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एशिया क्यों पीछे रह गया यूरोप या अमेरिका क्यों आगे चले गए ?

 

एशिया क्यों पीछे रह गया, यूरोप या अमरीका क्यों आगे चले गये? ऐसे सवालों के जवाब ढूँढने में एक शब्द आता है ‘रिनैशां’ या पुनर्जागरण। यह माना जाता है कि यूरोप भी सो रहा था, मगर एशिया से पहले जाग गया। एशिया कुछ देर से जागा। अगर बृहत इतिहास में देखें तो चार सौ साल बाद जागा। कुछ क्षेत्र जागे ही नहीं, अब तक सो रहे हैं। कुछ जाग कर भी अंगड़ाई लेते, सुस्ताते, धीमे-धीमे चलते रहे।

एक भारतीय लेखक ने अपनी किताब ‘इंडियन रिनेशां’ में भारतीय पुनर्जागरण को इक्कीसवीं सदी की चीज बतायी है। यानी हम यही कुछ बीस-तीस बरख पहले जागे। उससे पहले हज़ार वर्ष सोते रहे। हम मध्ययुगीन जीवन जी रहे थे। अब भी जहाँ-जहाँ बैल खेत जोत रहे हैं, वहाँ मध्ययुगीन जीवन ही माना जा रहा है।

मैं लेखक संजीव सान्याल की इस परिभाषा से पूरी तरह सहमत नहीं। न ही भारतीय रिनैशां का यह किताबी अर्थ है। यह ठीक है कि राजीव गांधी के बाद से उदारीकरण आया और भारत तेजी से बदलने लगा, अर्थव्यवस्था ने उछाल ली, मगर वह रिनैशां नहीं। हमने मौलिक खोज क्या की? कलाएँ क्या विकसित की? साहित्य में क्या बदलाव किए? कितने नोबेल मिले? कौन सा धरतीफाड़ शोध (ग्राउंडब्रेकिंग रिसर्च) किया?

जो असल भारतीय रिनैशां काल था, जिसे कुछ लोग बंगालियों की बहुलता के कारण ‘बंगाल रिनैशां’ कहते हैं, उस समय क्या हुआ था?

एक व्यक्ति अल्बर्ट आइंस्टाइन के साथ मिल कर ऐसा सिद्धांत देता है, जिस पर छह नोबेल मिल चुके, और आगे भी मिलेंगे। एक परिवार ऐसा जिसके हर व्यक्ति ने कुछ रच दिया हो, कोई कला के नए आयाम रख रहा हो, तो कोई साहित्य के। चालीस वर्ष से कम के दो युवक सात समंदर पार जाकर अपने पदचिह्न छोड़ जाते हैं। कोई गणित में तो कोई धर्म और दर्शन में। एक वैज्ञानिक ऐसा जो सदी के सबसे बड़े आविष्कार में एक कर जाता है, और अपने विज्ञान से जॉर्ज बर्नार्ड शॉ को रुला देता है। वहीं एक वैज्ञानिक ऐसा, जो बिना भारत से बाहर कदम रखे, विज्ञान में नोबेल जीतने वाला पहला एशियाई बनता है।

हज़ार वर्ष से देश सोया नहीं था। देश कभी सोता नहीं। विज्ञान की आधुनिक दुनिया में कदम रखने का एक ‘भारतीय’ तरीका भी हो सकता है, यह बात कम सोची और लिखी गयी। यह तरीका आज से नहीं, सदियों से था। जब एक रोमन को कहा गया कि ऐसी संख्या लिखें, जिससे पृथ्वी पर रेत के कुल कणों की संख्या का बोध हो, वह एक दीवाल पर M लिखता गया, मगर पूरा न लिख सका। एक होटेनटोट अफ़्रीकी के लिए सबसे बड़ी संख्या ही तीन थी। वहीं भारतीय यह जुगाड़ (हल) पहले ही तलाश चुके थे।

खैर, मैं उस हज़ार वर्ष पूर्व के भारत की बात नहीं करुँगा। मैं उस नए भारत और नयी दुनिया की बात करुँगा, जिसमें हम रह रहे हैं। पाकिस्तान पर लिखे लेखों में मैंने भौतिकविद अब्दुस सलाम की बात की, जो कहते थे कि उन्हें सिद्धांत अल्लाह (ईश्वर) के माध्यम से मिलते हैं। उन्होंने अपना पहला हल एक भारतीय गणितज्ञ रामानुजम प्रॉब्लम का किया था। जब रामानुजम से लंदन में यही प्रश्न किया गया था, तो उन्होंने भी यही उत्तर दिया था कि ईश्वर उन्हें स्वप्न में आकर हल बताते हैं। ज़ाहिर है वैज्ञानिकों ने उन्हें खारिज करते हुए कहा कि भला ये कौन से ईश्वर हैं, जो इनके स्वप्न में ही आते हैं, हमारे नहीं आते।

भारतीय विज्ञान नहीं कर सकते। प्रयोग नहीं कर सकते। एक इतने विशाल और मनुष्यों के समुद्र देश ने आविष्कार बहुत कम किए। हमारे आस-पास का लगभग हर एक यंत्र, हर एक वैज्ञानिक सिद्धांत, हर एक दवाई, पश्चिम की खोज है। आज़ाद भारत में रह रहे किसी वैज्ञानिक को विज्ञान का नोबेल पुरस्कार नहीं मिला। अगर अशोक सेन को छोड़ दिया जाए, तो नोबेल के बाद के पुरस्कार (जैसे वूल्फ़ पुरस्कार या मिलेनियम टेक्नोलॉजी पुरस्कार) भी भारत को नहीं मिले। भारत का एक भी विश्वविद्यालय विश्व के शीर्ष दो सौ संस्थानों में नहीं।

लेकिन, फिर भी भारत विकास कर रहा है। सड़कें चौड़ी हो रही हैं। आय बढ़ रही है। सकल उत्पाद बढ़ रहा है। तकनीक के शीशमहल आइटी पार्कों में दिख रहे हैं। भारत दुनिया का सबसे बड़ा तकनीकी सहयोग केंद्र बन चुका है। हर महत्वपूर्ण दवाई के ट्रायल भारत में हो रहे हैं। आविष्कार चाहे कहीं हो, उपयोग भारत में होता है। लोग कह सकते हैं, ‘जब सब कुछ चंगा है ही तो ख़्वाह-म-ख़्वाह विज्ञान और प्रयोग की आवश्यकता क्या है?’

दुनिया के अमीर देश जैसे कतार और सऊदी अरब में कौन से प्रयोग होते हैं? यूरोप के आधे से अधिक देश कोई कालजयी प्रयोग नहीं कर सके। चीन जैसे बड़े देश में रह कर भी सिर्फ़ एक ही वैज्ञानिक नोबेल पुरस्कार लायक हुए। उनसे कहीं अधिक तो जापान जैसे छोटे देश ने आविष्कार किए और नोबेल पाए। अगर एशिया से इज़रायल और जापान छाँट दिए जाएँ, तो मौलिक वैज्ञानिक चेतना अति-सीमित ही कहलाएगी।

रिनैशाँ का दूसरा फ़ेज इसी विषय की पड़ताल है कि क्या वाक़ई भारत में वैज्ञानिक चेतना नहीं?

मैं कुछ आरोपों से गुजरता हूँ। पहले मैंने लिखा है कि किस तरह जेम्स मिल ने यह शंका जताई कि गणित और खगोलशास्त्र में भारत का दावा खोखला है, वह ग्रीक और फ़ारस से कुछ सीख गए होंगे। लॉर्ड मकाले ने कहा कि भारतीयों में वैज्ञानिक शिक्षा नहीं। भारत की तारीफ़ करते यूरोपीय विचारकों जैसे वोल्टायर ने भी कहा कि हज़ार वर्ष पहले भारत ज़रूर गणित में झंडे गाड़ रहा था, मगर अब वह चेतना मर चुकी है। एक फ़्रेंच खगोलशास्त्री ने कहा कि भारतीय अगर कुछ सिद्धांत गढ़ भी दें, वे प्रयोग से सिद्ध नहीं कर सकते। उनमें सिर्फ़ सोचने की क्षमता हो सकती है, प्रयोग का धैर्य और रुझान नहीं।

भारतीय विचारकों जैसे बंकिमचंद्र चटर्जी और ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने यह माना कि भारत विज्ञान में बहुत पीछे है। सिर्फ़ इसलिए नहीं कि धन की कमी है, या शिक्षण संस्थान नहीं, बल्कि बच्चों में विज्ञान की ओर झुकाव ही कम है। यही कारण है कि स्वयं विज्ञान के कम ज्ञान के बावजूद उन्होंने बाल-पुस्तिकाओं और अपने लेख से बच्चों में रुचि जगाने के प्रयास किए। इसके प्रभाव दिखने शुरू हो गए।

राधानाथ सिकदर की चर्चा तो मैंने पहले की है, प्रमथ नाथ नामक एक भूगर्भ-शास्त्री ने झारखंड में लौह इस्पात ढूँढा, जिसके कारण वहाँ टाटा स्टील की स्थापना हुई। वहीं एक संस्कृत के पंडित और आयुर्वेदाचार्य मधुसूदन गुप्त ने कलकत्ता मेडिकल कॉलेज में दाखिला लिया, और आधुनिक भारत के पहले व्यक्ति बने जिन्होंने एक लाश का एनॉटॉमिकल डिसेक्शन किया। उसी संस्थान से निकले एक और चिकित्सक महेंद्रनाथ सरकार ने भारत में आधुनिक विज्ञान की नींव रखी।

उन्होंने कहा, “हम इस भ्रम को तोड़ेंगे कि विज्ञान सिर्फ़ पश्चिम की थाती है। हम अपना संस्थान बनाएँगे, जहाँ भारतीय प्रयोगों के माध्यम से विज्ञान सीखेंगे। यह एक स्वदेशी प्रयोगशाला होगी। मैं मानता हूँ कि विज्ञान ही इस समाज को पूर्वाग्रहों, असहिष्णुता, और रूढ़िवाद से भी मुक्त कर सकता है। यह हमें वह शक्ति दे सकता है कि हम पश्चिमी ताकतों से लड़ सकें।”

1876 में कलकत्ता के बो बाज़ार के एक घर में यह पहली ज्योति जलायी गयी, जिसका नाम पड़ा ‘इंडियन एशोसिएशन फॉर कल्टिवेशन ऑफ साइंस’ (IACS). हालाँकि इससे पहले महेंद्रनाथ स्वदेशी दवाओं के ट्रायल के लिए भी एक असफल संस्थान बना चुके थे, लेकिन इस बार तैयारी बेहतर थी।

स्वयं महेंद्रनाथ वहाँ माइकल फराडे के विद्युत सृजन का प्रयोग दोहराने का प्रयास करते हैं, और सफल होते हैं। वह एक टेलीस्कोप से कभी बृहस्पति ग्रह दिखाते हैं तो कभी भारतीय सर्पों पर प्रयोग करते हैं। वह यह कार्य बच्चों और युवाओं के समक्ष करते थे, कि उनमें रुचि जागे। उनका उद्देश्य कोई महान आविष्कार करना नहीं, बल्कि ऐसी पौध तैयार करना था जो यह कर सके।

सेंट ज़ेवियर कॉलेज के एक शिक्षक यूजीन लाफोंट भी उनसे कुछ प्रयोग सीखने और करने लगे। जहाँ शहरी बच्चों को साहित्य और कला में ही भविष्य दिखता, गाँव के बंगाली पाठशाला से पढ़ कर कलकत्ता आए जगदीशचंद्र बोस की इस प्रयोगशाला में कुछ रुचि जगने लगी।

तीन दशक बाद जब वह पेरिस में बोल रहे थे, तो स्वामी विवेकानंद से रवीन्द्रनाथ टैगोर तक यूँ ही उत्साहित नहीं थे। बोस ने इस मिथक को तोड़ दिया था कि भारतीय विज्ञान नहीं कर सकते। भारतीय विज्ञान न सिर्फ़ कर रहे थे, बल्कि एक बड़े आविष्कार की ओर बढ़ रहे थे।

✍🏻प्रवीण झा

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