आदिवासियों का गौरवशाली इतिहास
विशद कुमार
बोकारो के जैना बस्ती में मनोज हेम्ब्रम रहते हैं, जो आदिवासियों का गांव है। मनोज को नहीं पता कि आदिवासियों के नायक सिदो मुर्मू और कान्हू मुर्मू कौन थे, क्यों शहीद हुए? इसी गांव के लोबेसर मांझी सिदो-कान्हू को तो जानते हैं, लेकिन शहादत की वजह उन्हें भी नहीं पता। आज हूल (विद्रोह) दिवस है, इस पर हमने सीधे आदिवासियों से जानने की कोशिश की कि वे आज के दिन हुई इस क्रांति के बारे में कितना जानते हैं? लेकिन आदिवासियों के पास चलने से पहले यह जान लेना बेहतर होगा कि हूल (विद्रोह) दिवस को हुआ क्या था। झारखंड के लिए जून विशेष महत्व का महीना है। 9 जून को बिरसा मुंडा शहीद हुए थे। उन्हें जेल में धीमा जहर देकर मार दिया गया। 30 जून 1855 को सिदो-कान्हू के नेतृत्व में अंग्रेजों और महाजनों के खिलाफ हूल (विद्रोह) हुआ था, जिसमें करीब 20 हजार आदिवासी मारे गए। आखिर में अपने ही लोगों ने मुखबिरी करके दोनों भाइयों को पकड़वाया, जिसके बाद 5 जुलाई को सिदो-कान्हू को भोगनाडीह गांव में एक पेड़ पर फांसी दे दी गई। अंग्रेज इतिहासकार विलियम विल्सन हंटर ने अपनी किताब The Annals Of Rural Bengal में लिखा है कि अंग्रेजों का ऐसा कोई भी सिपाही नहीं था, जो आदिवासियों के इस बलिदान पर शर्मिंदा न हुआ हो।
झारखंड का सरकारी अमला, कुछ एक सामाजिक संगठन और राजनीतिक दलों के बीच हूल दिवस की एक औपचारिक पहचान तो बन गई है, लेकिन राज्य के आम आदिवासी अभी इससे दूर ही हैं। यह विद्रोह संताल आदिवासियों ने किया था, इसलिए हमने सीधे उन्हीं से बात की। जैना बस्ती निवासी लोबेसर मांझी ने पहले तो कहा कि इस दिन बिरसा मुंडा को याद करते हैं, फिर जब सिदो-कान्हू के बारे में पूछा तो बोले कि इस दिन बिरसा नहीं, सिदो-कान्हू को याद किया जाता है। हालांकि 52 साल के लोबेसर को अंत तक यह नहीं पता था कि हूल दिवस किस दिन मनाते हैं।
इसी गांव के मनोज हेम्ब्रम, जो इतिहास से स्नातक भी हैं, कहते हैं कि भोगनाडीह के सिदो-कान्हू शहीद तो हुए थे, लेकिन कब, यह नहीं बता सकते। स्नातक कर चुके 37 वर्षीय उपेंद्र हेम्ब्रम को न हूल दिवस का पता है और न ही सिदो-कान्हू के बारे में। उपेंद्र का गांव में एक क्रेशर है। वह गिट्टी-पत्थर भी सप्लाई करते हैं। यहां से हम पहुंचे बिसेसर मांझी के पास, जो क्षेत्र में सोखा के नाम से चर्चित हैं। सोखा मतलब तांत्रिक। सोखा को भी न तो हूल दिवस के बारे में कोई जानकारी है, और न ही सिदो-कान्हू के बारे में।
हालांकि कुछ लोग ऐसे भी मिले, जिन्हें इस विद्रोह की जानकारी थी। दुमका के महेश सोरेन इन दिनों रांची के बुंडू प्रखंड में कॉन्ट्रैक्ट पर जूनियर इंजीनियर हैं। उन्होंने बताया कि 30 जून को हूल दिवस इसलिए मनाते हैं, क्योंकि सिदो-कान्हू ने महाजनों और अंग्रेजों को तिगनी का नाच नचा दिया था। ऐसे ही गिरिडीह के देवरी प्रखंड के धरारी गांव के किशोर मुर्मू मिले, जो मास्टर ऑफ रूरल डिवेलपमेंट हैं। उन्होंने घटना में अंग्रेजों का तो जिक्र नहीं किया, लेकिन उन्हें तारीख और महीना याद है। धनबाद बाघमारा के प्रकाश हेम्ब्रम ने हूल दिवस और सिदो-कान्हू का नाम सुना है। लेकिन उन्हें यह पता नहीं कि हूल दिवस किस दिन मनाया जाता है। वहीं के 28 वर्षीय जयराम हांसदा को हूल दिवस या सिदो-कान्हू के बारे में कुछ भी नहीं पता।
हूल दिवस के बारे में हमने लगभग 50 आम आदिवासियों से जानने की कोशिश की, जिनमें से ज्यादातर को इसकी जानकारी नहीं थी। साफ है कि राज्य के आदिवासी समुदाय अपने गर्वशाली इतिहास और नायकों से परिचित नहीं हैं। इसकी वजह यह है कि इनकी जो पारंपरिक व्यवस्थाएं हैं, वे आज हशिए पर हैं। आदिवासियों की जिस स्वतंत्र संस्कृति, जीवन शैली, खान-पान, रीति-रिवाज, पर्व-त्योहार की बात की जाती रही है, अब उनमें बाहरी तत्वों की इतनी सेंधमारी हो चुकी है कि वे अपने नायकों को भी भूलने लगे हैं।