अजय कुमार
सिक्के का दूसरा पहलू भी है, जिसमें पिछड़ा समाज की राजनीति करने वाले नेतागण बेनकाब होते दिखाई देते हैं, जो दल पिछड़ों की राजनीति करते हैं, उनके सहारे सत्ता हासिल करते हैं, वही सत्ता में आने पर पिछड़ों के हितों को भूल जाते हैं।
उत्तर प्रदेश में विधान सभा चुनाव की आहट सुनाई देते ही सियासतदारों ने पिछड़ा वोट बैंक को लुभाने के लिए हाथ-पैर मारना शुरू कर दिया है। सभी दलों में पिछड़ा समाज के नेताओं को अपने पाले में खींचने के लिए ‘रस्साकशी’ का दौर चल रहा है। इसी के चलते पिछड़ा समाज के नेताओं और दलों की बन आई है। यूपी में पिछड़ा वोट बैंक को काफी सशक्त माना जाता है। किसी भी चुनाव में पिछड़ा वर्ग वोट की महत्ता से इंकार नहीं किया जा सकता है। उत्तर प्रदेश में पिछड़ा समाज की करीब 54 फीसदी की भागीदारी है। यह समाज जिस दल के साथ खड़ा हो जाता हैं, उसकी किस्मत का ताला खुलने के साथ ही जीत करीब-करीब सुनिश्चित हो जाती है, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में पिछड़ा समाज का सियासी माहौल काफी बदल चुका है। पिछड़ा वर्ग की राजनीति में पिछले कुछ वर्षो में काफी बदलाव देखने को मिला है,दजिसके चलते किसी भी दल के लिए एक मुस्त पिछड़ा वोट हासिल कर लेना असंभव हो गया है।
दरअसल, पिछड़ा वर्ग समाज की सियासत ऊपर से तो बहुत मजबूत दिखती है, लेकिन अंदरखाने हालात काफी जुदा हैं। वोट बैंक की सियासत के चलते पिछड़ा समाज काफी बिखर गया है। पिछड़ा समाज में करीब 90 उप-जातियां आती हैं और सबके अपने-अपने नेता हैं, जिनके लिए पिछड़ा समाज की सियासत से पहले अपनी जाति का सियासी भला ज्यादा महत्व रखता है। इसी जातीय राजनीति के चलते पिछड़ा समाज के दिग्गज नेता और पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव, कल्याण सिंह की पूरे पिछड़ा समाज की जगह पिछड़ा वर्ग की कुछ बिरादरियों पर ज्यादा मजबूत पकड़ देखने को मिलती थी।
पूर्व सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव अगर तीन बार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठ पाए तो इसमें अहीर यानी यादव बिरादरी का सबसे बड़ा योगदान रहा था, पिछले करीब 30 वर्षों से समाजवादी पार्टी अहीर वोटों की लंबरदार बनी हुई है। अखिलेश ने भी यही रूतबा बरकरार रखा है। समाजवादी नेता मुलायम सिंह यादव हमेशा ही पिछड़ों से अधिक अहीरों के नेता कहलाए। अहीर वोट बैंक के लंबरदार बने रहे मुलायम के रूतबे के चलते अहीर बाहुल्य जिले इटावा, मैनपुरी, कन्नौज उनका मजबूत गढ़ रहे। इसी प्रकार से पूर्व मुख्यमंत्री और भाजपा नेता कल्याण सिंह की भी पहचान पिछड़ा वर्ग के नेता के रूप से अधिक लोध नेता के रूप में हुआ करती थी। किसी भी चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को अगड़ों और पिछड़ा दोनों वर्ग के मतदाताओं का वोट मिलता था तो इसमें कल्याण सिंह की भूमिका जातीय गणित बैठाने में सबसे अधिक हुआ करती थी। कल्याण सिंह के चलते ही लोध वोट भाजपा की झोली में आसानी से आ जाता था। अलीगढ़, एटा के आसपास के जिले कल्याण सिंह के सियासी दबदबे वाले क्षेत्र माने जाते थे।
आज हालात काफी बदल चुके हैं। अब पिछड़ा समाज के तमाम नेता पूरे पिछड़ा समाज का ठेकेदार बनने की बजाए अपनी बिरादरी के वोटरों के सहारे आगे बढ़ना ज्यादा बेहतर समझते हैं। इसी के चलते प्रदेश में जातिवादी दलों की बाढ़-सी आ गई है। कोई अहीर तो कोई कुर्मियों, निषादों, राजभर समाज का रहनुमा बना हुआ है। इसी प्रकार से अपना दल पटेलों की सियासत को आगे बढ़ाने में लगा रहता है। अपना दल (एस) की अध्यक्ष अनुप्रिया पटेल, निषाद पार्टी के संजय निषाद, सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के ओम प्रकाश राजभर जैसे तमाम नेता इसी फिराक में लगे रहते हैं कि किसी तरह से उनका किसी बड़ी पार्टी से समझौत हो जाए जिससे उनकी सियासत आसानी से परवान चढ़ सके।
बहरहाल, कहने को तो उक्त जातिवादी दलों की नींव अपने समाज का उद्धार करने के नाम पर रखी जाती है, लेकिन इसके पीछे का मकसद समाज से अधिक अपना भला करना होता है। इसीलिए अनुप्रिया पटेल अपने और पति के लिए मंत्री पद मांगती हैं। संजय निषाद अपने को डिप्टी सीएम बनाए जाने की मांग करते हैं। ओम प्रकाश राजभर जो पहले भाजपा के साथ हुआ करते थे और योगी मंत्रिमंडल में शामिल थे, वह भी इस चक्कर में हैं कि कैसे उनकी सियासी महत्वाकांक्षा परवान चढ़ सके।
खैर, सिक्के का दूसरा पहलू भी है, जिसमें पिछड़ा समाज की राजनीति करने वाले नेतागण बेनकाब होते दिखाई देते हैं, जो दल पिछड़ों की राजनीति करते हैं, उनके सहारे सत्ता हासिल करते हैं, वही सत्ता में आने पर पिछड़ों के हितों को भूल जाते हैं। यही वजह है पिछले करीब 20 वर्षों से उत्तर प्रदेश राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग निष्क्रिय पड़ा हुआ है। आयोग के कामों की व्याख्या की जाए तो आयोग का विशेष तौर से काम नई जातियों का सर्वे कराके पिछड़ा वर्ग में शामिल करना होता है, इसके अलावा आयोग जिले में तहसीलदार के जति प्रमाण नहीं बनाने वालों और पिछड़ा समाज के लोगों पर होने वाले अत्याचार या उनकी जमीन पर कब्जा करने वाले दबंगों के खिलाफ कार्रवाई, पिछड़ा वर्ग के लिए निर्धारित आरक्षण के अनुसार उनको नौकरी दिलाने या प्रमोशन के लिए सरकार पर दबाव डालने, राशन दुकान आवंटन में पिछड़ा वर्ग को उसका हक दिलाने, बैंकों से लोन दिलाने आदि का भी काम सरकार पर दबाव बना कर कराता है।
अफसोसजनक बात यह है कि 2001 से आयोग ने पिछड़ा वर्ग में कोई नयी जाति नहीं जोड़ी है। 20021 में 79 जातियां पिछड़ा वर्ग की श्रेणी में शामिल थीं और आज भी यह संख्या 79 से आगे नहीं बढ़ पाई है। जबकि तमाम जाति/उपजाति के लोगों ने अपनी कौम को पिछड़ा वर्ग समाज में शामिल कराने के लिये आयोग को ज्ञापन सौंप रखा है, जिसमें बरनवाल/बर्नवाल, और क्षत्रिय राजपूत,जयसवार/जयसवार राजपूत, डोहर, दोसर, कंकाली, गुलहरे वैश्य, सनमाननीय वैश्य, पोरवाल/पुरवार, बिसाती, डकोत, भरोर, पड़िया, जोशी, कुर्मी सैंधवार/मल्ल आदि जातियां शामिल हैं। एक तरफ उक्त जातियों को इंतजार है कि सरकार द्वारा उनका सर्वे करा लिया जाए ताकि वह पिछड़ा समाज में शामिल हो सकें, लेकिन इससे इत्तर एक कौम ऐसी भी है जिसने बिना सर्वे कराए ही बीजेपी सरकारों पर दबाव बना कर अपनी कौम को पिछड़ा वर्ग में शामिल कर लिया। बात वर्ष 2000 की है उस समय यूपी और केन्द्र दोनों जगह भाजपा की सरकारें थी। अटलजी प्रधानमंत्री और राम प्रकाश गुप्ता यूपी के मुख्यमंत्री थे, उस समय जाट नेताओं ने पहले अटल सरकार पर दबाव बना कर केन्द्र में अपने आप को पिछड़ा वर्ग में शामिल करा लिया और फिर उसी के आधार पर यूपी में भी बिना सर्वे के यही हक हासिल कर लिया था।
खैर, बात आयोग की कार्यशैली की कि जाए तो एक तरफ विभिन्न जातियों को पिछड़ा वर्ग में शामिल करने एवं पिछड़ा समाज की अन्य समस्याओं को लेकर आयोग के यहां हजारों की संख्या में आवेदन पत्र लंबित पड़े हैं, जहां उनकी कोई सुध लेने वाला नहीं है, वहीं विभिन्न सरकारों ने भी इस ओर कभी ध्यान नहीं दिया। बात यही तक सीमित नहीं है। करीब दो दशकों से यूपी की सत्ता पर काबिज हुई सरकारें आयोग के माध्यम से पिछड़ा वर्ग समाज के समस्याएं सुलझाने की बजाए आयोग का विस्तार करके अपनी पार्टी के नेताओं को खुश करने में लगी रहीं हैं। इसीलिए जो राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग कभी एक अध्यक्ष और चार सदस्यों वाला हुआ करता था, आज की तारीख में वह बढ़ते-बढ़ते 28 सदस्यीय हो गया है।
2007 में बसपा सरकार के समय मुख्यमंत्री मायावती ने आयोग का दायरा बढ़ाते हुए इसे पांच सदस्यीय से बीस सदस्यीय कर दिया था। जिसके अनुसार एक अध्यक्ष तो पूर्व की भांति ही रहा, लेकिन 2007 में दो उपाध्यक्ष के नये पद बना दिए गए तो आयोग में चार सदस्यों की जगह 17 सदस्य कर दिए गए। इसके बाद 2012 में अखिलेश सरकार आई तो उसने एक अध्यक्ष और दो उपाध्यक्ष तो रखे ही लेकिन सदस्यों की संख्या 17 से बढ़ाकर 25 कर दी। दुख की बात यह है कि आयोग का दायरा तो बढ़ा दिया गया है, लेकिन आज भी कई जातियों का आयोग में प्रतिनिधित्व नहीं मिल पाया है, जो लोग आयोग में बैठे हैं वह अपनी ढपली, अपना राग छेड़े रहते हैं। यहां यह भी याद दिलाना जरूरी है कि पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने अपने कार्यकाल के दौरान आयोग में नियुक्ति के लिए जरूरी उम्र सीमा का बंधन भी खत्म कर दिया था, पहले आयोग का अध्यक्ष या सदस्य बनने की उम्र सीमा 65 वर्ष हुआ करती थी, लेकिन मुलायम ने उम्र सीमा का बंधन पूरी तरह से तोड़ दिया, क्योंकि वह अपने एक उम्रदराज वफादार साथी को आयोग की कुर्सी पर बैठाना चाहते थे। इतना सब होने के बाद भी आयोग अपने उददेशय पूरे नहीं कर पा रहा है।
किसी भी आयोग में अध्यक्ष या फिर सदस्य बनने का क्रेज लोगों में इसलिए होता है, क्योंकि इसमें सुविधाए बेहद मिलती हैं यहां तक कि आयोग के अध्यक्ष को राज्यमंत्री का दर्जा, सरकारी गाड़ी, बंगला और वेतन सहित तमाम सुविधाएं मिलती हैं तो सदस्यों को भी करीब 25 हजार प्रति माह पारिश्रमिक मिलता है।
बहरहाल, पिछड़ा समाज को अपने साथ जोड़ने को बेताब दिख रही भारतीय जनता पार्टी की योगी सरकार भी पिछड़ा वर्ग आयोग के कामकाज को लेकर ज्यादा गंभीर नहीं है। इसीलिए उसके द्वारा पिछड़ा वर्ग आयोग के अध्यक्ष बनाए गए फागू चौहान के बिहार का राज्यपाल बनने के बाद आयोग का नया अध्यक्ष बनाने में डेढ़ वर्ष से अधिक का समय लग गया। हाल ही में काफी दबाव पड़ने के बाद योगी सरकार ने 20 जून को जसवंत सैनी को आयोग का अध्यक्ष नियुक्त किया है, लेकिन चुनावी बेला में सैनी पिछड़ों का कितना भला कर पाएंगे, यह यक्ष प्रश्न बना हुआ है।