राजकुमार सिंह
दो दिन तक इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की सुर्खियां बनी रही विपक्षी नेताओं की बैठक अंत में एजेंडा और अनुपस्थित नेताओं की बाबत स्पष्टीकरण पर सिमट गयी। अक्सर ऐसा नहीं होता कि बैठक कोई और बुलाये, और मेजबानी किसी दूसरे को करनी पड़े। पर राजनीति में तो कुछ भी संभव है। इसलिए राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी यानी एनसीपी के नेता माजिद मेनन की इस सफाई को भी मीडिया ने जगह दी कि यह बैठक दरअसल राष्ट्र मंच के बैनर तले पूर्व केंद्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा ने बुलायी थी, जो एनसीपी प्रमुख शरद पवार के दिल्ली आवास पर हुई। यह भी कि इस बैठक का कोई पूर्व निर्धारित एजेंडा नहीं था, बस समसामयिक मुद्दों पर चर्चा हुई। इस बैठक और आयोजकों के निहितार्थ पर चर्चा से पहले यह जान लेना बेहतर होगा कि कांग्रेस, द्रमुक, राजद और बसपा सरीखे कई प्रमुख दल इसमें शामिल नहीं हुए। जो शामिल हुए, उनमें एनसीपी, तृणमूल कांग्रेस, नेशनल कानफ्रेंस, राष्ट्रीय लोकदल, आम आदमी पार्टी, भाकपा, माकपा के अलावा पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एस. वाई. कुरैशी, पूर्व राजनयिक के.सी. सिंह, सेवानिवृत्त न्यायाधीश ए.पी. शाह और कवि-गीतकार जावेद अख्तर शामिल हैं।
अपने इतिहास के सबसे बुरे दिनों से गुजरते हुए भी कांग्रेस देश का मुख्य विपक्षी दल तो है। ऐसे में उसे किसी भी विपक्षी बैठक में न बुलाये जाने पर सवाल तो उठेंगे ही। जवाबों ने इन सवालों को और संदेह में ही तबदील किया। मसलन, एनसीपी नेता माजिद मेनन की मानें तो कपिल सिब्बल, अभिषेक मनु सिंघवी, शत्रुघ्न सिन्हा, मनीष तिवारी और विवेक तन्खा सरीखे कांग्रेसियों को आमंत्रित किया गया था, जिनमें से कुछ ने अलग-अलग कारणों से असमर्थता जता दी। इस स्पष्टीकरण से सवाल उठ खड़ा होता है कि क्या इस बैठक में दलों के बजाय नेताओं को आमंत्रित किया गया था? जाहिर है, इस सवाल का जवाब आसान नहीं, क्योंकि शरद पवार तो एनसीपी प्रमुख हैं ही, रालोद की ओर से भी स्वयं अध्यक्ष जयंत चौधरी तो नेशनल कानफ्रेंस की ओर से उमर अब्दुल्ला बैठक में शामिल हुए। भाकपा की ओर से राज्यसभा सदस्य बिनॉय विस्वम आये तो माकपा की ओर से पोलित ब्यूरो के सदस्य नीलोत्पल बसु। हां, समाजवादी पार्टी का प्रतिनिधित्व अवश्य उसके प्रवक्ता घनश्याम तिवारी ने किया, जो राष्ट्र मंच के समन्वयक भी हैं।
बैठक के घोषित-अघोषित एजेंडा पर चर्चा से पहले यह भी जान लें कि यह राष्ट्र मंच आखिर है क्या? नौकरशाह से राजनेता बने यशवंत सिन्हा को ज्यादा परिचय की दरकार नहीं। आईएएस की नौकरी छोड़ कर जनता पार्टी के रास्ते राजनीति में आये सिन्हा की गिनती दिवंगत प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के करीबियों में की जाती रही है। चंद्रशेखर के प्रधानमंत्रित्वकाल में ही सिन्हा पहली बार केंद्र में मंत्री बने—और वह भी वित्त मंत्री। क्षत्रपों के बीच टकराव में जब जनता दल बिखरने लगा तो यशवंत सिन्हा भाजपा में शामिल हो गये। राजनीतिक अस्पृश्यता का दंश झेल रही भाजपा ने सिन्हा को पहले तो राष्ट्रीय प्रवक्ता बनाया और फिर 1998 में जब केंद्र में अटलबिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली राजग सरकार बनी तो मंत्री भी बना दिया। अपनी समाजवादी पृष्ठभूमि के बावजूद सिन्हा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा की रीति-नीति से तालमेल बिठाने में सफल रहे, लेकिन नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद परिस्थितियां वैसी नहीं रहीं। नव निर्धारित आयु सीमा भी बाधक बनी। बेशक उनके बेटे जयंत सिन्हा को हजारीबाग से लोकसभा टिकट दिया और केंद्र में वित्त राज्य मंत्री भी बनाया गया, लेकिन यशवंत सिन्हा भाजपा से अलगाव के रास्ते पर इतना आगे बढ़ गये कि इस्तीफा देकर वर्ष 2018 में राष्ट्र मंच बना लिया और इस साल तृणमूल कांग्रेस में शामिल होकर उसके राष्ट्रीय उपाध्यक्ष भी बन गये।
न तो भाजपा-तृणमूल कांग्रेस के रिश्ते किसी से छिपे हैं और न ही मोदी-ममता के संबंध। पश्चिम बंगाल के हाई वोल्टेज विधानसभा चुनाव में भाजपा की तमाम कोशिशों के बावजूद ममता बनर्जी की सत्ता बरकरार रहने से इन रिश्तों में कटुता बढ़ी ही है, जिसकी पुष्टि आये दिन के घटनाक्रम और बयानबाजी से भी होती है। ध्यान रहे कि पश्चिम बंगाल में पहले से भी अधिक बहुमत से ममता सरकार बन जाने के बावजूद मोदी सरकार और भाजपा उसकी घेराबंदी का कोई मौका नहीं चूक रहे तो मुंबई में मुकेश अंबानी के आवास के निकट मिली विस्फोटक लदी कार की जांच की आंच विवादास्पद पुलिस अधिकारी सचिन वाजे से शुरू होकर वाया पूर्व पुलिस आयुक्त परमबीर सिंह, जिन तत्कालीन गृह मंत्री अनिल देशमुख तक पहुंच रही है, वह पवार की एनसीपी से ही हैं।
इस बीच महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे की प्रधानमंत्री मोदी से मुलाकात के बाद राजनीतिक गलियारों में कई तरह की चर्चाओं को बल मिला है। उधर कांग्रेस बिना मांगे ही स्पष्टीकरण दे रही है कि महाराष्ट्र में सरकार के लिए बना विकास अघाड़ी पांच साल के लिए ही है, स्थायी नहीं। ऐसे में कोरोना की दूसरी लहर से निपटने की आधी-अधूरी तैयारियों तथा आंदोलनरत किसानों से संवादहीनता के लिए विपक्ष की आलोचना झेल रही मोदी सरकार की घेराबंदी का इससे बेहतर मौका उसके विरोधियों को और कब मिल सकता था? मत भूलिए कि विपक्षी नेताओं की यह बैठक ममता बनर्जी के लिए पश्चिम बंगाल का मुश्किल रण जीतने की रणनीति बनाने वाले प्रशांत किशोर की शरद पवार से दो मुलाकातों के बाद हुई है।
राजनेताओं की अतृप्त सत्ता लालसा के मद्देनजर यह कह पाना तो मुश्किल है कि 83 साल के यशवंत सिन्हा और 80 साल के शरद पवार ने असीमित संभावनाओं का खेल मानी गयी राजनीति में अपने लिए नयी संभावनाओं की तलाश त्याग दी होगी, लेकिन उनका राजनीतिक अतीत और ज्ञात प्रतिबद्धताएं किसी बेहतर भविष्य की उम्मीद तो हरगिज नहीं जगातीं। यशवंत सिन्हा की विद्वता पर संदेह नहीं,पर क्या वह किसी स्पष्ट राजनीतिक-वैचारिक प्रतिबद्धता का दावा कर सकते हैं? जनाधार वाले राजनेता तो सिन्हा कभी रहे ही नहीं। हां, तृणमूल कांग्रेस असंदिग्ध रूप से ठोस जनाधार वाली पार्टी है, पर यशवंत सिन्हा उसके स्वाभाविक नेता नहीं हैं, आपसी जरूरत का परिणाम भर हैं। शरद पवार अवश्य देश में जनाधार वाले राजनेताओं में से एक हैं, लेकिन उनकी राजनीति हमेशा ही महाराष्ट्र और स्व-केंद्रित रही है, वरना वह अभी तक एक राष्ट्रीय नेता के रूप में स्थापित हो चुके होते। भाग्य से ही छप्पर फाड़ कर कुछ मिल जाये तो बात अलग है, वरना पवार की राजनीति अब बेटी सुप्रिया सुले को वारिस के रूप में स्थापित करने तक सीमित नजर आती है। वाम मोर्चा का जनाधार सिमटते-सिमटते अब केरल तक बचा है।
समाजवादी पार्टी पिछले विधानसभा और लोकसभा चुनाव में भाजपा के मुकाबले चारों कोने चित्त हो चुकी है,पर किसान आंदोलन से बदलते परिदृश्य में उत्तर प्रदेश पंचायत चुनावों से उसे और उसके मित्र दल रालोद को निश्चय ही प्राण वायु मिली है, पर यह योगी आदित्यनाथ सरकार की बेदखली के लिए पर्याप्त होगी, इसमें शक है। हां, महागठबंधन बाजी पलट सकता है, पर सपा-कांग्रेस के बीच शक की खाई गहरी है तो सपा-बसपा के बीच कटुता ही बढ़ रही है। बड़ी सत्ता महत्वाकांक्षाओं वाले छोटे कद के अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी दिल्ली में सत्ता बरकरार रखते हुए भले ही पंजाब में भी सत्ता की उम्मीदें जगा रही हो, लेकिन एक राजनेता और प्रशासक के रूप में वे ऐसी साख नहीं बना पाये हैं कि राष्ट्रीय स्तर पर विकल्प बन सकें। तेजतर्रार ममता के पास जनाधार है, लेकिन राष्ट्रीय सोच और सरोकार का संकेत मिलना अभी शेष है। हां, छवि और प्रशासनिक क्षमता के मद्देनजर ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक अवश्य एक संभावना नजर आते हैं,पर उन्होंने कम से कम अभी तक तो राष्ट्रीय राजनीति के प्रति इच्छा नहीं जतायी है। अपने दूसरे कार्यकाल के दो वर्ष पूरे कर चुकी मोदी सरकार और भाजपा की सबसे बड़ी परीक्षा आठ महीने बाद होने वाले उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में होगी, क्योंकि दोनों बार मोदी की ताजपोशी में देश के सबसे बड़े राज्य ने ही निर्णायक भूमिका निभायी है। विकल्प बनने-बनाने की कवायद की दशा-दिशा के मूल में भी वही है।