29 जून/पुण्य-तिथि
सुनने में ही यह बहुत अजीब लगता है कि क्या कोई साधारण रसोइया कभी किसी राष्ट्रव्यापी संस्था का अध्यक्ष बन सकता है; पर अपनी लगन और कर्मठता से जिन्होंने इसे सत्य सिद्ध कर दिखाया, वे थे स्वामी ध्रुवानन्द सरस्वती।
मथुरा (उ.प्र.) के पानीगाँव नामक ग्राम में जन्मे धुरिया नामक बालक को जीवन के 23 वर्ष तक पढ़ने का अवसर ही नहीं मिला। निर्धन और अशिक्षित परिवार में जन्म लेने के कारण कुछ बड़े होते ही उसे पशु चराने के काम में लगा दिया गया। कुछ दिनों बाद स्वामी सर्वानन्द जी ने उसे अपनी संस्कृत पाठशाला के छात्रावास में भोजन बनाने का काम दे दिया।
बच्चों को संस्कृत पढ़ते देखकर उसके मन में भी पढ़ने की लालसा होती थी; पर उसे भोजनालय में काफी समय लग जाता था। एक बार बहुत संकोच से उसने स्वामी जी को अपनी इच्छा बताई। स्वामी जी यह सुनकर बहुत प्रसन्न हुए। वे सबके साथ उसे भी पढ़ाने लगे। उन्होंने उसका नाम धुरेन्द्र रख दिया।
शिक्षा प्रारम्भ होते ही धुरेन्द्र की प्रतिभा प्रकट होने लगी। वह अपने साथियों से सदा आगे दिखायी देते थे। क्रमशः उन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय से शास्त्री, जयपुर से नव्य शास्त्र तथा काशी से दर्शन शास्त्र की उच्च शिक्षा पायी। इसके बाद वे आगरा में शुद्धि सभा के मन्त्री बने। वे बंगाल और गुरुकुल बैद्यनाथ धाम, बिहार में प्राचार्य भी रहे। उनकी ख्याति सुनकर शाहपुर नरेश ने अपने युवराज सुदर्शन देव को पढ़ाने के लिए उन्हें बुलाया और राजगुरु का सम्मान दिया। अन्य अनेक राजाओं की ओर से भी उन्हें भरपूर मान सम्मान प्र्राप्त हुआ।
हैदराबाद के क्रूर निजाम के अत्याचारों से हिन्दुओं की मुक्ति हेतु हुए सत्याग्रह में वे 1,500 साथियों के साथ सम्मिलित हुए और जेल की यातनाएँ सहीं। 1946 में जब सिन्ध प्रान्त में ‘सत्यार्थ प्रकाश’ पर प्रतिबन्ध लगा, तो इसके विरुद्ध उन्होंने कराची में सत्याग्रह किया। गान्धी जी के साथ भी वे अनेक बार जेल गये।
7 जुलाई, 1954 को अलीगढ़ के पास स्थित सर्वदानन्द साधु आश्रम में स्वामी आत्मानन्द से संन्यास की दीक्षा लेकर वे राजगुरु धुरेन्द्र शास्त्री से स्वामी ध्रुवानन्द सरस्वती हो गये। तत्कालीन संयुक्त प्रान्त की आर्य प्रतिनिधि सभा के अध्यक्ष के नाते उन्होंने संगठन में नये प्राण फूँके।
उनकी विद्वत्ता के कारण देश-विदेश से उन्हें निमन्त्रण आते रहते थे। उन्होंने भारत से बाहर युगाण्डा, जंजीबार, बर्मा, मारीशस, सिंगापुर, थाइलैण्ड आदि देशों में आर्यसमाज एवं हिन्दुत्व का प्रचार किया। जब आर्यसमाज ने गोहत्या बन्दी के लिए पूरे देश में आन्दोलन चलाया, तो उसकी बागडोर उन्हें ही सौंपी गयी। इसके लिए उन्होंने दिन रात परिश्रम किया। उनकी योग्यता, समर्पण तथा संगठन क्षमता से सब लोग बहुत प्रभावित हुए। आगे चलकर उन्हें आर्यसमाज की सर्वोच्च संस्था ‘सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा’ का अध्यक्ष बनाया गया।
इस पद पर रहकर उन्होंने विभिन्न इकाइयों में चल रहे विवादों को सुलझाया। वे हर हाल में संगठन हित को ही सर्वोपरि रखते थे। स्वामी ध्रुवानन्द सरस्वती ने संगठन कार्य के लिए अपने स्वास्थ्य की भी चिन्ता नहीं की। 29 जून, 1965 को वे मुम्बई से दिल्ली के लिए अपने आवास से निकले ही थे कि उन्हें तीव्र हृदयाघात हुआ। चिकित्सक के आने से पहले ही उनका शरीर छूट गया।
29 जून/पुण्य-तिथि
देहदानी : शिवराम पंत जोगलेकर
बात 1943 की है। श्री गुरुजी ने युवा प्रचारक शिवराम जोगलेकर से पूछा – क्यों शिवराम, तुम्हें रोटी अच्छी लगती है या चावल ?
शिवराम जी ने कुछ संकोच से कहा – गुरुजी, मैं संघ का प्रचारक हूं। रोटी या चावल, जो मिल जाए, वह खा लेता हूं। श्री गुरुजी ने कहा – अच्छा, तो तुम चेन्नई चले जाओ, अब तुम्हें वहां संघ का काम करना है। इस प्रकार शिवराम जी संघ कार्य के लिए तमिलनाडु में आये, तो फिर अंतिम सांस भी उन्होंने वहीं ली।
शिवराम जी का जन्म 1917 में बागलकोट (कर्नाटक) में हुआ था। उनके पिता श्री यशवंत जोगलेकर डाक विभाग में काम करते थे; पर जब शिवराम जी केवल एक वर्ष के थे, तब ही उनका देहांत हो गया। ऐसे में उनका पालन मां श्रीमती सरस्वती जोगलेकर ने अपनी ससुराल सांगली में बड़े कष्टपूर्वक किया।
छात्र जीवन में वे अपने अध्यापक श्री चिकोडीकर के राष्ट्रीय विचारों से बहुत प्रभावित हुए। उनके आग्रह पर शिवराम जी ने ‘वीर सावरकर’ के जीवन पर एक ओजस्वी भाषण दिया। युवावस्था में पूज्य मसूरकर महाराज की प्रेरणा से शिवराम जी ने जीवन भर देश की ही सेवा करने का व्रत ले लिया।
सांगली में पढ़ते समय 1932 में डा. हेडगेवार के दर्शन के साथ ही उनके जीवन में संघ-यात्रा प्रारम्भ हुई। 1936 में इंटर उत्तीर्ण कर वे पुणे आ गये। यहां उन्हें नगर कार्यवाह की जिम्मेदारी दी गयी। 1938 में बी.एस-सी पूर्ण कर उन्होंने ‘वायु में धूलकणों की गति’ पर एक लघु शोध प्रबंध भी लिखा।
21 जून, 1940 को जब उन्हें डा. हेडगेवार के देहांत का समाचार मिला, वे पुणे में मौसम विभाग की प्रयोगशाला में काम कर रहे थे। उन्होंने तत्काल प्रचारक बनने का निश्चय कर लिया; पर पुणे के संघचालक श्री विनायकराव आप्टे ने पहले उन्हें अपनी शिक्षा पूरी करने का आग्रह किया। अतः शिवराम जी 1942 में स्वर्ण पदक के साथ एम.एस-सी उत्तीर्ण कर प्रचारक बने।
सर्वप्रथम उन्हें मुंबई भेजा गया और फिर 1943 में चेन्नई। तमिलनाडु संघ कार्य के लिए प्रारम्भ में बहुत कठिन क्षेत्र था। वहां के राजनेताओं ने जनता में यह भ्रम निर्माण किया था कि उत्तर भारत वालों ने सदा से हमें दबाकर रखा है। वहां हिन्दी के साथ ही हिन्दू का भी व्यापक विरोध होता था। ऐसे वातावरण में शिवराम जी ने सर्वप्रथम मजदूर वर्ग के बीच शाखाएं प्रारम्भ कीं। इसके लिए उन्होंने व्यक्तिगत संबंध बनाने पर अधिक जोर दिया।
उन दिनों संघ के पास पैसा तो था नहीं, अतः शिवराम जी पैदल घूमते हुए नगर की निर्धन बस्तियों तथा निकटवर्ती गांवों में सम्पर्क करते थे। वहां की पेयजल, शिक्षा, चिकित्सा जैसी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उन्होंने अनेक सेवा केन्द्र प्रारम्भ किये। इससे उनके उठने-बैठने और भोजन-विश्राम के स्थान क्रमशः बढ़ने लगे। इसमें से ही फिर कुछ शाखाएं भी प्रारम्भ हुईं। सेवा से हिन्दुत्व जागरण एवं शाखा प्रसार का यह प्रयोग अभिनव था।
शिवराम जी अपने साथ समाचार पत्र रखते थे तथा गांवों में लोगों को उसे पढ़कर सुनाते। वे शिक्षित लोगों को सम्पादक के नाम पत्र लिखने को प्रेरित करते थे। इसमें से ही आगे चलकर ‘विजिल’ नामक संस्था की स्थापना हुई। इस प्रकल्प से हजारों शिक्षित लोग संघ से जुड़े। आज तमिलनाडु में संघ कार्य का जो सुदृढ़ आधार है, उसके पीछे शिवराम जी की ही साधना है।
60 वर्ष तक तमिलनाडु में संघ के विविध दायित्व निभाते हुए 29 जून, 1999 को शिवराम जी का देहांत हुआ। उनकी इच्छानुसार मृत्योपरांत उनकी देह चिकित्सा कार्य के लिए दान कर दी गयी।
(संदर्भ : पांचजन्य)
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मुख्य संपादक, उगता भारत