जातिवाद का जहर बोते पुरी के शंकराचार्य निश्चलानंद

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पुरी शंकराचार्य निश्चलानंद जैसे लोग आज शंकराचार्य जैसे पद पर बैठकर जातिवाद और रूढ़ीवाद फैला रहें हैं, वे जन्मना जातिव्यवस्था का प्रचार करते हैं, शूद्रों को पढ़नें का अधिकार नहीं है, शूद्रों को मंदिर में प्रवेश करनें का अधिकार नहीं है, छुआछूत शास्त्र सम्मत है इस तरह की भ्रांतियां फैला रहें हैं जिसनें शताब्दियों तक हिंदू समाज का केवल नुकसान ही किया है। पुरी शंकराचार्य के इन दावों को वेद की रोशनी में परखनें पर पता चलता है कि सिवाए पोपलीला के यह और कुछ नहीं है –

शंका – वेदों में शुद्र के अधिकारों के विषय में क्या कहा गया है?

समाधान – स्वामी दयानंद ने वेदों का अनुशीलन करते हुए पाया कि वेद सभी मनुष्यों और सभी वर्णों के लोगों के लिए वेद पढ़ने के अधिकार का समर्थन करते है। स्वामी जी के काल में शूद्रों को वेद अध्यनन का निषेध था। उसके विपरीत वेदों में स्पष्ट रूप से पाया गया कि शूद्रों को वेद अध्ययन का अधिकार स्वयं वेद ही देते है। वेदों में ‘शूद्र’ शब्द लगभग बीस बार आया है। कही भी उसका अपमानजनक अर्थों में प्रयोग नहीं हुआ है और वेदों में किसी भी स्थान पर शूद्र के जन्म से अछूत होने ,उन्हें वेदाध्ययन से वंचित रखने, अन्य वर्णों से उनका दर्जा कम होने या उन्हें यज्ञादि से अलग रखने का उल्लेख नहीं है।

हे मनुष्यों! जैसे मैं परमात्मा सबका कल्याण करने वाली ऋग्वेद आदि रूप वाणी का सब जनों के लिए उपदेश कर रहा हूँ, जैसे मैं इस वाणी का ब्राह्मण और क्षत्रियों के लिए उपदेश कर रहा हूँ, शूद्रों और वैश्यों के लिए जैसे मैं इसका उपदेश कर रहा हूँ और जिन्हें तुम अपना आत्मीय समझते हो , उन सबके लिए इसका उपदेश कर रहा हूँ और जिसे ‘अरण’ अर्थात पराया समझते हो, उसके लिए भी मैं इसका उपदेश कर रहा हूँ, वैसे ही तुम भी आगे आगे सब लोगों के लिए इस वाणी के उपदेश का क्रम चलते रहो। [यजुर्वेद 26 /2]।

प्रार्थना हैं की हे परमात्मा ! आप मुझे ब्राह्मण का, क्षत्रियों का, शूद्रों का और वैश्यों का प्यारा बना दें[ अथर्ववेद 19/62/1 ]।

इस मंत्र का भावार्थ ये है कि हे परमात्मा आप मेरा स्वाभाव और आचरण ऐसा बन जाये जिसके कारण ब्राह्मण, क्षत्रिय, शुद्र और वैश्य सभी मुझे प्यार करें।

हे परमात्मन आप हमारी रुचि ब्राह्मणों के प्रति उत्पन्न कीजिये, क्षत्रियों के प्रति उत्पन्न कीजिये, विषयों के प्रति उत्पन्न कीजिये और शूद्रों के प्रति उत्पन्न कीजिये। [यजुर्वेद 18/46]।

मंत्र का भाव यह हैं की हे परमात्मन! आपकी कृपा से हमारा स्वाभाव और मन ऐसा हो जाये की ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र सभी वर्णों के लोगों के प्रति हमारी रूचि हो। सभी वर्णों के लोग हमें अच्छे लगें, सभी वर्णों के लोगों के प्रति हमारा बर्ताव सदा प्रेम और प्रीति का रहे।

हे शत्रु विदारक परमेश्वर मुझको ब्राह्मण और क्षत्रिय के लिए, वैश्य के लिए, शुद्र के लिए और जिसके लिए हम चाह सकते हैं और प्रत्येक विविध प्रकार देखने वाले पुरुष के लिए प्रिय करे। [अथर्ववेद 19/32/8 ]।

इस प्रकार वेद की शिक्षा में शूद्रों के प्रति भी सदा ही प्रेम-प्रीति का व्यवहार करने और उन्हें अपना ही अंग समझने की बात कही गयी है।

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