पर्यावरणवादियों का मानना है कि ‘बड़े बांधों’ से पर्यावरण को उठाना पड़ता है भारी नुकसान
आलोक शुक्ला
बांधों के निर्माण की प्रक्रिया काफी जटिल, खर्चीली और लंबे समय तक चलने वाली होती है। इनका विकल्प यही है कि हमें नदियों पर छोटे-छोटे बांध बनाने चाहिए। इसके साथ ही प्राकृतिक जल स्रोतों के माध्यम से जल संग्रहण व सिंचाई के लिए गांव-गांव में नए तालाबों, कुंओं, नहरों का निर्माण और पुराने भंडारण माध्यमों के रख-रखाव पर ध्यान देना होगा। तभी पर्यावरण को हो रहे नुकसान की थोड़ी-बहुत भरपाई हो सकेगी।
बड़े बांधों के निर्माण और उनके नफे-नुकसान पर लंबे समय से अंतहीन चर्चा हो रही है। जिन्हें फायदा नजर आता है वे जल संधारण, सिंचाई की सुविधा, विद्युत उत्पादन जैसे लाभ गिनाते हैं और जिन्हें नुकसान दिखाई देता है वे पर्यावरण को हो रही क्षति की बातें करते हैं। इस बहस के बीच सारी दुनिया में पिछले 100 वर्षों से कहीं न कहीं छोटे-बड़े बांधों का निर्माण जारी है।
पूरी दुनिया में 58,713 बड़े बांध हैं। चीन में सबसे ज्यादा 23,841 बड़े बांध हैं। इस तरह विश्व के लगभग 40 फीसदी बड़े बांध चीन में हैं। दूसरे स्थान पर अमेरिका है जहां 9263 बड़े बांध हैं। 4407 बांधों के साथ भारत तीसरे स्थान पर है। जापान में 3112 वृहद बांध हैं और वह चौथे स्थान पर है जबकि 1411 बांधों के साथ ब्राजील पांचवें स्थान पर है। आंकड़ों के अनुसार 93 प्रतिशत बड़े बांध केवल 25 देशों में हैं जिनमें भारत भी शामिल है।
चीन इस समय हुबेई प्रांत में यांग्त्जी नदी पर दुनिया का सबसे बड़ा बांध बना रहा है। इसके जलाशय का कुल क्षेत्रफल 1045 वर्ग किलोमीटर है। यह इतना विशाल है कि इसमें आई एक छोटी सी दरार को भी तुरंत ठीक नहीं किया तो चीन के अलावा इसके आसपास के देशों को इस चूक की भारी कीमत चुकानी पड़ेगी।
बांध का निर्माण कांक्रीट, चट्टानों, लकड़ी अथवा मिट्टी से किया जाता है। इनका निर्माण तीन प्रकार से किया जाता है। इनमें पहला प्रकार गुरुत्वीय पद्धति से बनाये बांधों (ग्रेविटी डैम) का है। कांक्रीट से बने इन बांधों का आधार चट्टानों को बनाया जाता है। भारत में सतलुज नदी पर बना भाखड़ा नांगल बांध इसका उदाहरण है। भाखड़ा नांगल बांध भूकंपीय क्षेत्र में स्थित विश्व का सबसे ऊंचा गुरुत्वीय बांध है। दूसरी पद्धति से बने बांधों को चाप बांध कहते हैं। इनका निर्माण जल की ओर मुड़ी चाप की भांति किया जाता है। केरल में पेरियार नदी पर कुरवान तथा कुरती नामक दो ग्रेनाइट पहाड़ियों पर बनाया गया इद्दूकी एक चाप बांध है जिसकी ऊंचाई करीब 550 फुट है। मिट्टी व चट्टानों से बने विशाल बांधों को तटबंध या रॉकफिल कहते हैं। उत्तराखण्ड राज्य के टिहरी जिले में गंगा की प्रमुख सहयोगी भागीरथी व भीलांगना के संगम पर निर्मित टिहरी रॉकफिल का उदाहरण है।
भारत सहित विश्व के बहुत से देशों में पर्यावरणवादी बड़े बांधों को पर्यावरण के लिए बड़ा खतरा मानते हैं तथा इसके खिलाफ प्रदर्शन, धरना तथा लंबे समय तक आंदोलन करते रहे हैं। मध्य प्रदेश में नर्मदा नदी पर सरदार सरोवर परियोजना के अंतर्गत ओंकारेश्वर बांध के निर्माण के विरोध में खंडवा जिले में वर्ष 2012 में लोगों ने जल सत्याग्रह किया था। इस बांध के कारण हजारों एकड़ उपजाऊ जमीन पानी में डूब गई है तथा कई गांव जलमग्न हुए थे। इन गांवों के लोगों ने गले तक पानी में खड़े होकर ‘जल समाधि’ आंदोलन किया था। गुजरात में नर्मदा नदी पर बने सरदार सरोवर का पानी महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश के कई जिलों को प्रभावित करता है। इसकी ऊंचाई बढ़ाने के खिलाफ भी लंबा आंदोलन हुआ था। टिहरी बांध के निर्माण के खिलाफ भी आवाज उठाई गई थी। बांध में पुराने टिहरी शहर और 37 गांव पूरी तरह डूब गये और 125 गांव प्रभावित हुए हैं।
छत्तीसगढ़ में सुकमा जिले (बस्तर संभाग) के कोंटा के दर्जन भर से अधिक गांवों के नागरिक आंध्र प्रदेश में गोदावरी नदी पर बन रहे पोलावरम बांध से प्रभावित हैं। ये गांव शबरी नदी के किनारे बसे हैं। गांव वाले दो दशकों से सरकार से अपनी समस्या सुलझाने का आग्रह कर रहे हैं। राज्य में 3 सरकारें बनीं और बदल गईं पर इनकी मुश्किलें अब तक सुलझाई नहीं जा सकी हैं।
पर्यावरणवादियों का कहना है कि बड़े बांधों से हमारी उपजाऊ जमीन, जीव-जंतुओं की कई प्रजातियां और बड़ी संख्या में जंगल खत्म हो चुके हैं। बांधों में क्षमता से अधिक पानी भरने पर बाढ़ जैसे हालात उत्पन्न हो जाते हैं। कैचमेंट एरिया के कई गांवों को खाली कराना पड़ता है। जन और संपत्ति का बड़े पैमाने पर नुकसान होता है।
बांधों के आसपास पानी जमा होने के कारण वनस्पतियां और अन्य जीवन नष्ट हो जाते हैं। पानी में सड़ने के बाद इनसे बड़ी मात्रा में कार्बन का उत्सर्जन होता है जिससे वायुमंडल दूषित होता है। बहाव रुक जाने के कारण पानी स्थिर हो जाता है और जलाशय के तल में ऑक्सीजन की कमी हो जाती है। जलाशय के तल में अनेक वस्तुएं सड़ती रहती हैं जो मीथेन गैस बनाती है। मीथेन एक खतरनाक ग्रीनहाउस गैस है जो वायुमंडल में विलीन होकर जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार है।
नदियों के आंतरिक और बाह्य क्षेत्रों में कार्बनिक पदार्थ प्रभावित होते रहते हैं। ये आम तौर बहते रहते हैं पर जब पानी इक_ा हो जाता है तो बांधों के मुहाने पर एकत्र होने लगते हैं। ये बड़ी मात्रा में ऑक्सीजन शोषित करते हैं। कई बार ऐसे शैवाल भी उत्पन्न हो जाते हैं जो बड़ी मात्रा में ऑक्सीजन का शोषण कर मृत क्षेत्र का निर्माण करते हैं। जलाशयों के पानी में पौधों के सड़ने से कार्बनिक पदार्थ, अकार्बनिक पदार्थों में बदलते हैं। ऐसी स्थिति में मरकरी परिवर्तित होकर मिथाइल मरकरी बन जाता है। यह मिथाइल मरकरी जलचर में जमा होता है। इन मछलियों को खाने वालों मनुष्य और वन्य जीवों पर इसका स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है।
एक और बड़ी समस्या यह होती है कि जलाशय की सतह और गहराई के बीच पानी का तापमान भिन्न हो सकता है। मुख्यत: जब बांधों से नदी में विषम तापमान वाला और ऑक्सीजन रहित पानी छोड़ा जाता है तो इससे जीव-जन्तुओं और वातावरण को व्यापक नुकसान होता है ।
बांधों के निर्माण को मानव के विकास के साथ जोड़ने की कोशिश की जाती है लेकिन विकास की कीमत बांध क्षेत्र के लोगों को विस्थापन के रूप में चुकानी पड़ती है। पुनर्वास किए गए लोगों को वर्षों बीत जाने के बाद भी डुबान क्षेत्र में गयी जमीनों के मुआवजे नहीं मिलते और न ही उनके व्यवस्थित पुनर्वास की ओर ध्यान दिया जाता है। अपनी संस्कृति व मूल जगह को छोड़कर निर्वासित जीवन बिताने वालों की पीड़ा शब्दों में बयान करना मुमकिन नहीं है।
विश्व के ज्यादातर देशों में बांधों के निर्माण का वांछित एवं अनुमानित लाभ नहीं मिल सका है। सिंचाई, पनबिजली उत्पादन के लक्ष्य भी हासिल नहीं हुए हैं। बांधों के निर्माण की प्रक्रिया काफी जटिल, खर्चीली और लंबे समय तक चलने वाली होती है। इनका विकल्प यही है कि हमें नदियों पर छोटे-छोटे बांध बनाने चाहिए। इसके साथ ही प्राकृतिक जल स्रोतों के माध्यम से जल संग्रहण व सिंचाई के लिए गांव-गांव में नए तालाबों, कुंओं, नहरों का निर्माण और पुराने भंडारण माध्यमों के रख-रखाव पर ध्यान देना होगा। तभी पर्यावरण को हो रहे नुकसान की थोड़ी-बहुत भरपाई हो सकेगी।
छत्तीसगढ़ सरकार बड़े उद्योगों की जगह मध्यम व लघु उद्योगों को प्रोत्साहन देने की नीति बना रही है। दूसरी तरफ बोधघाट जैसी बड़ी सिंचाई परियोजना पर फिर काम शुरू हो रहा है। पर्यावरणीय कारणों से 1994 में इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया गया था। दुनिया भर में बड़े बांधों का विरोध हो रहा है तब सरकार को इस परियोजना की व्यवहार्यता के बारे में सोचना होगा। जिस तरह लघु उद्योग नीति पर बल दिया जा रहा है उसी तरह सरकार को मध्यम व लघु सिंचाई परियोजनाएं बना कर राज्य का विकास करना चाहिए।