उत्तर प्रदेश में जनसंख्या नीति 2021-30 के मसौदे की घोषणा

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श्याम सरन

विश्व जनसंख्या दिवस पर भारत के सबसे ज्यादा आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने अपनी जनसंख्या नीति 2021-30 के मसौदे की घोषणा की है। इसका उद्देश्य राज्य की जन्म दर का सामंजस्य विकास दर से बैठाना है। इस क्रम में जन्म दर वर्ष 2026 तक मौजूदा 2.7 फीसदी से घटाकर पहले 2.1 फीसदी पर लानी है, फिर 2030 तक 1.9 फीसदी करनी है। भारत की औसत जन्म दर 2.2 फीसदी है।

भारत में एक दशक से ज्यादा समय में जन्म दर सूचकांक लगातार नीचे की ओर है। दक्षिण भारतीय राज्यों में हिंदी भाषी पट्टी की बनिस्बत यह कमी काफी तेज हुई है। भले ही उत्तर प्रदेश में आबादी पर अंकुश का उद्देश्य जन्म दर में कमी लाकर इसका तालमेल विकास दर से करवाना है, लेकिन इसके लिए सर्वोत्तम उपाय क्या है? भारत में ‘आयुवर्गीय लाभांश’ (डेमोग्रॉफिक डिवीडेंट) वर्ग में होती जा रही वृद्धि के क्या मायने हैं? अर्थात‍् क्या आबादी में युवाओं की गिनती बढ़ने से कमाऊ श्रेणी में भी उतनी ही बढ़ोतरी हो रही है? क्या हम मालथुसियन डिस्टोपिया नामक बिंदु पर हैं, जहां अनुत्पादक आबादी आर्थिक विकास के लाभ का हिस्सा हड़प रही है?

हमारे गणतंत्र के आरंभिक दिनों में, जनसंख्या नियंत्रण करना हमारी राष्ट्रीय नीति का स्वीकार्य अंग था। याद कीजिए वह नारा ‘हम दो, हमारे दो’। लेकिन एमरजेंसी में संजय गांधी के सामूहिक नसबंदी कार्यक्रम में बरती गई ज्यादतियों की बदौलत जनसंख्या नियंत्रण का विषय राजनीतिक रूप से अछूत बन गया। इसके बाद यह विषय नए रूप में बताया जाने लगा कि आबादी सीमित रखने से आय में वृद्धि और समृद्धि बनेगी। इसका निकट संबंध शिक्षा के प्रसार से है, विशेषकर महिला साक्षरता, शादी की उम्र आगे सरकना और नौकरियों में बढ़ती महिलाओं की संख्या से। यह निष्कर्ष न केवल विकसित देशों के अनुभव से बल्कि देश के भीतर केरल और तमिलनाडु के उदाहरण से भी निकला है, जहां शिक्षा के बढ़े स्तर ने महिला सशक्तीकरण को बढ़ावा दिया है।

वर्ष 1990 के दशक से शुरू होकर देश में आर्थिक सुधार और उदारीकरण वाले चरण में ‘आयुवर्गीय लाभांश’ सिद्धांत यह कहकर बताया गया कि भारत की बढ़ती आबादी में युवाओं का अधिक गिनती होना एक ‘सरमाया’ होगा। जो कि तेज विकास दर पाने के लिए एक मूल्यवान स्रोत होता है। तर्क दिया गया कि अपनी प्रौढ़ आबादी के साथ उत्तर अमेरिका, यूरोप और जापान तेजी से वृद्धावस्था वाली जनसंख्या में तब्दील होने जा रहे हैं, तब उन्हें अपनी विकास दर बनाए रखने के लिए चीनी और भारतीय युवाओं की जरूरत पड़ेगी। भारत के आर्थिक विकास के आरंभिक चरण में देश की बढ़ती जनसंख्या को एक ‘पूंजी’ बताया गया।

लेकिन इस ‘आयुवर्गीय लाभांश’ का फायदा तभी मिल सकता है जब इस श्रेणी के युवा और कमाऊ वर्ग के पास अच्छा रोजगार हो। इसके लिए जरूरी है कि उन उद्योग-धंधों में निवेश हो जहां बड़ी संख्या में रोजगार सृजन हो, लिहाजा ऐसी नीतियां बनें, जिनसे ज्यादा से ज्यादा गिनती में काम-धंधा सृजित हो। युवा वर्ग के कमाऊ होने से आगे उच्चतर शिक्षा, यथेष्ट कौशल और सतत‍् तरक्की की संभावना होती है। अन्य अवयव भी महत्वपूर्ण हैं जैसे कि मानव शक्ति की गुणवत्ता। यह अच्छी स्वास्थ्य सुविधा और शिक्षा तक पहुंच पर निर्भर है। अगर बड़ी संख्या में बच्चे कुपोषण का शिकार हों या अपेक्षित विकास न कर पाएं तो जाहिर है कम उत्पादक होंगे। वर्ष 2050 के आसपास भारत की जन्म दर वृद्धि स्थिर हो जाएगी, इससे पहले कि ‘आयुवर्गीय लाभांश’ वाला चरण समाप्त हो, हमारे पास समय अभी भी बाकी है। यदि देश विगत वाली तेज आर्थिक विकास दर पाकर पर्याप्त रोजगार नहीं बना पाए तो हम लोग निम्न आय के जाल में फंस जाएंगे।

उत्तर प्रदेश की पहल ने कई अन्य महत्वपूर्ण विषय उठाए हैं। क्या नीति मसौदा इस बात की मौन स्वीकृति है कि हम लोग ‘आयुवर्गीय लाभांश’ का फायदा उठाने में असफल रहे हैं और बढ़ती आबादी का अर्थ है देश के उत्पादक वर्ग पर निर्भर बेरोजगार लोगों के अनुपात में इजाफा? उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार लगता है, हमारे पास ‘आयुवर्गीय लाभांश’ का फायदा उठाने को लगभग एक दशक और बचा है। जरूरी है रोजगार-सृजन उन्मुख उद्योगों में विस्तार करने वाली नीतियां बनें और भारत को ‘कम मजदूरी लागत’ वाला देश बनाया जाए। इसी नीति से चीन ने ऊंचाई छुई है और अब वियतनाम और यहां तक कि पड़ोसी बांग्लादेश भी इस पर अमल कर रहा है। किंतु हमारी कुछ मौजूदा नीतियां इस सिद्धांत के उलट हैं। उदाहरणार्थ, उत्पादनबद्ध प्रोत्साहन योजना (प्रॉडक्शन लिंक्ड इंसेन्टिव स्कीम) के अंतर्गत बहुत बड़ी मात्रा में सार्वजनिक धन का निवेश तकनीक-उन्मुख उद्योग-धंधों को बढ़ावा देने में किया जा रहा है, इन में रोजगार सृजन की संभावना अपेक्षाकृत कम होती है। इसकी बजाय हमारा मुख्य ध्यान लघु एवं मध्यम उद्योग स्थापित करने की ओर होना चाहिए, बल्कि अनियोजित क्षेत्र को भी यथेष्ट ध्यान मिलना चाहिए, इससे किए गए निवेश की एवज में कहीं ज्यादा रोजगार पैदा होंगे।

सरकारों का आदेशात्मक तरीके से किया जाने वाला जनसंख्या नियंत्रण विगत में सफल नहीं हो पाया है, और अभी भी होने की उम्मीद कम ही है। चीन में यह तभी हो पाया क्योंकि ‘एक बच्चा’ नीति का पालन कड़े दंडात्मक प्रावधानों से लागू करवाया गया था। वहां भले ही आबादी नियंत्रित करने में काफी हद तक कामयाबी मिली है, लेकिन भारत जैसे एक लोकतंत्र में अमानवीय कार्रवाई करने की अनुमति नहीं होती। हमें एमरजेंसी के वक्त से सबक सीखना चाहिए। भले ही हम कानून के जरिए जन्म दर घटाने की चाहना रखते हैं, लेकिन जो चीज ज्यादा कारगर रही है वह है शिक्षा पर काम करना, खासकर महिलाओं की और उनके लिए रोजगार के मौकों में विस्तार करना। उच्चतर आर्थिक खुशहाली की प्राप्ति होने से जन्म दर में कमी खुद-ब-खुद होने लगती है, यह उपाय उस तरीके से कहीं ज्यादा बेहतर है, जिसमें आर्थिक उन्नति पाने को सरकारें जनसंख्या नियंत्रण कानूनों का सहारा लेती हैं। वैसे भी इस ढंग पर कई सवाल उठ खड़े होते हैं।

हालांकि, उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा प्रस्तुत नीति के कुछ पहलू स्वागतयोग्य हैं। इसमें जच्चा-बच्चा मृत्यदर में कमी, जन्म के बीच अंतराल और मां-बच्चे के संपूर्ण स्वास्थ्य देखभाल को बढ़ावा देना अच्छी बात है। उक्त बिंदु किसी अक्लमंद सार्वजनिक स्वास्थ्य नीति के लिए जरूरी होते हैं। आज हमें जनसंख्या नियंत्रण पर सरकारी नीति की बजाय जरूरत है एक बेहतर स्वास्थ्य नीति और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा नीति और सबसे ऊपर एक सुसंगत आर्थिक रणनीति की।

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