इस दौरान प्रशासन किस प्रकार मौन बना रहा या भ्रष्टाचार में लिप्त होकर सरकारी सहायता को जरूरतमंद लोगों तक न पहुंचा कर उस पर खुद मौज मस्ती करता रहा और शासन को असली तस्वीर से किस प्रकार गुमराह करता रहा ? – वह सब बड़ी संजीदगी से लेखक ने इस पुस्तक के माध्यम से हम तक पहुंचाने का सफल प्रयास किया है। आम आदमी के प्रति सुनील प्रसाद शर्मा जी की संवेदनशीलता हर पंक्ति में खड़ी हुई दिखाई देती है।
उपन्यास को एक सत्य घटना का वर्णन करते हुए इतनी रोचक शैली में प्रस्तुत किया गया है कि पाठक पुस्तक को आद्योपांत पढ़कर रुकना ही अपने लिए उचित मानेगा। पुस्तक के प्रारंभ में ही लेखक ने ‘समर्पण’ में नमन, सलाम, आभार, आग्रह और अपेक्षा के साथ जिन शब्द मोतियों को हमारे समक्ष प्रस्तुत किया है उससे उनकी बड़ी बात को कम शब्दों में कहने की विलक्षण प्रतिभा का पता चलता है। वह सरल शब्दों में बड़ी बात को कहने में माहिर हैं। इतना ही नहीं उन्होंने ‘सलाम’ के कॉलम में अपनी उस उदारता का भी परिचय दिया है जो यह बताती है कि वह लॉकडाउन में उन पुलिसकर्मियों, चिकित्सकों आदि को सलाम करना भी नहीं भूले जिन्होंने अपनी सेवाएं बड़ी कर्मठता, निष्ठा और ईमानदारी के साथ निभाईं।
पुस्तक के पृष्ठ संख्या 67 पर मदन नामक पिता अपने बेटे केशव के पैदल चलते चलते थक जाने पर कहता है कि ”तू चिंता मत कर। मैं तुझे कंधे पर उठाकर ले चलूंगा। कोई पहली बार थोड़े ही है, इन कंधों पर बैठाने की तो आदत है मुझे । पहले शौक में बैठाता रहा हूं अब तेरी तकलीफ में भी बैठा लूंगा। कोई नई बात नहीं है, तू मस्त रह। अभी देखते हैं कहीं कोई दवा मिली तो वह भी दे दूंगा।”
इस प्रकार की अनेकों घटनाओं में ऐसा लगता है जैसे सजीव चित्रण कर दुख तकलीफ झेलते लोगों को हमारे सामने खड़ा करने में लेखक पूर्णतया सफल हो गए हैं । वास्तव में किसी भी लेखक की सफलता इसी में है कि वह घटनाओं को सजीवता के साथ चित्रण करते हुए पाठक को उन घटनाओं के साथ जोड़कर खड़ा कर दे।
लेखक के यह शब्द बड़े सटीक हैं कि ‘भैया, सरकार द्वारा लॉकडाउन का आदेश तो आनन-फानन में जारी कर दिया गया ,पर इस आदेश की पालना करने वाले प्रशासनिक अमले ने क्या उतनी ही गंभीरता दिखाई जितनी इस देश के प्रधानमंत्री ने दिखाई ? क्या देश के अन्य राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने लॉकडाउन के दिशा निर्देशों की पालना और इसकी सफलता के लिए अपनी संकुचित पार्टी हित से ऊपर उठकर प्रधानमंत्री के निर्णय को सफल बनाने की चेष्टा की ? क्या केंद्र और राज्य सरकारों में आपसी तालमेल था? – नहीं था भैया, नहीं था।”
लेखक ने बड़ी ईमानदारी से शासन प्रशासन की कर्तव्यनिष्ठा या अकर्मण्यता को स्पष्ट करने का प्रयास किया है। प्रधानमंत्री यदि ईमानदारी के साथ कोरोना की समस्या के प्रति गंभीर थे तो जिन लोगों ने उनकी गंभीरता के साथ समन्वय स्थापित नहीं किया उन्हें भी नंगा करने में लेखक ने किसी प्रकार की कोताही नहीं बरती है। जहां सरकारी अमले को कोसने की आवश्यकता पड़ी है वहां उन्होंने उसे भी कोसने में संकोच नहीं किया है और यदि विपक्ष की भूमिका पर प्रश्नचिन्ह लगाने या केवल राजनीति करते रहने की उसकी नियत पर प्रकाश डालने की बात आई तो उसमें भी उन्होंने किसी प्रकार का संकोच प्रदर्शित नहीं किया है। जिससे यह उपन्यास ईमानदाराना अंदाज में लिखा गया उपन्यास सिद्ध होता है। लेखक ने बिना लाग लपेट के और बिना किसी पूर्वाग्रह के अपनी बात को स्पष्टत: सबके सामने रख दिया है, जो किसी भी पाठक को रुचिकर लगेगा ही। जिसके लिए लेखक बहुत ही बधाई के पात्र हैं।
यह उपन्यास ‘साहित्यागार’ धामाणी मार्केट की गली, चौड़ा रास्ता , जयपुर द्वारा प्रकाशित किया गया है । उपन्यास प्राप्ति हेतु 302003 फोन 0141- 231 0785 व 40 22 382 पर संपर्क कर प्राप्त किया जा सकता है। पुस्तक का मूल्य ₹2225 है ।बहुत ही सुंदर कागज में पुस्तक 143 पृष्ठों में संपूर्ण हो जाती है।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत