ओ३म्
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वैदिक साधन आश्रम तपोवन, देहरादून का पांच दिवसीय शरदुत्सव दिनांक 16-10-2019 को आरम्भ हुआ था। प्रातः 5.00 बजे से 6.00 बजे तक योग साधना का प्रशिक्षण साधको को दिया गया था। प्रातः 6.30 बजे से 8.30 बजे तक सन्ध्या एवं यज्ञ सम्पन्न किया गया था। यज्ञ के ब्रह्मा अमृतसर से पधारे पं0 सत्यपाल पथिक जी थे। यज्ञ में मन्त्रोच्चार गुरुकुल पौधा के दो ब्रह्मचारियों द्वारा किया गया था। वृहद-यज्ञ मुख्य यज्ञ-वेदि सहित तीन अन्य वृहद यज्ञकुण्डों में किया गया। कार्यक्रम का संचालन हरिद्वार के आर्य विद्वान श्री शैलेशमुनि सत्यार्थी जी ने बहुत प्रभावशाली रूप में किया। यज्ञ की समाप्ति पर आगरा से पधारे आर्य विद्वान श्री उमेश चन्द्र कुलश्रेष्ठ जी ने यज्ञ पर एक सारगर्भित व्याख्यान दिया। उन्होंने कहा कि हमारा सौभाग्य है कि हम ऋषियों की उपासना की प्रणाली यज्ञ पद्धति से ईश्वर की उपासना करते हैं। उन्होने आगे कहा कि महाभारत युद्ध के बाद आरम्भ भिन्न भिन्न पूजा पद्धतियां आर्यसमाज की वैदिक पद्धति से सर्वथा भिन्न हैं। यजुर्वेद से आपने एक मन्त्र प्रस्तुत कर बताया कि इस मन्त्र में जड़ देवताओं का वर्णन है। उन्होंने कहा कि जल, वायु, सूर्य, चन्द्र, वनस्पति आदि जड़ देवता हैं। यह सब पदार्थ जड़ हैं तथापि इनमें जो दिव्य गुण हैं उनके कारण इन्हें देव कहते हैं। यह सभी पदार्थ हमारे प्राणों की रक्षा करते हैं। वायु, जल, अन्न आदि से हमारे जीवन की रक्षा होती है। यदि सूर्य न हो तो अन्न उत्पन्न नहीं होगा। हम कृषि कार्य करके जो अन्न आदि पदार्थ उत्पन्न करते हैं उसका कारण भी सूर्य, जल, वायु आदि का योगदान ही होता है। आचार्य उमेशचन्द्र कुलश्रेष्ठ जी ने कहा कि पृथिवी सहित वायु, जल, पर्यावरण आदि को सुरक्षित व शुद्ध रखना ही इन देवों की पूजा करना है।
वैदिक विद्वान आचार्य उमेशचन्द्र कुलश्रेष्ठ जी ने कहा कि पर्यावरण को शुद्ध करने के लिये यज्ञ का आविष्कार हमारे ऋषियों ने वेद का अध्ययन कर किया है। सभी जड़ देवताओं का मुख अग्नि होता है। जड़़ देवों की पूजा का अर्थ इन देवों को शुद्ध रखना है। आचार्य जी ने पौराणिकों द्वारा की जाने वाली पूजा पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि जड़ पदार्थों से बनी मूर्ति पर फूल व जल आदि चढ़ाना पूजा नहीं है। वास्तव में वायु व जल आदि को शुद्ध रखना ही वायुदेव तथा जल-देवता आदि की पूजा होती है। वायु को शुद्ध करने का पूजन यज्ञ के माध्यम से किया जाता है। यज्ञ की तीव्र अग्नि में गोघृत एवं साकल्य की आहुति देने से सभी पदार्थों अत्यन्त सूक्ष्म हो जाते हंै और वायु में फैल जाते हैं जिससे वायु शुद्ध होती है। आचार्य जी ने कहा कि वायु के शुद्ध हो जाने से समूचा पर्यावरण शुद्ध एवं पवित्र हो जाता है।
आचार्य उमेशचन्द्र कुलश्रेष्ठ जी ने बताया कि हमारे ऋषियों ने यज्ञ का आविष्कार कर मानवता पर उपकार किया है। संसार में प्रचलित किसी मत-मतान्तर के पास यज्ञ जैसी वायु को शुद्ध करने की पूजा पद्धति नहीं है। उन्होंने कहा कि यज्ञ से सूर्य, चन्द्र, पृथिवी, वायु व जल सहित सभी जड़ देवताओं की पूजा होती है। चेतन देव की चर्चा करते हुए आचार्य जी ने कहा कि प्रथम चेतन देवता मनुष्य की माता होती है। वही बालक को जन्म देती है। मां से बढ़कर कोई देवता नहीं है। महाभारत के अनुसार माता पृथिवी से भी अधिक भारी होती है। इसका कारण व आधार माता का सन्तान के प्रति किया गया त्याग व कष्ट सहन करने का भाव है। चेतन देवताओं में दूसरा देवता मनुष्य का पिता होता है। वह अपने पुत्र व पुत्री सहित परिवार का पालन पोषण करता है। महाभारत के अनुसार पिता का स्थान आकाश से भी बड़ा है। पिता व माता अपनी सन्तानों की उन्नति को देखकर प्रसन्न होते हैं और चाहते हैं कि उनकी सन्तान उनसे भी अधिक बुद्धिमान, ज्ञानी, स्वस्थ व बलवान तथा जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सफलता प्राप्त करने वाली हो। वह अपनी सन्तान की अपने से भी अधिक उन्नति देखना चाहते हैं।
विद्वान आचार्य उमेशचन्द्र कुलश्रेष्ठ जी ने कहा कि हमने वैदिक संस्कृति का ज्ञान न होने के कारण अपने माता व पिता को देवता नहीं समझा। आजकल के माता-पिता अपने बच्चों को मन्दिरों में ले जाते हैं। वहां मूर्तियों को देवता बताया जाता है। इससे बच्चों को यह ज्ञान नहीं होता कि वास्तविक देवता मूर्ति नहीं माता-पिता होते हैं। वर्तमान के पौराणिक लोग मन्दिर की मूर्तियों को चेतन देवता समझते हैं। आचार्य जी ने श्रोताओं का ध्यान दिलाया और कहा कि आजकल लोग अपने माता-पिताओं को वृद्धाश्रम में छोड़ आते हैं। इसका कारण उन्होंने अज्ञानता तथा स्वार्थ से युक्त जीवन पद्धति को बताया। आचार्य जी ने कहा कि तीसरा देवता विद्वान आचार्य होता है। यह मनुष्यों को असत्य वा अविद्या से छुड़ाते हैं। चैथे चेतन देवता अतिथि होते हैं। उन्होंने संन्यासी तथा विद्वानों को सच्चा अतिथि बताया और कहा कि यह समाज में वेदों का प्रचार कर लोगों को सत्यासत्य का ज्ञान कराते हैं। आचार्य जी ने कहा कि आज वेदों की परम्परायें बदल दी गई हैं। वर्तमान समय में लोग अपने सम्बन्धियों को अतिथि मानते हैं। उन्होंने दोहराया कि असली अतिथि विद्वान संन्यासी एवं वानप्रस्थी ही होते हैं। आचार्य जी ने कहा कि पांचवा देवता पति के लिये पत्नी और पत्नी के लिये पति होता है। उन्होंने कहा कि आज पति-पत्नी के संबंधों में बिगाड़ उत्पन्न हो रहा है। उन्होंने पति-पत्नी के संबंधों में बिगाड़ का कारण अज्ञान को बताया।
आचार्य जी ने प्रश्न किया कि चेतन देवताओं की पूजा क्या है? उत्तर में उन्होंने कहा कि माता-पिता तथा वृद्धों को भोजन, वस्त्र, ओषधियां देना तथा आवश्यकता होने पर उनकी सेवा करना, यह चेतन देवताओं की पूजा होती है। उन्होंने बताया कि चेतन देवताओं की पूजा की इस पद्धति से सभी वृद्ध परिवार जन सेवा-शुश्रुषा पाते थे। विद्वान आचार्य जी ने बताया कि इस पूजा के कारण प्राचीन भारत में वृद्धाश्रम की आवश्यकता नहीं थी। आचार्य जी ने आगे कहा कि देवताओं की रचना ईश्वर करता है। ईश्वर ने ही वायु सहित सभी जड़ देवताओं एवं सृष्टि को रचा है। उन्होंने बताया कि परमात्मा ही माता के गर्भ में बालक की रचना करता है। सर्वव्यापक व सर्वान्तर्यामी परमात्मा माता के गर्भ में विद्यमान होने से वही सन्तान के शरीर का निर्माण करता है। आचार्य जी ने मनुष्य की जिह्वा के गुणों का विस्तार से वर्णन किया। उन्होंने कहा कि जिह्वा का तेल व घी का प्रयोग करने पर भी चिकना न होना आश्चर्यजनक है। उन्होंने कहा कि जिह्वा के गुणों को देखकर आधुनिक विज्ञान भी आश्चर्य में पड़ा हुआ है। जिह्वा की रचना परमात्मा ने कैसे की, यह कोई नहीं जानता? हम जो कुछ भी खाते हैं, जिह्वा उसका स्वाद हमें बता देती है कि खाया गया पदार्थ कड़वा, मीठा, तीखा अथवा नमकीन, किस प्रकार का व कैसा था?
आचार्य उमेश चन्द्र कुलश्रेष्ठ जी ने देवता तथा ईश्वर में अन्तर को भी स्पष्ट किया। उन्होंने कहा कि ईश्वर के बनाये जड़ देवता अनेक हैं और सभी मरणधर्मा है। ईश्वर एक है और वह अजन्मा, अनादि व नित्य है। उन्होंने कहा कि संसार के सभी मातायें, पिता, आचार्य आदि देव हैं। यह सभी मरणधर्मा हैं। आचार्य जी ने प्रलय का भी वर्णन किया। उन्होंने कहा कि प्रलय होने पर सभी सूर्य, चन्द्र, पूथिवी, वायु, जल, अग्नि आदि देव नष्ट हो जाते हैं। आचार्य जी ने ईश्वर के एक दिन व एक रात्रि की चर्चा की और कहा कि ईश्वर का 1 दिन 4.32 अरब वर्ष तथा 1 रात्रि 4.32 अरब वर्षों की होती है। इसी को सृष्टि व प्रलय का काल व अवधि कहा जाता है। आचार्य जी ने कहा कि वेदमत से इतर किसी मत व उनके आचार्य व अनुयायियों को देवपूजा व ईश्वर की उपासना का ठीक-ठीक ज्ञान नहीं है। विद्वान आचार्य ने कहा कि ईश्वर अकायम् अर्थात् शरीर रहित होता है। उन्होंने आगे कहा कि ओ३म् व गायत्री मन्त्र का जप, वेदों तथा ऋषियो के ग्रन्थों का स्वाध्याय भी ईश्वर की उपासना है। आचार्य जी के अनुसार ईश्वर के गुणों को जानना और उन्हें धारण करने का प्रयत्न करना उपासना कहलाती है। आचार्य जी ने बताया कि पत्थर व मिट्टी से बने जड़ देवों की मूर्तियां बाजार में बेची जाती हैं। इन मूर्तियों को मनुष्य के द्वारा बनाया गया होता है। जड़ मूर्तियां देवता नहीं हो सकती। उन्होंने श्रोताओं को कहा कि ईश्वर के बनाये जड़ देवों सूर्य, चन्द्र, पृथिवी, अग्नि, वायु, जल आदि की यज्ञ की विधि से पूजा करनी चाहिये और ईश्वर के गुणों की स्तुति कर उसके गुणों को जीवन में धारण कर ईश्वर की उपासना करनी चाहिये। इसके बाद आर्य विद्वान श्री शैलेश मुनि सत्यार्थी जी ने शान्ति पाठ कराया। यजमानों को आशीर्वाद दिया गया। प्रातःकाल का यज्ञ एवं सत्संग यहीं पर समाप्त हुआ। इसके बाद उत्सव का प्रथम दिन होने के कारण आश्रम के प्रांगण में ध्वजारोहण किया गया।
यज्ञ की समाप्ति के बाद आश्रम के प्रांगण में सभी आगन्तुक स्त्री-पुरुषों तथा तपोवन वैदिक निकेतन जूनियर हाईस्कूल, देहरादून के बच्चों की उपस्थिति में ध्वजारोहण हुआ। ध्वजारोहण वयोवृद्ध ऋषिभक्त श्री सुखलाल सिंह वर्मा जी तथा आश्रम के मंत्री सहित उत्सव में पधारे विद्वानों के द्वारा मिलकर किया गया। कार्यक्रम का संचालन श्री शैलेश मुनि सत्यार्थी जी ने बहुत कुशलता से किया। स्कूल की बालिकाओं ने ‘जयति ओ३म् ध्वज व्योम विहारी’ ध्वज गीत गाया। बच्चों के ध्वज गीत के गायन से प्रसन्न होकर अनेक लोगों ने बच्चों को धनराशियां भेंट कीं। इसके बाद गुरुकुल पौंधा के दो ब्रह्मचारियों द्वारा राष्ट्रीय प्रार्थना ‘ओ३म् आ ब्रह्मन् ब्राह्मणों ब्रह्मवर्चसी जायताम्’ का पाठ किया गया। इन ब्रह्मचारियों ने इस मन्त्र का हिन्दी रूपान्तर भी गाकर प्रस्तुत किया। इस अवसर पर अपने उद्बोधन में आर्य विद्वान श्री उमेश चन्द्र कुलश्रेष्ठ ने ओ३म् ध्वज को फहराने की महत्ता बताई। उन्होंने कहा कि ओ३म् शब्द परमात्मा का निज नाम है। परमात्मा ने वेदों में अपने निज नाम ओ३म् को स्वयं ही प्रकट किया है। उन्होंने आगे कहा कि ऋषि दयानन्द की यह इच्छा थी कि सारा संसार वेद की शिक्षाओं एवं व्यवस्थाओं के आधार पर चले।
वैदिक विद्वान कुलश्रेष्ठ जी ने आगे कहा कि विश्व का प्राणीमात्र सुखी रहे, किसी पशु व पक्षी को न दुःख दिया जाये और न ही मारा जाये, यह विश्ववारा वैदिक संस्कृति का चिन्ह है जो ओ३म् शब्द, ओ३म्-ध्वज से व्यक्त होता है। आचार्य जी ने बताया कि सभी मत साम्प्रदायिक श्रेणी में आते हैं परन्तु वेद और ईश्वर का नाम ओ३म् सृष्टि के आरम्भ से संसार में प्रचलित होने से साम्प्रदायिक नहीं है। उन्होंने नासा के वैज्ञानिकों का उल्लेख कर बताया कि सूर्य के घूमने व उससे ऊर्जा के उत्सर्जित होने से भी ओ३म् की ध्वनि उत्पन्न हो रही है। विद्वान आचार्य ने कहा कि ओ३म् की ध्वनि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त है। आचार्य जी ने आर्य कालेज पानीपत से जुड़ा ओ३म् ध्वज विषयक एक प्रकरण भी सुनाया। उन्होंने कहा कि इस प्रकरण में कानून मंत्रालय ने यह व्यवस्था दी थी कि ओ३म् का ध्वज राष्ट्रीय ध्वज से ऊंचा हो सकता है। इसके बाद केन्द्रीय मंत्री श्री विष्णु नरहरि गाडगिल ने आर्य कालेज पानीपत में आकर राष्ट्रीय ध्वज फहराया था। इस अवसर पर यह बात भी सरकार की ओर से कही गई थी कि ओ३म् ध्वज साम्प्रदायिक नहीं है और यह राष्ट्रीय तिरंगे ध्वज से ऊंचा हो सकता है। उन्होंने कहा कि आर्यसमाज द्वारा ओ३म् ध्वज विश्व के कल्याण के लिये फहराया जाता है।
आश्रम के मंत्री श्री प्रेम प्रकाश शर्मा जी ने भी ध्वजारोहण के अवसर पर उत्सव में पधारे बन्धुओं को सम्बोधित किया। उन्होंने बताया कि आश्रम में वर्ष में दो बार उत्सव का आयोजन होता है। उन्होंने कहा कि आप लोग यहां सभी कार्यक्रमों में भाग लें और विद्वानों को ध्यान से सुनंे। विद्वानों के विचारों व संस्कारों की सम्पत्ति को आप यहां से अपने साथ लेकर जायें। आप यहां विद्वानों के जो उपदेश सुनें उस पर आचरण करने का भी प्रयत्न करें। आप सबके घरों पर ओ३म् का ध्वज फहराना चाहिये। यह भी वेदों के प्रचार में सहायक होता है। श्री शर्मा ने सभी श्रोताओं को दैनिक यज्ञ करने का परामर्श दिया और बताया कि इससे अनेक लाभ होने सहित इससे ईश्वर तथा हमारे पूर्वजों ऋषियों की आज्ञाओं का पालन भी होता है। कार्यक्रम का संचालन कर रहे श्री शैलेशमुनि सत्यार्थी जी ने कहा कि आप तपोवन आश्रम में तप करने के लिये आयें हैं। यहां पांच दिन रहकर आप यदि दिन भर तप करेंगे तो इससे आपको सात्विक ऊर्जा प्राप्त होगी। जब आप अपने घरों को लौटे तो यहां जो उत्तम विचार सुनें हैं, उसका अपने सभी परिवारजनों व मित्रों में प्रचार करें। इसके बाद गुरुकुल के ब्रह्मचारियों ने शान्तिपाठ कराया एवं जयघोष लगवाये। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य