Categories
आज का चिंतन पर्यावरण

मनुष्य की ही तरह पशु पक्षियों को भी जीने का अधिकार है

ओ३म्

======


परमात्मा ने संसार में जीवात्माओं के कर्मों के अनुसार अनेक प्राणी-योनियों को बनाया है। हमने अपने पिछले जन्म में आधे से अधिक शुभ व पुण्य कर्म किये थे, इसलिये ईश्वर की व्यवस्था से इस जन्म में हमें मनुष्य जन्म मिला है। जिन जीवात्माओं के हमसे अधिक अच्छे कर्म थे, उन्हें अच्छे माता-पिता व परिवार मिले और जिनके पुण्य कर्म पंचास प्रतिशत की सीमा पर व उससे कुछ अधिक थे उन्हें बहुत अच्छा पारिवारिक वातावरण एवं अन्य सुख-सुविधायें नहीं मिली। बहुत सी जीवात्मायें ऐसी थीं जिनके पुण्य कर्म कम और पाप कर्म अधिक थे। उन आत्माओं को परमात्मा ने मनुष्य से निम्न पशु, पक्षी एवं अन्य थल, जल व नभचर योनियों में उत्पन्न किया है। मनुष्येतर योनियां भी मनुष्यों की ही तरह अपने-अपने पूर्वजन्मों के पुण्य व पाप कर्मों का फल भोग रही हैं। जिस प्रकार से मनुष्यों को यह अधिकार प्राप्त है कि वह अपने निजी जीवन में स्वतन्त्रतापूर्वक निर्भय होकर अपनी इच्छानुसार शुभाशुभ कर्म कर सकते हैं, उसी प्रकार से अन्य योनियों के प्राणियों को भी परमात्मा ने यह अधिकार दिया है कि वह भी अपने-अपने कर्मों का भोग कर आयु पूरी करें और उनके जो भोग कम हो जायें, उसके बाद बचे हुए शेष कर्मों के आधार पर परमात्मा की व्यवस्था से उनका किसी अन्य उपयुक्त योनि में पुनः-जन्म हो।

वैदिक मान्यता है कि कर्मफल के अनुसार मनुष्य का सभी प्राणी योनियों में से किसी भी योनि में जन्म हो सकता है और अन्य योनियों के प्राणी भी अपने कर्म फलों का भोग कर फिर मनुष्य व अन्य योनियों में ईश्वर की व्यवस्था से जन्म प्राप्त करते हैं। अतः मनुष्य को ईश्वर से ज्ञान व विवेक के साधन प्राप्त होने के कारण सत्य व ईश्वर ज्ञान वेदों से प्रेरणा ग्रहण कर सद्कर्म ही करने चाहिये और किसी प्राणी के कर्मफल भोग में बाधक न बनकर साधक ही बनना चाहिये। ऐसा करके मनुष्य के पुण्य कर्मों में वृद्धि होगी जिसका परिणाम इस जन्म सहित परजन्म में सुख व कल्याण की प्राप्ति होगी। जो मनुष्य ऐसा करते हैं वह सौभाग्यशाली है और जो नहीं करते वह हतभाग्य व मूर्ख कहे जा सकते हैं। किसी पशु को अकारण दुख व कष्ट देना, उनकी हत्या करना व करवाना तथा उनके मांस का भोजन रूप में सेवन करना ईश्वर से मनुष्य को प्राप्त ज्ञान वा बुद्धि का अपमान है और इसका दण्ड परमात्मा कर्मों के परिपक्व हो जाने पर इस जन्म के उत्तर भाग व परजन्म में अवश्य देता है। इन प्रश्नों को विचार कर मनुष्य को अशुभ व पापकर्मों के प्रतिदिन त्याग करने में तत्पर रहना चाहिये। जो बन्धु मांसाहार करते हैं, उन्हें आज व इसी समय से इसका त्याग कर देना चाहिये अन्यथा इस कारण से उन्हें अपने भावी जीवन में भारी हानि उठानी पड़ेगी, यह वैदिक सिद्धान्तों के आधार पर सुनिश्चित है। कुछ बन्धु यह प्रश्न भी करते हैं कि बहुत से पापी व भ्रष्टाचारी इस जन्म में सुखी देखे जाते हैं, ईश्वर उन्हें दण्ड क्यों नहीं देता? इसका उत्तर हमें निकृष्ट पशु आदि योनियों में जन्म लेने वाली जीवात्माओं को देखकर हो जाता है। वर्तमान के पापी लोगों को परमात्मा अगले जन्म में नीच योनि में जन्म देकर दण्ड देता है। इस जन्म में हम अपने पूर्वजन्मों की अर्जित पूंजी को ही प्रायः खर्च करते हैं। इस जन्म में हम जो कर्मों की पूंजी, पाप व पुण्य, जमा करेंगे उसको अगले जन्म में खर्च करेंगे, ऐसा अनुमान होता है।

महर्षि दयानन्द ने जहां वेदों का पुनरुद्धार किया वहीं उन्होंने यह भी बताया कि जीवात्मा चेतन होने के कारण ज्ञान व कर्म की शक्तियों एवं गुणों से युक्त है। ईश्वर नित्य व सर्वव्यापक होने सहित स्वभावतः सर्वज्ञ है वहीं जीवात्मा एकदेशी व ससीम होने से अल्पज्ञ है। जीवात्मा वेदों के अध्ययन एवं ईश्वर की उपासना सहित चिन्तन व मनन से अपना ज्ञान तो बढ़ा सकता है परन्तु यह कभी सर्वज्ञ नहीं हो सकता। मनुष्य सभी विषयों में सत्यासत्य का निर्णय भी नहीं कर सकता। इसी कारण से धर्म, परमात्मा एवं जीवात्मा सहित मनुष्य के कर्तव्य एवं अकर्तव्यों से सम्बन्धित सत्य व असत्य के निर्णय में परमात्मा का दिया हुआ ज्ञान वेद परम प्रमाण माना जाता है। इस तथ्य को जान लेने व स्वीकार कर लेने पर मनुष्य का जीवन वास्तविक रूप में मनुष्य का जीवन बनता है अन्यथा वह एकांगी एवं सत्य एवं असत्य मान्यताओं से युक्त जीवन व्यतीत करने को बाध्य होता है। आर्यसमाज की स्थापना भी ऋषि दयानन्द ने लोगों तक वेद के सत्य सन्देशों को पहुंचाने के लिये ही की थी। आर्यसमाज की जो विविध गतिविधियां चलाई जाती हैं, उसके केन्द्र में विश्व के सभी लोगों तक वेदों का सत्य स्वरूप व उसकी शिक्षाओं को प्रचारित करना व उन्हें स्वीकार कराना भी उद्देश्य है। ऐसा करके ही संसार से मनुष्यों की अविद्या दूर होकर सभी प्राणियों को सुख की प्राप्ति हो सकती है। आज भी आर्यसमाज इसी कार्य को विभिन्न रूपों में कर रहा है।

यह संसार अपौरूषेय है जिसे परमात्मा ने बनाया है और वही इसका संचालन कर रहा है। वही परमात्मा जीवात्माओं के पुण्य व पाप कर्मों का फल प्रदाता है। सभी जीवों का वास्तविक न्यायाधीश परमात्मा ही है। वह सर्वव्यापक एवं सर्वान्तर्यामी होने से ब्रह्माण्ड के समस्त जीवों के सभी कर्मों का साक्षी होता है। वह दूसरों की साक्षी लेकर न्याय नहीं करता अपितु अपने सत्य व प्रत्यक्ष ज्ञान के आधार पर, जीवों के प्रत्येक कर्मों का साक्षी होकर, उन्हें उनके प्रत्येक कर्म का उचित मात्रा में, पक्षपात रहित होकर अपने याथातथ्य ज्ञान व विधि विधान से सुख व दुःख रूपी फल देता है। मनुष्य को ईश्वर के कर्मफल विधान को समझना चाहिये और सत्य के ग्रहण करने तथा असत्य को छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिये। ऐसा करके ही उसका मनुष्य जीवन सार्थक हो सकता है। मनुष्य को अपने मार्गदर्शन के लिये वेद, उपनिषद, दर्शन, मनुस्मृति सहित सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय एवं वैदिक विद्वानों के वेदानुकूल ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिये। ऐसा करके वह ईश्वर व जीवात्मा के सत्यस्वरूप सहित अपने कर्तव्यों का बोध प्राप्त कर सकते हैं। ईश्वरोपासना, अग्निहोत्र, पितृयज्ञ आदि के महत्व एवं लाभों का भी उन्हें इससे बोध होता है।

वैदिक धर्म में समस्त धर्म-कर्म कार्यों का उद्देश्य आत्मा की उन्नति सहित धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति है। वेदाध्ययन करने से हमें यथार्थ मनुष्य धर्म का बोध होता है। वैदिक आचरणों व कर्मों से हम अर्थ व जीवन जीने के लिये आवश्यक साधनों को प्राप्त करते हैं। धर्मपूर्वक अर्थ प्राप्ति से हम अपनी मर्यादित आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए सुख देने वाले कार्यों का करते हैं। इसके साथ ही उपासना वा ईश्वर के ध्यान को करते हुए समाधि की अवस्था को प्राप्त होकर ईश्वर साक्षात्कार करना मनुष्य जीवन का उद्देश्य है जो मोक्ष प्राप्ति का कारण बनता है। बिना ईश्वर साक्षात्कार के किसी मनुष्य, योगी, महात्मा, महापुरुष व सन्त आदि को मोक्ष प्राप्त नही हो सकता। ईश्वर का साक्षात्कार भी बिना समाधि अवस्था को प्राप्त किये मनुष्य को नहीं होता। समाधि की प्राप्ति अष्टांग योग के बिना सम्भव नहीं है। अतः मनुष्य धर्म में अष्टांग योग का सेवन व व्यवहार करने का सर्वोपरि महत्व है। अष्टांग योग से रहित धर्म व मत सार्थक न होने से मनुष्य को उसके लक्ष्य मोक्ष पर कभी नहीं पहुंचा सकते। अतः सुख, आनन्द व मोक्ष की प्राप्ति के लिये मनुष्य को वैदिक धर्म एवं योग की शरण में आना ही होगा।

अष्टांग-योग को जानने व आचरण करने वाला मनुष्य पूर्ण अहिंसक बन जाता है और वह सभी प्राण़्िायों जिनमें सभी पशु एवं पक्षी आदि योनियां सम्मिलित हैं, उन्हें अपनी मित्र की दृष्टि से देखता और व्यवहार करता है। ऐसा मनुष्य अहिंसक होने के साथ सभी प्राणियों को जीवन में अभय प्रदान कर उनके सुखों की वृद्धि करता है। इतिहास में ऐसे उदाहरण देखे जाते हैं कि हिंसक पशु सिंह आदि भी अहिंसक मनुष्यों के प्रति अपनी हिंसा की प्रवृति का त्याग कर देते हैं। हमने ऐसी आश्चर्यजनक यथार्थ वीडियों देखीं हैं जिनमें हिंसक शेर आदि पशु मनुष्यों का आलिंगन कर रहे हैं। यह उन मनुष्यों के पशु-पे्रम व उसमें सफलता का उदाहरण कह सकते हैं। ऐसा ही एक वीडियों हमें किसी ने भेजा है जिसमें एक परिवार में पशु हत्या की जा रही है। उस परिवार में 2 से 5 वर्ष के कई बच्चे हैं। वह बच्चे उन पशुओं की प्राण रक्षा के लिये रो रोकर उस पशु को न मारने के लिये कह रहे हैं। यह ऐसा मार्मिक वीडियों है कि जिसे हम पूरा देख भी नहीं सके। अतः हमें पशुओं से प्रेम करना सीखना होगा। वेद में कहा गया है कि मैं सब प्राणियों को मित्र की दृष्टि से देखता हूं। यजुर्वेद में कहा गया है कि जो सब प्राणियों में स्वयं की आत्मा को और अपनी आत्मा में सब प्राणियों की आत्मा को समभाव रखकर देखता है उसका मोह, शोक एवं दुःख दूर हो जाते हैं। अतः हमें सच्चा मनुष्य बनने का प्रयत्न करना चाहिये और सभी पशु-पक्षियों की रक्षा करने का व्रत लेना चाहिये। हमें प्रसन्नता होती है जब हम यह समाचार पढ़ते हैं कि यूरोप के देशों में शाकाहार बढ़ रहा है। अन्य हिंसक मांसाहारी मनुष्यों को यूरोप के उन शाकाहारी मनुष्यों से पे्ररणा लेनी चाहिये जो मांसाहार का त्याग कर चुके हैं।

ईश्वर के अनेक नामों में एक नाम ‘‘दयालु” भी है। ऋषि दयानन्द के नाम में भी दया शब्द का प्रयोग हुआ है। दयानन्द शब्द में दया व आनन्द दो शब्दों का योग है। इससे यह प्रतीत होता है आनन्द की प्राप्ति के लिए मनुष्य का दयावान होना आवश्यक है। ईश्वर अपना आनन्द उन्हीं मनुष्यों को देता है जो सही अर्थों में सभी प्राणियों वा पशुओं के प्रति दयावान होते हैं। हमें सच्चा मनुष्य बनने के लिये ईश्वर के सभी गुणों को धारण करना होता है। यदि हम दयालु नहीं बने तो हम ईश्वर का सहाय व कृपा को प्राप्त नहीं कर सकते। दयालु बनने का अर्थ है कि सभी प्राणियों पर दया करना, प्रेम करना, उनसे सहानुभूति व संवेदना रखना। ऐसा मनुष्य ही वास्तवकि मनुष्य कहला सकता है। हमें सच्चा मनुष्य बनने का प्रयत्न करना चाहिये। जितना जीवन जीने का अधिकार हम मनुष्यों को है, वैसा ही अधिकार परमात्मा द्वारा उत्पन्न सभी अहिंसक पशु व पक्षियों को भी है। इसको जानकर हमें तदवत् व्यवहार करना है। ऋषि दयानन्द ने मनुष्य की परिभाषा करते हुए कहा कि मनुष्य उसी को कहना कि जो स्वात्मवत् होकर अपने व दूसरों के सुख दुःख व हानि लाभ को समझे। मनुष्य को भी सभी प्राणियों के प्रति स्व-आत्म-वत् अनुभूति एवं व्यवहार को करना है। इसी से मनुष्य जाति की रक्षा सहित सृष्टि में समस्त प्राणियों की रक्षा होकर सभी को सुख प्राप्त हो सकता है। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

Comment:Cancel reply

Exit mobile version