अशोक मधुप
हम नदियों से उसके आसपास रहने वालों को जोड़ें। नदियों के किनारे पेड़ लगाएं जो नदियों का कटान रोकें। ऐसे पेड़ लगाएं, जो आसपास के ग्रामवासियों की आय का साधन बनें। औषधि वाले पेड़ उगाएं। इनके परंपरागत कुटीर उद्योग को विकसित करने में मदद करें।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कोरोना महामारी के शुरू होते नारा दिया था, आपदा को अवसर में बदलिए। इस पर काम भी हुआ आज काफी सामग्री देश में ही बनाई जा रही है, हमने बहुत कर लिया, किंतु आजादी के लगभग 74 साल के बाद भी हम मानसून को, बरसात के आगमन को अवसर में नहीं बदल पाए। इसका लाभ नहीं ले पाए। कोरोना महामारी आजादी के बाद पहली बार आई। इसे हमने अवसर में बदला। जरूरत के सामान बनाए। मास्क बनाए। पीईपी किट बनाई। सेनेटाईजर बनाए। वैंटीलेटर बनाए। इस आपदा में हमने रोजगार के अवसर पैदा किए। अब तक जो सामान अन्य देश से आता था, वह काफी हमारे यहां ही बनने लगा।
प्रत्येक साल आने वाले मानसून की तबाही को देखते हुए ऐसा नहीं किया जा सका। हम इसका लाभ नहीं उठा सके। इस आपदा को अवसर में नहीं बदल सके। इसके लाभ उठाने के लिए योजनाएं बनाईं किंतु उनको सही ढंग से लागू नहीं कर सके। अधिकतर योजनाओं पर तो हम अमल करना ही भूल गए। इन नदियों के प्रबंधन के लिए तैनात अधिकारियों की रूचि अपने कार्य में जनहित देखना कम है, लाभ देखना ज्यादा। इसीलिए बार−बार तबाही आ रही है। ये आपदा रोकने के लिए पहले वाली योजनाएं नहीं बनाते। बनाते हैं तो सही से लागू नहीं करते। ये आपदा आने के बाद की योजनाएं बनाते हैं। इनका पूरा ध्यान बाद की योजनाओं पर होता है। इनमें इन्हें ज्यादा लाभ नजर आता है। दूसरा ये हर वर्ष आती भी हैं। इसी का परिणाम है कि मानसून जब आता है, तो आपदा लेकर आता है, जल प्रलय लाता है। विनाश लेकर आता है। और हम इसे रोक नहीं पाते। असहाय बने तमाशा देखते रह जाते हैं।
हमने नदी के रास्तों पर कब्जे कर मकान बना लिये। कॉलोनी बना लीं। तालाब बंद कर दिए। तालाब प्रकृति प्रदत्त होते हैं। इस तरह से बने हैं कि क्षेत्र का सारा पानी इनमें आ जाए। तालाब के चारों साइड में इस तरह ढाल बना होता है कि क्षेत्र का सारा पानी इनमें आता है। इन्हें हमने बंद कर दिया। इनकी जगह बड़े−बड़े भवन बनाकर खड़े कर दिए। झीलों पर कब्जे कर लिए। इसी का परिणाम है कि हर साल जब मानसून आता है, तब जलप्रलय लाता है। विनाश लाता है। काश हमने नदियों को आराम से बहने दिया होता। झरने को गुनगुनाने दिया होता। झील को मदमस्त हो विचरने दिया होता। तो ये तबाही के मंजर हमारे सामने न आते, जिन्हें हम आज देख रहे हैं।
हर साल मानसून में नदियों में पानी के साथ सिल्ट, पत्थर, रेत आता है। यह धीरे– धीरे एकत्र होता जाता है। इससे नदियों के बहाव की क्षमता कम हो जाती है। मानसून में बारिश होने पर ये नदियां उफन कर तबाही लाती हैं। धन संपदा को नुकसान पहुंचाती हैं। जरूरत है कि बरसात के बाद हम नदियों की पाट (मेन स्ट्रीम) की वैज्ञानिक आधार पर सफाई कराएं। उनके पाट को गहरा करें। ऐसा करने से बरसात में नदियों के उफनने को बहुत कम किया जा सकता है। नदियों से निकले पत्थर और रेत को नीलाम करके लाभ ले सकते हैं। होता यह है कि नदियों की सफाई के लिए हम लोगों को ठेके दे देते हैं। ये लोग, ये कंपनी निर्धारित स्थान पर कार्य न कर नदियों के किनारे पर खनन करतीं हैं। नदियों के पाट से निकासी में ज्यादा व्यय होता है। ये संबंधित अधिकारियों से मिलकर अनियोजित ढंग से काम कर नदियों के किनारे चीरती हैं। अपने लाभ के निर्धारित मात्रा से ज्यादा गहराई तक खनन करती हैं। इस खदान से नदियों को लाभ न होकर नुकसान ज्यादा होता है। उनकी धार की जगह में मिट्टी, रेत और पत्थर पहले की ही तरह भरे रहते हैं। जहां खनन हुआ, उससे वन्य प्राणियों के प्राकृतिक आवास खत्म होते हैं। गलत खनन से अगले साल आया पानी मुख्य धार में न जाकर नदियों के किनारे काटता है। पहले से ज्यादा विनाश लाता है। नदियों की सीम निर्धारित करें। उसके किनारे सड़क बनाएं। इससे जमीन का कटाव रूकेगा। यातायात सुगम होगा।
हम नदियों से उसके आसपास रहने वालों को जोड़ें। नदियों के किनारे पेड़ लगाएं जो नदियों का कटान रोकें। ऐसे पेड़ लगाएं, जो आसपास के ग्रामवासियों की आय का साधन बनें। औषधि वाले पेड़ उगाएं। इनके परंपरागत कुटीर उद्योग को विकसित करने में मदद करें। नदियों के किनारे रहने वाले ये वे केवट हैं जो वन जाते भगवान राम को नदी पार कराते हैं। आश्रय देते हैं। भगवान राम से नगरवासियों सहित मिलने आ रहे भरत को देखकर भगवान राम की सुरक्षा को लेकर चिंतित हो जाते हैं। ये मान लेते हैं भरत भगवान राम पर हमला करने आ रहे हैं। और ये भरत से युद्ध करने को तैयार हो जाते हैं। नदियों के किनारे रहने वाले नदियों के सुरक्षा प्रहरी हैं। नदी इनकी मां से ज्यादा है। उसकी सुरक्षा, देखरेख इन्हें सौंपिए। इन्हें आर्थिक रूप से संपन्न बनाइये। हमने स्वार्थ के लिए नदी किनारे के उत्पाद के व्यवसायियों को ठेके दे दिए। इन धन कमाने वालों की रूचि नदियों के जिंदा रहने में कम, उसके दोहन में ज्यादा है। इसे रोकिए। ये आर्थिक रूप से संपन्न होंगे तो देश संपन्न होगा।
शहरों की जल निकासी की योजनाएं न हम सही तरीके से बना रहे हैं। बना रहे हैं तो उन्हें ठीक से लागू नहीं कर रहे। जनप्रतिनिधियों की रूचि नाले बनाने में नहीं हैं, क्योंकि वह दिखती नहीं। उसका राजनैतिक लाभ उन्हें नहीं मिलता। उनकी रूचि सड़क बनाने में हैं, जो दिखतीं हैं। बरसात से आने वाली विपदा को तो वह सीजनल, कुछ समय की मानते हैं। कहते हैं कि अब बरसात होती ही कितनी है। इसी कारण बरसात आती है। पानी भरता है। शोर मचता है। कुछ कृषि वैज्ञानिक सुझाव दे रहे हैं कि शहरों के जल निकासी के नाले शहर में चारों ओर रिंग रोड की तरह बनाएं। इन्हें आपस में जोड़ें। इनका पानी कृषि से लिए ज्यादा लाभकारी है, इसे किसानों को दें। उन्हें इस पानी से कृषि करने के लिए प्रेरित करें। इससे फल और सब्जी हमें ज्यादा और गुणवत्तापूर्ण मिलेंगी।
वैसे शहर के इन नालों की सफाई का ध्यान हमें बरसात आने से कुछ ही पूर्व आता है। जब तक ठेके आदि होते हैं, तक तक तबाही आ चुकी होती है। नालों और सीवरेज की सफाई हम बरसात के तुरंत बाद और बरसात आने से कुछ पहले क्यों नहीं पूरी कर लेते। इससे निकली मिट्टी और कचरे को खाद के रूप में प्रयोग कर सकते हैं। काफी तालाबों पर कब्जे हो गए। इसके बावजूद कुछ बचे हैं। कोर्ट के आदेश पर पिछले साल में इन्हें गहरा किया गया। इससे बरसात का पानी इनमें काफी स्रंग्रह होने लगा। कोरोना आपदा काल में शहरों से गांव लौटे श्रमिकों के लिए हमने रोजगार जुटाने के लिए भी इन तालाब पर काम किया। पर हमने इन्हें लाभ के लिए सही से प्रयोग नहीं किया। इनमें हम पानी में होने वाली सब्जी लगा सकते थे। मछली पाल सकते थे। ये भी सुझाव आया है कि ऐसे पाठ़यक्रम बनाए जाएं जो ग्रामीण परियोजना पर हों। उसके विकास के रास्ते बताएं। हमारा देश कृषि प्रधान है। युवाओं को ऐसी शिक्षा दें तो ग्राम में लघु कुटीर उद्योग के रास्ते खोले। देश के कई विकास खंड में जलस्तर काफी नीचे चला गया। ये डार्क जोन में आ गए। यदि हम बरसात के जल को सही ढंग से संग्रह करें तो इस समस्या का निदान हो सकता है। बहुत कुछ किया जा सकता है। सोच बदलनी होगी। आपदा में अवसर तलाशने होंगे।
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