कृष्ण प्रताप सिंह
अवध का पुराना नाम कोशल है। इसीलिए अयोध्या के पुराने राजाओं को ‘कोशलाधीश’ कहा जाता है। स्वाभाविक ही कोशल से अवध तक की इसकी लंबी यात्रा के अनेक पड़ाव हैं। इतने कि कोई सबकी चर्चा करने चले तो समय कम पड़ जाए। अलबत्ता, अवध के रूप में इसे पहला ब्रेक मुगल बादशाह अकबर के वक्त 1580 में मिला, जब उन्होंने इसे अवध नाम से ही अपनी सल्तनत का सूबा बनाया।
दरअसल, उन्होंने पांच नवंबर, 1556 को पानीपत के ऐतिहासिक मैदान में शेरशाह सूरी के वंशज आदिलशाह के वजीर-ए-आजम कर्नल हेमू को शिकस्त दी तो मुगल सल्तनत की नींव दोबारा मजबूत करके ही नहीं रह गए, बंगाल से सिंध व काबुल से अहमदनगर तक अपना परचम फहराया। इसके बाद बेहतर शासन व्यवस्था के लिए उन्होंने सल्तनत को सूबों में बांटा तो उत्तरी क्षेत्र के सूबे का नाम अवध रखा। 1602 तक उनके सूबों की संख्या 12 से बढ़कर 18 हो गई थी और अवध के अलावा अन्य सूबों के नाम थे : काबुल, लाहौर, मुल्तान, दिल्ली, अकबराबाद (आगरा), इलाहाबाद, अजमेर, गुजरात, मालवा, अजीमाबाद (बिहार), बंगाल, खानदेश, बरार, अहमदनगर, उड़ीसा, कश्मीर और सिंध।
उन दिनों के हालात में उनका अवध को सूबा बनाना एक तरह से इस अंचल को राजनीतिक स्थायित्व प्रदान करना था। इतिहासविद प्रो हेरम्ब चतुर्वेदी के अनुसार इसके कई भू राजनीतिक और व्यापारिक कारण थे। यह और बात है कि सूबा-ए-अवध को साढ़े तीन सौ साल की उम्र भी नसीब नहीं हुई। 1902 में ईस्ट इंडिया कंपनी की गोरी हुकूमत ने इसे आगरा के साथ मिलाकर ‘यूनाइटेड प्रॉविंसेज ऑफ आगरा ऐंड अवध’ में बदल दिया, जो आजादी के बाद उत्तर प्रदेश बन गया।
बहरहाल, अकबर ने अपने सूबों में सूबेदारों की नियुक्ति कर उनकी मार्फत हुकूमत की जो शुरुआत की, वह औरंगजेब के वक्त तक सफलतापूर्वक चलती रही। 1586 से 1594 की छोटी-सी अवधि को छोड़कर, जब अकबर ने अमीरों द्वारा शासन की व्यवस्था लागू कर दी थी। तब उन्होंने फतेह अली व कासिम खान को अवध का अमीर नियुक्त किया था। लेकिन कई कारणों से अमीरों की यह व्यवस्था लंबी उम्र नहीं पा सकी, जिसके चलते फिर सूबेदार नियुक्त किए जाने लगे। कई बार उनको नाजिम भी कहा जाता था।
औरंगजेब के बाद लगातार कमजोर पड़ती जा रही मुगल सल्तनत तेरहवें बादशाह मुहम्मदशाह ‘रंगीला’ (1719-1748) के वक्त तक अपना इकबाल खो बैठी तो उसे 1719 में नियुक्त अवध के सूबेदार गिरधरबहादुर नागर को तीन साल बाद ही हटाकर मालवा भेज देना और सआदत अली खां प्रथम के अहसानों का सिला देने के लिए उन्हें अवध का सूबेदार बनाना पड़ा।
सआदत ने अपनी स्थिति मजबूत होते ही 1732 में अवध को अपनी स्वतंत्र सल्तनत घोषित कर दिया, जिसके बाद आया नवाबों का राज नाना प्रकार की उथल-पुथलों के बीच तेरह पीढ़ियों तक जारी रहा। इस दौरान अवध भारतीय और ईरानी कला और संस्कृतियों के दुर्लभ समन्वय का साक्षी तो बना ही, उस दौर का भी गवाह बना, जिसकी बाबत प्रेमचन्द ने अपनी ‘शतरंज के खिलाड़ी’ कहानी में लिखा है : छोटे-बड़े, गरीब-अमीर सभी विलासिता में डूबे हुए थे।…जीवन के प्रत्येक विभाग में आमोद-प्रमोद का प्राधान्य था।…संसार में क्या हो रहा है, इसकी किसी को खबर न थी।’
आगे चलकर अवध को इस बेखबरी की कीमत अपने अस्तित्व से चुकानी पड़ी। 23 अक्टूबर, 1764 को बक्सर की ऐतिहासिक लड़ाई जीतने के बाद सूबे में शनैः-शनैः अपना दखल बढ़ाती रही ईस्ट इंडिया कंपनी ने 11 फरवरी, 1856 को नवाब वाजिदअली शाह को अपदस्थ कर न सिर्फ उनका राज्य हड़प लिया, बल्कि उन्हें कलकत्ता स्थित मटियाबुर्ज निर्वासित कर दिया। इसके अगले ही साल, उनकी बेगम हजरतमहल ने पांच जुलाई, 1857 को अपने अवयस्क बेटे बिरजिस कदर के सिर पर नवाबी का ताज रखवाकर बागी सेनाओं व तालुकेदारों की मदद से कंपनी की सेनाओं को इस कदर खदेड़ा कि उसकी सत्ता लखनऊ की रेजिडेंसी तक ही सीमित रह गई। लेकिन बिरजिस कदर की हुकूमत लंबी उम्र नहीं पा सकी और कंपनी के भीषण प्रत्याक्रमण के बाद 15 मार्च, 1858 को मुंह अंधेरे ही उन्हें लखनऊ से भागकर नेपाल में शरण लेनी पड़ी। सूबे में इसके बाद से आजादी तक का इतिहास अंग्रेज ही लिखते रहे।
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