गुरुकुल में समिधा हाथ में लेकर शिष्य गुरु के पास क्यों जाता था ?

“समिधा गीली होने अथवा दोषयुक्त होने से कभी अग्नि को धारण नहीं कर सकती। आचार्य के पास जाकर उनकी ज्ञानाग्नि में स्वयम् को जलाए बिना उन जैसा बन पाना सम्भव नहीं और उसके लिये श्रद्धा और मेधा का होना अत्यावश्यक है।”


अग्ने समिधमाहार्षं बृहते जातवेदसे।
स मे श्रद्धां च मेधां च जातवेदाः प्र यच्छतु।।
-अथर्व०१९।६४।१

ऋषिः – ब्रह्मा।
देवता – अग्निः।
छन्दः – अनुष्टुप्।

विनय – जब समिधा अग्नि में डाली जाती है तो बस जल उठती है, अग्निरूप हो जाती है। समिधा में छिपी अग्नि उदबुद्ध हो जाती है, प्रदीप्त अवस्था में आ जाती है। इसीलिए वैदिक काल के जिज्ञासु लोग समित्पाणि होकर (समिधा हाथ में लेकर) गुरु के पास आया करते थे, अपने को समिधा बनाकर गुरु के लिए अर्पित कर देते थे जिससे कि वे अपने गुरु की अग्नि से प्रदीप्त हो जावें। उस वैदिक विधि के अनुसार मैं भी अपने आचार्य के चरणों में उपस्थित हुआ हूं और उनकी अग्नि द्वारा उन-जैसा प्रदीप्त होना चाहता हूँ। मैं जानता हूँ कि प्रदीप्त हो जाना बड़ा कठिन है। प्रदीप्त होने से पहले तो अपने को जला देना होता है। और यह अपने को जला देना तभी किया जा सकता है जब कि मुझमें पूर्ण श्रद्धा हो कि इस जलने द्वारा मैं अवश्य प्रदीप्त व ज्ञानमय हो जाऊँगा। इसलिए पहले तो मुझमें श्रद्धा की ज़रूरत है। इसी तरह गीली होने आदि किसी दोष के कारण यदि समिधा अग्नि को धारण नहीं कर सकती है, तो भी वह प्रदीप्त नहीं हो सकती। इसलिए मुझमें ज्ञान के धारण करनेवाली बुद्धि, मेधा, की भी जरूरत है। श्रद्धा और मेधा के बिना मैं कभी ज्ञान से दीप्त नहीं हो सकता। पर इस श्रद्धा और मेधा को मैं और कहाँ से लाऊँ? मैं तो इन ‘जातवेदाः’ अग्नि से, अपने आचार्यदेव से ही प्रार्थना करता हूँ कि वे मुझे श्रद्धा और मेधा का दान प्रदान करें। वे जातवेदा हैं, उन्हें ज्ञान उत्पन्न हो चुका है, वे ज्ञान की जलती हई अग्नि हैं। अतः वे ‘जातवेदा’ यदि चाहें तो मझे श्रद्धा और मेधा भी दे सकते हैं।
परन्तु अन्त में तो, मैं जो प्रातः-सायं भौतिक अग्नि के लिए अपनी काष्ठ की समिधा लाता हूँ, शिष्यरूप में आचार्याग्नि के लिए अपने शरीर-मन-आत्मा के प्रदीपनार्थ जो तीन समिधायें प्रतिदिन लाता हूँ, राष्ट्रसेवक या धर्मसेवक बनकर राष्ट्राग्नि या धर्माग्नि आदि के लिए जो तदुपयोगी समिधायें लाता हूँ, ये सब-की-सब समिधायें अन्त में उस ‘बृहत् जातवेदाः’ के लिए, उस सब-कुछ जाननेवाले महान् अग्नि के लिए लाता हूँ जो कि सब आचार्यों का आचार्य है, सब अग्नियों का अग्नि है, परम-परम अग्नि है और अन्त में उसी ‘बृहत् जातवेदाः’ से श्रद्धा और मेधा की याचना करता हूँ जो कि परम श्रद्धामय है और मेधा का भण्डार है।

शब्दार्थ – (बृहते) बहुत बड़े, परम (जातवेदसे) जातमात्र के जाननेवाले, ज्ञानयुक्त (अग्नये) अग्नि के लिए मैं (समिधं) समिधा को, प्रदीपनीय वस्तु को (आहार्षं) आहरण करता हूँ, लाता हूँ। (सः )वह (जातवेदाः) ज्ञानयुक्त अग्नि (मे) मुझे (श्रद्धां च) श्रद्धा को भी और (मेधां च) मेधा को भी (प्रयच्छतु) प्रदान करे।


स्रोत – वैदिक विनय। (कार्तिक २६)
लेखक – आचार्य अभयदेव।
प्रस्तुति – आर्य रमेश चन्द्र बावा।

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