वैराग्य से ,
ऐश्वर्य दे धर्म ॥1475॥
व्याख्या:- ज्ञान से अभिप्राय है – “जो जैसा है,उसे वैसा ही जानना और मानना ज्ञान कहलाता है”।”ज्ञान का क्रिया में परिवर्तित होना कर्म कहलाता है।”हमारे धर्म – शास्त्रों में ज्ञान को ‘परम पवित्र’कहा है। ज्ञान के बिना कर्म अन्धा है और बिना कर्म के ज्ञान लंगड़ा है।दोनों एक दूसरे पर अन्योन्याश्रित है।इसलिए कर्म करने से पहले उसका अपेक्षित ज्ञान होना नितान्त आवश्यक है। पाठकों की जानकारी के लिए यह बताना भी प्रासंगिक रहेगा कि स्वयं (आत्मा) संसार से भिन्न और परमात्मा से अभिन्न है।कहने का तात्पर्य है कि संसार से राग रहित होकर ही संसार के वास्तविक स्वरूप को जाना जा सकता है जबकि परमपिता का ज्ञान उनसे अभिन्न होने से ही होता है। जो साधक है,वे अच्छी तरह समझ लें कि संसार में अनेक विद्याओं का ,अनेक भाषाओं ,अनेक लिपियों का, अनेक कलाओं का ,अनेक लोक – लोकान्तरों का ज्ञान है,किंतु यह वास्तविक ज्ञान नहीं है। वास्तविक ज्ञान तो वही है,जिससे ‘स्वयं’ का शरीर से संबंध विच्छेद हो जाय और फिर संसार में जन्म ना हो, संसार की परतंत्रता ना हो। इस अवस्था को जब साधक प्राप्त कर लेता है,तो वह तत्वज्ञानी कहलाता है,आत्मज्ञानी कहलाता है।
जीवन जो भी कर्म करें,उसे मन लगाकर करें,निष्ठा और लगन से करें,खासतौर से यज्ञ,दान,तप,तीर्थ,व्रत आदि, शास्त्रविहित कर्मों को श्रद्धापूर्वक और निष्काम भाव से करें, भगवान की प्रसन्नता के लिए करें, अन्यथा अश्रद्धा से किया गया कोई भी सत्कर्म निष्फल हो जाता है।
धर्म के कार्यों को करने के लिए एक वैराग्य होना चाहिए,ह्रदय में दीवानगी होनी चाहिए,चातक जैसे चाह होनी चाहिए। वैराग्य से अभिप्राय है – “चित्त के अन्दर आसुरी प्रवृत्तियों का उन्मूलन और देवी प्रवृत्तियों का जागरण होना।”यही चितावस्था धार्मिक कार्यों को अंतिम लक्ष्य तक पहुंचाती है, लगन और उत्साह को बढ़ाती है।
” जो लोग धर्म की रक्षा करते हैं,धर्म उनकी रक्षा करता है।”उनका प्रारब्ध महान बनता है।इसलिए वे संसार के धन – ऐश्वर्य के स्वामी बनते हैं ।अतः संसार से जाने से पहले जितना हो सके धर्म कमाओ।याद रखो,’धर्म’ स्वर्ग की मुद्रा है,इससे ही स्वर्ग में प्रवेश मिलेगा अन्यथा नहीं ।
क्रमशः
प्रोफेसर विजेंदर सिंह आर्य
संरक्षक : उगता भारत