श्री मोहन भागवत ‘कथा’
देशबन्धु
पुरानी कहावत है नौ सौ चूहे खाकर बिल्ली हज को चली। भारत को हिंदू राष्ट्र और हरेक भारतीय को हिंदू बताने वाले लोग अगर अचानक लोकतंत्र की बात करने लगे। हिंदू-मुसलमान में कोई भेद न होने की बात करने लगें, तो ऐसी ही कहावतें याद आने लगती हैं। अब अचानक हृदय परिवर्तन होना तो लगभग असंभव है। गांधी-नेहरू की शिक्षा, उनकी राजनीति और आदर्शों पर जो लोग आजीवन सवाल उठाते रहें, जो लोग हिंदू धर्म की रक्षा और गौरव के सवाल को जीवन का उद्देश्य बनाकर चलते रहे, वे एकदम से धर्म से ऊपर उठकर राष्ट्रीय एकता की बात कर रहे हैं, तो आश्चर्य होगा ही। इस वक्त कुछ ऐसा ही अचरज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत के एक बयान से हो रहा है।
रविवार को गाजियाबाद में राष्ट्रीय मुस्लिम मंच द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में ‘हिन्दुस्तानी प्रथम, हिन्दुस्तान प्रथम’ विषय पर संघ प्रमुख मोहन भागवत ने कहा कि सभी भारतीयों का डीएनए एक है, चाहे वो किसी भी धर्म के क्यों न हो। लोगों के बीच पूजा पद्धति के आधार पर अंतर नहीं किया जा सकता है। उन्होंने कहा कि यह सिद्ध हो चुका है कि हम 40 हजार साल से एक ही पूर्वज के वंशज हैं। भागवत ने कहा कि भय के इस चक्र में न फंसे कि भारत में इस्लाम खतरे में है। उन्होंने कहा कि विकास देश में एकता के बिना संभव नहीं है। एकता का आधार राष्ट्रवाद और पूर्वजों का गौरव होना चाहिए। उन्होंने कहा कि हिंदू-मुस्लिम संघर्ष का एकमात्र समाधान ‘संवाद’ है, न कि ‘विसंवाद’। मोहन भागवत ने कहा कि भारत में इस्लाम को किसी तरह का खतरा नहीं है।
मुसलमानों को इस तरह के किसी डर में नहीं रहना चाहिए। यदि कोई हिंदू कहता है कि किसी मुसलमान को यहां नहीं रहना चाहिए तो वह व्यक्ति हिंदू नहीं हो सकता। वहीं मॉब लिंचिंग में शामिल लोगों पर हमला बोलते हुए भागवत ने कहा कि ऐसे लोग हिंदुत्व के खिलाफ है। गाय एक पवित्र जानवर है लेकिन जो लोग दूसरों को मार रहे हैं वे हिंदुत्व के खिलाफ जा रहे हैं। कानून को बिना किसी पक्षपात के उनके खिलाफ अपना काम करना चाहिए। मोहन भागवत ने कहा कि हम एक लोकतंत्र में हैं। यहां हिंदुओं या मुसलमानों का प्रभुत्व नहीं हो सकता। यहां केवल भारतीयों का वर्चस्व हो सकता है। भागवत ने अपने संबोधन की शुरुआत करते हुए कहा कि वह न तो कोई छवि बनाने के लिए कार्यक्रम में शामिल हुए हैं और न ही वोट बैंक की राजनीति के लिए। उन्होंने कहा कि संघ न तो राजनीति में है और न ही यह कोई छवि बनाए रखने की चिंता करता है।
श्री भागवत के इन उद्गारों को सुनकर एकबारगी लगता है कि हम कोई भागवत कथा के श्रोता बन गए हैं, जहां सब कुछ मोह-माया है, वाला ज्ञान बंट रहा है, वो भी बिल्कुल मुफ्त। लेकिन इस कथा के सम्मोहन से बाहर आएं तो सारा मंजर साफ दिखाई देने लगेगा। उत्तरप्रदेश में जल्द ही चुनाव होने हैं और भाजपा की सत्ता यहां दांव पर है। राम मंदिर बनना शुरु हो चुका है, लेकिन इसमें जिस तरह की कथित भ्रष्टाचार की खबरें बाहर आ रही हैं, उससे लोगों का भरोसा राम के नाम पर वोट लेने वालों से डिग सकता है। किसान आंदोलन के नेताओं ने भी ऐलान कर दिया है कि वे भाजपा के खिलाफ वोट डालने की अपील करेंगे। पंचायत चुनाव में भाजपा को ये नजर आ गया कि समाजवादी पार्टी से उसे कड़ी टक्कर मिल सकती है। और सबसे बड़ी बात भाजपा के भीतर ही अब कलह होने लगी है, जिसका असर चुनाव पर पड़ सकता है।
लिहाजा भाजपा अभी से अपनी जमीन तैयार करने में लगी है। सवर्ण वोट उसके पाले में पहले से हैं, अब पिछड़ों, दलितों और अल्पसंख्यकों पर भी नजर है। सोशल इंजीनियरिंग साधने में संघ भाजपा की मदद कर रहा है। मोहन भागवत भले ये कहें कि संघ राजनीति में नहीं है या वे वोट बैंक की राजनीति के लिए नहीं आए हैं, लेकिन उत्तरप्रदेश में भाजपा सरकार के भीतर खींचतान मचती है, या कोई बदलाव करना होता है तो संघ की बैठकें और उसके पदाधिकारियों की आवाजाही सारा सच बयान कर देती है। हकीकत ये है कि भाजपा पर संघ का प्रभाव है।
इसलिए हिंदुत्व की राजनीति का बोलबाला इस वक्त है। मॉब लिंचिंग की निंदा करना एक बात है, लेकिन क्या श्री भागवत ये सवाल उठा सकते हैं कि भीड़ की हिंसा के शिकार अक्सर अल्पसंख्यक और दलित ही क्यों होते हैं। क्यों मुसलमानों के खान-पान पर सवाल उठाए जाते हैं, उनकी देशभक्ति के सबूत बार-बार मांगे जाते हैं। अगर देश में केवल भारतीयों का वर्चस्व होना चाहिए, तो क्यों कुछ भाजपा नेता विरोधियों को पाकिस्तान जाने की सलाह देते हैं। अगर हिंदू-मुसलमान एक हैं तो फिर अयोध्या और अब काशी-मथुरा जैसे विवाद क्यों खड़े हो रहे हैं। उत्तरप्रदेश में लवजिहाद जैसे जुमले कहां से आए, धर्मांतरण को लेकर विवाद क्यों खड़े हुए। ऐसे कई सवाल मोहन भागवत से पूछे जा सकते हैं। लेकिन उनके जवाब शायद कभी नहीं मिलेंगे। क्योंकि ये बयान उत्तरप्रदेश चुनाव के पहले के हैं, चुनाव के बाद शायद डीएनए से लेकर राष्ट्रीय एकता तक कई परिभाषाएं बदल जाएं।