638 ईस्वी से लेकर 712 तक नौ खलीफाओं ने 14 आक्रमण भारत पर कराए थे। एक से एक बढ़कर दुर्दांत आक्रमणकारी भारत की ओर एक भयानक राक्षस की भांति आता था और मनमाने अत्याचार कर जनसाधारण को असीम कष्ट देने का प्रयास करता था। इन आक्रमणकारियों का उद्देश्य भारतवासियों को किसी भी प्रकार से इस्लाम के झंडे तले लाना होता था ।इस काल में अनेकों इस्लामिक आक्रमणकारियों का तेज अंधड़ भारत की ओर कई बार दौड़ा चला आया, पर जैसे ही उसका स्पर्श भारत के वीर योद्धाओं की वज्र छाती से होता तो वह निराश और हताश होकर वैसे ही लौटने के लिए बाध्य हो जाता जैसे नदी का तीव्र प्रवाह चट्टान को तोड़ने की इच्छा से उससे टकराता तो है पर निराश होकर उसे छूकर पीछे हट जाता है।
हमारी फूट बनाम इस्लामिक लूट
इस्लामिक और ईसाई इतिहासकारों ने हमारे तत्कालीन भारतीय समाज में सर्वत्र बिखरी हुई फूट को देखा है, इस्लाम की लूट को नहीं। जबकि हमारा मानना है कि उस समय भारतवर्ष में वैसी फूट नहीं थी जैसी वर्णित की गई है। यदि इस्लामिक और ईसाई इतिहासकारों के द6 उल्लेखित की गई फूट जैसी स्थिति भारतवर्ष की उस समय रही होती तो भारत को विजय करने में इस्लाम को किसी भी प्रकार की चुनौती का सामना नहीं करना पड़ता । तब बड़ी सहजता से भारत उनका गुलाम हो गया होता।
‘लूट’ के इतिहास को छुपा दिया कहीं दूर।
महिमामंडन कर फूट का शासन बना क्रूर।।
हमें ध्यान रखना चाहिए कि विश्व में भारत ही एक ऐसा देश है जिसने इस्लाम की चुनौती का देर तक और दूर तक सामना करते हुए अपना अस्तित्व बचाए रखने में सफलता प्राप्त की। इस तथ्य को यदि समझ लिया गया तो हमें अपने बारे में बहुत कुछ ज्ञात हो जाएगा। ऐसी स्थिति में हम अपने विषय में बनाई गई इस भ्रान्त धारणा से बाहर निकल पाएंगे कि हम तो कायरों की भांति सदा पीटते रहे हैं और फूट हमारे राष्ट्रीय चरित्र का एक आवश्यक अंग बन कर रही है? भारत उस समय विदेशी आक्रमणकारियों के आक्रमणों को पछाड़ने और उन्हें तेजी से अपने देश लौटाने के लिए एकताबद्ध होकर खड़ा था। यद्यपि कुछ ‘गद्दार’ उस समय भी थे। ऐसे में केवल देश के इन गद्दारों के बारे में ही सोचते रहना उचित नहीं है। इनकी गद्दारी के चलते देश के प्रति वफादार राष्ट्रभक्त लोगों की राष्ट्रभक्ति और वीरता को नकारना भला कहाँ की समझदारी है ?
इतिहास का ‘कोहिनूर’ राजा दाहिर सेन
भारत के इतिहास का सत्यानाश करने की सौगंध उठाने वाले इतिहासकारों ने भारत के तत्कालीन समाज के वीर योद्धाओं और उन राष्ट्रभक्तों की सर्वथा उपेक्षा की है जिनके कारण उस समय शत्रु बार-बार भारत की ओर आता तो था पर अपने मंतव्य में सफल न होकर निराश होकर लौट जाता था।
हम अपनी इस पुस्तक में अपनी स्वाधीनता के जिस अमर नायक, क्रांतिवीर राष्ट्रभक्त और अपना सर्वस्व राष्ट्रहित में समर्पित करने के लिए कटिबद्ध रहने वाले सिंधु देश के राजा दाहिर सेन का वर्णन करने जा रहे हैं – वह भी भारतीय इतिहास का एक अप्रतिम योद्धा था। जिसने अपना सर्वस्व राष्ट्र के लिए समर्पित किया और भारत की क्षत्रिय परम्परा के आदर्श और उत्कृष्ट स्वरूप को अपनाकर मां भारती की अनुपम और अद्वितीय सेवा की। वह हिमालय जैसा स्वाभिमान और सागर जैसी गंभीरता रखता था। उसकी देशभक्ति की मिसाल समकालीन इतिहास में अन्यत्र मिलनी दुर्लभ है। उसने अपना संपूर्ण जीवन राष्ट्रभक्ति के लिए समर्पित किया इतना ही नहीं जब समय आया तो उसके परिवार के एक – एक बच्चे ने अपना जीवन राष्ट्र सेवा के लिए समर्पित कर दिया। इतिहास के ऐसे ‘कोहिनूर’ को इतिहास के कूड़ेदान में फेंके रखकर हमने कितना बड़ा अपराध किया है ?- इसे समझना सहज ही संभव है।
‘सिंधुपति’ की सम्मानजनक उपाधि
राजा दाहिर सेन को सिंधु देश का राजा बनने का सौभाग्य तो प्राप्त हुआ ही इसके साथ ही उन्हें भारत की प्राचीन वैदिक संस्कृति और वैदिक धर्म की रक्षा करने का भी सुअवसर भी प्राप्त हुआ। वीर योद्धा, देशभक्त और अपने धर्म व संस्कृति की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व लुटाने के लिए समर्पित व संकल्पित राजा दाहिर सेन को इतिहास में सिन्धुपति के नाम से भी पुकारा जाता है। जब वह सिन्धु देश के राजा बने तो वह यह भली प्रकार जानते थे कि उनके ऊपर माँ भारती की सेवा का कितना बड़ा भार आ चुका है ? क्योंकि वह जिस सिन्धुदेश में शासन कर रहे थे उस देश की ओर से ही इस्लामिक आक्रमणकारियों के दल के दल आने आरम्भ हो गए थे । इस्लामिक आक्रमणकारियों के इस प्रकार के टिड्डीदल का सामना करना उस समय सबसे बड़ी चुनौती थी। राजा दाहिर सेन भली प्रकार यह जानते थे कि शासक बनने के पश्चात उन्हें इस प्रकार के टिड्डीदलों का सामना करना पड़ेगा।
“अरबों का भारी टिड्डी दल
उत्पात मचा रहा सीमा पर।
तब भारत का मचलता यौवन था
और नंगी तलवारें सीमा पर।।”
राजा के लिए देश के प्रवेश द्वार की रक्षा करना उस समय सबसे बड़ा जीवनव्रत हो गया था । उस समय उनकी जीत भारत की जीत मानी जाती और उनकी हार भारत की हार मानी जाती, इसलिए राजा के सामने बहुत बड़ी चुनौती थी। इस चुनौती को राजा ने वीर योद्धा की भांति स्वीकार किया। चुनौती को देखकर दूर भागना कायरों का काम है ,जबकि चुनौती को स्वीकार करना वीरता का प्रतीक है। राजा दाहिर सेन के लिए यह संभव नहीं था कि वह चुनौतियों से दूर भागें। इसके विपरीत उन्होंने चुनौतियों को स्वीकार करना अपना धर्म माना। अपनी इसी प्रकार की वीरता सद्बुद्धि और राजनीतिक सूझबूझ के कारण राजा दाहिर सेन को उनके देश के लोग सिंधुपति के नाम से जानते हैं । आज के इतिहास में भी उन्हें इसी नाम से सम्मानपूर्ण स्थान दिया गया है।
(हमारी यह लेख माला मेरी पुस्तक “राष्ट्र नायक राजा दाहिर सेन” से ली गई है। जो कि डायमंड पॉकेट बुक्स द्वारा हाल ही में प्रकाशित की गई है। जिसका मूल्य ₹175 है । इसे आप सीधे हमसे या प्रकाशक महोदय से प्राप्त कर सकते हैं । प्रकाशक का नंबर 011 – 4071 2200 है ।इस पुस्तक के किसी भी अंश का उद्धरण बिना लेखक की अनुमति के लिया जाना दंडनीय अपराध है।)
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत एवं
राष्ट्रीय अध्यक्ष : भारतीय इतिहास पुनर्लेखन समिति
मुख्य संपादक, उगता भारत