राजकुमार सिंह
अचानक तेज हुई पंजाब की राजनीतिक सरगर्मियां क्या बताती हैं? यही कि बात अगर राजनेताओं के अपने हितों पर आ जाये, तो वे तीन कदमों में त्रिलोक माप लेने की कवायद और धरती पर ही स्वर्ग उतार लाने के वायदे करने से भी पीछे नहीं हटते। अब जबकि अगले विधानसभा चुनाव बमुश्किल नौ महीने ही दूर रह गये हैं, अपने-अपने सुरक्षित पनाहगाहों से निकले पंजाब के राजनेताओं में खुद को जनता की चिंता में दुबला दिखाने की होड़-सी लग गयी है। गरीबी, बेरोजगारी, महंगाई और जर्जर कानून-व्यवस्था तो किसी भी भारतीय राज्य की शाश्वत समस्याएं हैं, पर सीमावर्ती राज्य होने के चलते पंजाब की समस्याएं अतीत और वर्तमान के घटनाक्रम से और भी जटिल हो गयी हैं। सीमा पार से जारी आतंक और उसके हथियारों से लेकर नशीले पदार्थों की तस्करी ने पंजाब के जनजीवन को गहरे तक प्रभावित किया है, पर उससे देश-प्रदेश के नीति-निर्धारकों का ज्यादा सरोकार नहीं रहा।
शेष देश की तरह पिछला सवा साल पंजाब पर भी भारी पड़ा है। अबूझ वैश्विक महामारी कोरोना का कहर जिन भारतीय राज्यों पर सबसे ज्यादा बरपा, उनमें पंजाब भी है। कारणों पर अंतहीन बहस हो सकती है, राजनेता एक-दूसरे पर दोषारोपण में भी माहिर हैं ही, लेकिन अंतिम सच यही है कि पंजाब के समाज ने जान-माल पर कोरोना की बड़ी मार झेली है। सात महीनों से जो किसान आंदोलन देश की राजधानी दिल्ली की दहलीज पर चल रहा है, उसकी शुरुआत दरअसल पंजाब से ही हुई थी। लगभग एक माह तक पंजाब में रेल-सड़क यातायात ठप रहा। फिर अचानक किसानों ने दिल्ली में धरना देने का फैसला किया। दिल्ली में प्रवेश नहीं मिला तो सीमा पर ही डेरा डाल दिया। पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरेंद्र सिंह खुद को किसान हितैषी बताने का कोई अवसर नहीं चूकते। यह अलग बात है कि केंद्र के जिन तीन विवादास्पद कानूनों के विरुद्ध किसान आंदोलनरत हैं, उनसे संबंधित जो कानून पंजाब ने बनाया है, उसे भी कई कृषि जानकार किसानों के हित में नहीं मानते। ऐसा मानने वालों की भी कमी नहीं है कि अपने लिए मुसीबत बन रहे किसान आंदोलन को दिल्ली भेजकर केंद्र सरकार के गले डालने की चाल के सूत्रधार भी अमरेंद्र सिंह ही हैं।
पिछले एक महीने से पंजाब में तेज हुई राजनीतिक सरगर्मियों के मद्देनजर स्वाभाविक सवाल तो यही है कि सवा साल से कोरोना की मार झेल रहे पंजाब और सात महीने से आंदोलनरत किसानों की मदद में इनमें से कोई राजनेता आगे क्यों नहीं आया? बेशक राजनेता चिकित्सक नहीं हैं कि बीमारों का इलाज कर पाते, लेकिन उसके अलावा भी बहुत कुछ ऐसा है, जो राजनेताओं की सामाजिक जिम्मेदारी के दायरे में आता है। क्या कोरोना की पहली लहर के बीच किसी राजनेता ने रोजगार से वंचित, खासकर पलायन को मजबूर हुए प्रवासी मजदूरों की मदद के लिए हाथ बढ़ाया? क्या किसी दल-नेता ने कोरोना से बचाव के लिए जरूरी सावधानियां बरतने की बाबत जागरूकता अभियान चलाया? और जब कोरोना की ज्यादा मारक दूसरी लहर में जरूरी दवाइयों से लेकर अस्पताल में बेड, ऑक्सीजन, वेंटिलेटर तक आम आदमी की पहुंच से बाहर हो गये, क्या कोई राजनेता रहनुमा बनकर सामने आया? इन सवालों का जवाब पंजाब के निवासी अच्छी तरह जानते हैं।
अब केंद्र के तीन विवादास्पद कृषि कानूनों की बात करें। दोनों ही पक्षों की हठधर्मिता के मद्देनजर कानूनों के गुण-दोष पर टिप्पणी को इस समय शायद ही कोई तार्किक दृष्टि से देखना चाहेगा। ऐसी जटिल परिस्थिति में मध्य मार्ग निकालने का दायित्व राजनीतिक दलों-नेताओं पर ही आता है, लेकिन जब राजनीति खुद ही कृषि कानूनों पर दो पालों में विभाजित हो गयी हो, तब किसी से क्या उम्मीद रखेंगे? किसानों का धरना दिल्ली की दहलीज पर जिन चार स्थानों पर चल रहा है, उसमें से दो : सिंघू और टीकरी हरियाणा में, तीसरा जयसिंहपुर खेड़ा राजस्थान में तथा चौथा गाजीपुर बॉर्डर उत्तर प्रदेश में हैं। बेशक गाजीपुर बॉर्डर पर उत्तर प्रदेश या कुछ हद तक उत्तराखंड के किसानों की मौजूदगी है। ऐसे ही जयसिंहपुर खेड़ा बॉर्डर पर राजस्थान के किसान हैं, लेकिन शेष दोनों स्थानों पर तो हरियाणा से ज्यादा पंजाब के ही किसान हैं। ऐसे में किसान आंदोलन का समाधान पंजाब की राजनीतिक और नैतिक जिम्मेदारी भी है, बशर्ते मकसद इसका चुनावी लाभ उठाना भर न हो।
तर्क दिया जा सकता है कि किसान आंदोलन के मूल में केंद्र सरकार के किसान विरोधी कानून और उन पर उसकी हठधर्मिता ही है, तब स्वाभाविक सवाल यह होगा कि आंदोलनकारी किसानों और प्रभावित परिवारों की मदद के लिए पंजाब के किसी दल-नेता ने हाथ क्यों नहीं बढ़ाया? इस मामले में पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरेंद्र सिंह की भूमिका केंद्र सरकार के मंत्रियों से मुलाकात और उन्हें पत्र लिखने तक सीमित रही है, तो पंजाब में कांग्रेस का कप्तान बनने को आतुर क्रिकेटर से राजनेता बने नवजोत सिंह सिद्धू की भूमिका 26 जून को अपने घर पर काला झंडा लगाने तक। शिरोमणि अकाली दल दावा कर सकता है कि उसने विवादास्पद कृषि कानूनों के विरोध में तथा किसानों के समर्थन में न सिर्फ केंद्र सरकार से अपनी मंत्री श्रीमती हरसिमरत कौर बादल को वापस बुला लिया, बल्कि भाजपा से लगभग ढाई दशक पुरानी दोस्ती भी तोड़ दी, पर यह अर्धसत्य है। पूरा सच यह है कि प्रकाश सिंह बादल की जगह उनके बेटे सुखबीर बादल के कमान संभालने के बाद अपने पैर पसारने को उतावली भाजपा अकाली दल में असंतुष्टों को हवा दे रही थी, जिससे दोनों के बीच दूरियां बढ़ने लगी थीं। यह भी कि जिन तीन विवादास्पद कृषि कानूनों के विरोध में हरसिमरत कौर बादल के केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफे का ढिंढोरा पीटा जा रहा है, उन्हें जब पहले अध्यादेश के रूप में लागू किया गया था, तो उसे मंजूरी देने वाली नरेंद्र मोदी कैबिनेट में वह बाकायदा मंत्री बनी रहीं।
जाहिर है, पंजाब में राजनीतिक सरगर्मियों के नाम पर हम जो देख रहे हैं, वह विशुद्ध सत्ता राजनीति है, जो अगले साल फरवरी-मार्च में होने वाले चुनावों से प्रेरित है। पिछले लगभग सवा चार साल से कैप्टन अमरेंद्र सिंह पंजाब में कांग्रेस सरकार का नेतृत्व कर रहे हैं। नवजोत सिंह सिद्धू और प्रताप सिंह बाजवा सरीखों की बीच-बीच में सक्रियता और मुखरता को छोड़ दें तो कैप्टन का यह राज निष्कंटक भी रहा है। ऐसे में पंजाब के हालात को लेकर उठने वाले हर सवाल का जवाब उन्हें देना ही होगा, वह सवाल चाहे उच्च सत्ता महत्वाकांक्षाओं का शिकार सिद्धू पूछें अथवा सत्ता में वापसी को व्याकुल सुखबीर बादल या अकेलेदम पंजाब की राजनीति में अपनी प्रासंगिकता ढूंढ़ रही भाजपा।
इसका अर्थ यह हरगिज नहीं कि इन लोगों-दलों से सवाल नहीं पूछे जाने चाहिए। सिद्धू को सार्वजनिक रूप से बताना चाहिए कि खुद के लिए सम्मानजनक पद की जद्दोजहद के अलावा कांग्रेस और पंजाब के लिए उनका राजनीतिक योगदान क्या रहा है? शिरोमणि अकाली दल प्रमुख के रूप में सुखबीर सिंह बादल को भी बताना चाहिए कि परंपरा के उलट मतदाताओं ने अकाली-भाजपा गठबंधन को 2007 और 12 में लगातार दस साल शासन का जनादेश दिया तो वे जन आकांक्षाओं की कसौटी पर खरा क्यों नहीं उतर पाये? यह भी कि ढाई दशक बाद अचानक फिर बसपा से गठबंधन का वैचारिक आधार क्या है? सवाल आम आदमी पार्टी से भी पूछा जाना चाहिए कि पिछले विधानसभा चुनाव में मुख्य विपक्षी दल के रूप में मिली जिम्मेदारी निभाने के बजाय वह आपस में ही क्यों लड़ती रही? अरविंद केजरीवाल ने वायदा तो कर दिया है कि आप को बहुमत मिलने पर पंजाब का मुख्यमंत्री सिख ही होगा, पर ऐसा कोई नेता है भी या यह निमंत्रण है दूसरे दलों के असंतुष्ट नेताओं को? और आखिर में भाजपा। खुद को विश्व की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी बताने वाली भाजपा के पास सिख बहुल राज्य पंजाब में एक भी ऐसा सिख नेता नहीं है, जिसकी पूरे प्रदेश में स्वीकार्यता हो। ध्यान रहे कि बड़बोले नवजोत सिंह सिद्धू कभी पंजाब में भाजपा का सिख चेहरा होते थे, लेकिन अपनी-अपनी अदूरदर्शिता से आज दोनों ही अजब दोराहे पर पहुंच गये हैं।
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