अनूप भटनागर
कोरोना महामारी के दौरान नागरिकों के हित में एक काम बहुत ही महत्वपूर्ण हुआ है और वह है उनके स्वास्थ्य और भोजन के अधिकार की रक्षा। महामारी के दौरान अपने-अपने गृह नगरों की ओर पलायन करने वाले कामगारों के खान-पान की व्यवस्था और नागरिकों के लिये चिकित्सा सुविधाओं को नजरअंदाज करना अब केन्द्र और राज्य सरकारों के लिये आसान नहीं होगा। इसकी वजह, इन दोनों अधिकारों को जीने के मौलिक अधिकार के समान ही माना जाना है।
महामारी के दौरान कामगारों और उनके परिजनों की दयनीय स्थिति और इससे निपटने में केंद्र के साथ ही राज्य सरकारों के उदासीन रवैये को देखते हुए ही उच्चतम न्यायालय ने 31 जुलाई तक असंगठित कामगारों का राष्ट्रीय आंकड़ा बैंक तैयार करने और सभी विस्थापितों को महामारी के दौरान सूखा राशन मुहैया कराने के आदेश दिये हैं। शीर्ष अदालत ने हाल ही में अपने एक फैसले में कहा है कि अनुच्छेद 21 में प्रदत्त जीवन का अधिकार प्रत्येक व्यक्ति को जीवन की न्यूनतम आवश्यकताओं तक पहुंच के साथ गरिमापूर्ण जीवन जीने का अधिकार देता है। बेहतर जीवन के लिए खाद्य सुरक्षा उपलब्ध कराना सभी राज्यों और सरकारों का कर्तव्य है।
यह सही है कि संविधान में भोजन के अधिकार के बारे में कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं है। इस तथ्य को इंगित करते हुए शीर्ष अदालत ने कहा है कि भले ही इस बारे में संविधान में कोई स्पष्ट व्यवस्था नहीं है लेकिन संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत प्रत्येक नागरिक को गरिमा के साथ जीने का अधिकार है और ऐसी स्थिति में भोजन तथा अन्य बुनियादी आवश्यकताओं को इसके दायरे में शामिल होने की व्याख्या की जा सकती है। इसका मतलब साफ है कि अब असंगठित क्षेत्र के कामगारों के मामले में सरकारों का कोई भी ‘किंतु-परंतु’ काम नहीं करेगा और उन्हें नतीजे देने होंगे।
केन्द्रीय मंत्रिपरिषद में विस्तार के बाद अब देश को अधिवक्ता भूपिन्दर यादव के रूप में एक नया श्रम मंत्री मिल गया है। देखना यह है कि नये केन्द्रीय श्रम मंत्री की देखरेख में इन कामगारों को खाद्यान्न तथा दूसरी कल्याणकारी योजनाओं के लाभ उपलब्ध कराने के लिये आवश्यक असंगठित कामगारों के राष्ट्रीय डाटा बैंक को केंद्र सरकार 31 जुलाई तक अंतिम रूप दे सकेगी या नहीं। जहां तक असंगठित क्षेत्र के सभी कामगारों को खाद्यान्न और अन्य बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध कराने का सवाल है तो यह काम असंभव तो नहीं लेकिन काफी चुनौती भरा है।
लेकिन, इसके लिये आवश्यकता है राजनीतिक इच्छाशक्ति और राज्य सरकारों से भरपूर सहयोग की। केंद्र ने सभी कामगारों को उनके कार्यस्थल या निवास स्थान पर ही सूखा राशन उपलब्ध कराने के लिये ‘एक राष्ट्र – एक राशन कार्ड योजना’ शुरू की थी लेकिन यह भी पश्चिम बंगाल, दिल्ली, छत्तीसगढ़ और असम जैसे राज्यों में राजनीति का शिकार हो रही है। इन्हीं तथ्यों के मद्देनजर शीर्ष अदालत ने कहा है कि राज्य सरकारों और केंद्रशासित प्रशासनों को प्रवासी मजदूरों को सूखा राशन उपलब्ध कराने की एक योजना 31 जुलाई तक लानी होगी और ऐसी योजना कोविड की स्थिति बरकरार रहने तक जारी रखनी होगी। मतलब साफ है कि किसी भी स्थिति में कामगारों का पलायन नहीं हो और वे जहां भी कार्यरत हैं वहीं उन्हें खाद्यान्न तथा दूसरी बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध करायी जायें।
कोरोना महामारी की पहली लहर के दौरान देश और दुनिया के साथ ही न्यायपालिका ने भी इन कामगारों की दयनीय स्थिति देखी थी। इन कामगारों ने दिल्ली, महाराष्ट्र, कर्नाटक और ऐसे ही दूसरे राज्यों में कुछ दिन सरकार की मदद के लिये उसका मुंह देखा और इसके बाद वे बदहवासी की स्थिति में भूखे प्यासे अपने परिवार को लेकर पैदल, साइकिल और दूसरे साधनों से बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और ओडिशा जैसे प्रदेशों में अपने गृह नगरों की ओर चल दिये थे।
राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ) के 2017-18 के आंकड़ों के अनुसार करीब 38 करोड़ प्रवासी श्रमिक असंगठित क्षेत्र में कार्यरत हैं। न्यायालय ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि इन असंगठित श्रमिकों को खाद्य सुरक्षा मुहैया कराने की जिम्मेदारी सरकार की है और इसी मकसद के लिये संसद ने राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून, 2013 लागू किया था। जहां तक राज्य के ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के अंतर्गत सभी लोगों को इसमें शामिल करने का सवाल है तो केंद्र सरकार राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून की धारा नौ का इस्तेमाल कर सकती है।
न्यायपालिका की सख्ती का ही नतीजा है कि असंगठित क्षेत्र के कामगारों को अब नि:शुल्क खाद्यान्न और दूसरी सुविधाओं का लाभ मिल सकेगा। यही नहीं, लगातार रूप बदल रहे कोरोना वायरस की चपेट में आ रहे नागरिकों के लिये पहले की तुलना में बेहतर चिकित्सा सुविधाएं मिलना संभव हो रहा है। निकट भविष्य में अगर लोगों के लापरवाही से यह लहर आती है तो केंद्र और राज्य सरकारें इससे निपटने के लिये पूरी तरह सतर्क रहेंगी ताकि कम से कम जन-हानि हो।