न्यायिक व्यवस्था की कैसी विवशता ?

 

देश की न्यायिक व्यवस्था की विवशताओं को समझना अब अति आवश्यक होता जा रहा है l इसके लिए शासन को साहसिक प्रयास करना चाहिए l वास्तव में कानून की कुछ कमियों व अस्पष्टताओं का अनुचित लाभ उठा कर आरोपियों को अपराधी प्रमाणित करने में असमर्थता एक गम्भीर चुनौती बन चुकी हैं l इसी कारण वर्षो से जघन्य अपराधी भी कानून के शिकंजे से बचते आ रहे हैं l दिल्ली दंगों के दोषियों को दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा जमानत देना और 133 पृष्ठों का निर्णय सर्वोच्च न्यायालय को तार्किक समीक्षा के लिये विवश कर सकता है l सर्वोच्च न्यायालय ने जमानत के लिये इतने लंबे निर्णय पर आश्चर्य  व्यक्त किया l

यह कहना कदापि अनुचित न होगा कि “नागरिक संशोधन अधिनियम” के विरोध की आग जो शाहीनबाग में सौ दिन से सुलग रही थी उसकी दुर्गति दिल्ली दंगों के रूप में हुई l उच्च न्यायालय द्वारा इसके दोषियों को सरकार की नीतियों के विरुद्ध प्रदर्शन के सामान्य अधिकारों के अन्तर्गत मानना अवश्य चिंता का विषय है l राजनीति में सत्तारुढ़ दल का विरोध करना अलग बिंदु है, लेकिन शासन के निर्णयों से सहमत न होने का अर्थ यह नहीं कि अभिव्यक्ति के नाम देश विरोधी षड्यंत्र रचने की छूट मिल गयी l संविधान में हमें सरकारी नीतियों औऱ निर्णयों के विरुद्ध केवल शांतिपूर्वक अहिंसात्मक आंदोलन का मौलिक अधिकार है न की अराजकता, आगजनी व अन्य किसी भी प्रकार का हिंसात्मक आंदोलन के लिए उकसाने और रक्तपात कराने का l पिछले वर्ष फ़रवरी माह में हुए दिल्ली दंगों के सूत्रधार सी ए ए के विरूद्ध देशव्यापी आंदोलन भड़काने वाले तत्वों को सामान्य दोषी मानना बहुत बड़ी भूल होगी l

जामिया मिलिया इस्लामिया का छात्र आसिफ इकबाल तन्हा व जेएनयू की छात्राएं एवं पिंजरा तोड़ संगठन की सदस्य नताशा नरवाल और देवांगना कलिता संदिग्ध राष्ट्रद्रोही शरजिल इमाम, उमर खालिद व सफूरा जरग़र के सहयोगी क्यों नहीं हो सकते ? जब दिल्ली के विशेष ट्रायल कोर्ट ने आसिफ़, नताशा व देवांगना की जमानत याचिका तथ्यों के आधार पर खारिज करते हुए स्पष्ट किया कि चार्जशीट के अनुसार फर्जी कागजों को आधार बना कर सिम लिया और उसके द्वारा वाटसएप ग्रुप बनाये l इन ग्रुपों की चैट से यह स्पष्ट होता है कि अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रम्प की दिल्ली यात्रा के अवसर पर दिल्ली में जगह – जगह जाम व दंगों के द्वारा भारत सरकार को विश्व पटल पर बदनाम करने की गहन साजिश रची गयी थी l क्या विशेष ट्रायल कोर्ट द्वारा ऐसे तत्वों पर देशहित में गैरकानूनी गतिविधियां रोकथाम अधिनियम (यूएपीए) लगाना और जमानत न देना अनुचित था ?
उच्च न्यायालय द्वारा 15 जून को इन तीनों को जमानत देने और 133 पृष्ठों पर लिखे हुए निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय को कुछ विसंगति दिखने के बाद भी इनकी जमानत पर कोई रोक नहीं लगाई l फिर भी सर्वोच्च न्यायालय के आदेशानुसार उच्च न्यायालय के इस निर्णय के आधार पर कोई भी पक्षकार भविष्य में कोर्ट में इसका संदर्भ नहीं दे सकेगा और न ही यू.ए.पी.ए. की अनदेखी की जायेगी l

उच्च न्यायालय में सोलीसिटर जनरल श्री तुषार मेहता ने इस निर्णय का विरोध करते हुए जो कहा था उसको अवश्य समझना चाहिए l उनके अनुसार कि “क्या सरकार विरोधी प्रदर्शन में बम फेंकने और लोगों को मारने का भी अधिकार होता है ? फरवरी 2020 के दिल्ली दंगों में लगभग 53 लोग मारे गये और लगभग 700 लोग घायल हुए फिर भी उच्च न्यायालय कह रहा कि “हिंसा नियन्त्रित हो गयी थी”, अतः इस मामले में यू.ए.पी.ए. लागू नहीं होगा l यानी कोई बम प्लांट करता है और बम निरोधक दस्ता उसे निष्क्रिय कर देता है तो क्या अपराध की तीव्रता कम हो जायेगी?”

17 जून की शाम को जमानत पर जब ये तीनों दोषी रिहा हुए तो तिहाड़ जेल के गेट पर स्वागत करने के लिए आये इनके समर्थकों के हाथों में  सी.ए. ए. , एन.आर.सी.  व  एन.पी.आर. आदि के विरूद्ध नारे लिखी हुई तख्तियां थी l साथ ही शरजिल इमाम, उमर खालिद व खालिद सैफी आदि को रिहा करो के नारे भी लगे और ऐसे लिखे हुए बैनर भी हाथों में लिये हुए थे l इतना ही नहीं इनकी रिहाई पर आइसा, एसएफआई व पिंजरा तोड़ सहित अन्य वामपंथी संगठनों ने भी प्रसन्नता व्यक्त की थी l विचार करना होगा कि हमारे देश के तथाकथित बुद्धिजीवियों, सेक्युलरो व लिबरलो की टोलियों ने उच्च न्यायालय के जमानत वाले निर्णय पर चर्चा अवश्य हुई परंतु सर्वोच्च न्यायालय द्वारा की गई आलोचना पर ध्यान ही नहीं दिया गया l उच्च न्यायालय द्वारा जमानत के निर्णय को देश में ऐसे तत्वों द्वारा यह जताया जा रहा है कि अभिव्यक्ति के नाम पर राष्ट्रद्रोह थोपने का प्रयास किया जा रहा था l

यदि ऐसे तत्वों का संघर्ष जारी रखने के दुस्साहस को विरोध प्रदर्शन का ही भाग माना जायेगा तो निकट भविष्य में नित्य नए-नए उभर रहे भारत विरोधी संकटों का सामना करना एवं आतंकवादी घटनाओं पर अंकुश लगाना और अधिक कठिन हो जाएगा l संसद के निर्णयों के विरूद्ध ऐसे आक्रमक तत्वों को साधारण प्रदर्शनकारी मानना सर्वथा देश की सम्प्रभुता पर एक अप्रत्यक्ष संकट को जन्म देगा l अतः देश की न्यायायिक व्यवस्था को देश में उत्पन्न हो रहे राष्ट्र द्रोही तत्वों को कठोरता से निपटने के लिए तैयार करना होगा l अब समय आ गया है कि आंतरिक सुरक्षा के लिये संकट बन रही देश विरोधी शक्तियों को कुचलने के लिए प्रभावकारी आक्रामक नीतियों व क़ानूनों का सहारा लेना होगा l यह राष्ट्रहित होगा कि न्यायायिक व्यवस्थाओं को किसी भी प्रकार की विवशताओं से मुक्त किया जाय l

विनोद कुमार सर्वोदय
(राष्ट्रवादी चिंतक व लेखक)
गाजियाबाद (उत्तर प्रदेश)

Comment: