भारतीय विदेश नीति और तालिबान
प्रस्तुति – श्रीनिवास आर्य
तालिबान को कौन नियंत्रित कर रहा है, इसे सार्वजनिक नहीं किया जा रहा। मगर जिनके हाथों से इस समूह में ‘खुल जा सिम-सिम’ हो रहा है, उनमें तीन बड़े नाम मुल्ला उमर का बेटा मुल्ला मोहम्मद याकूब, तालिबान के सह संस्थापक मुल्ला अब्दुल ग़नी बारादर, और हक्कानी नेटवर्क का सरगना सिराजुद्दीन हक्कानी का नाम आ रहा है। भारतीय एजेंसियों के लिए हक्कानी नेटवर्क को साधना सर्वाधिक चुनौती भरा काम है।
सोशल मीडिया पर एक सवाल जबरदस्त ट्रोल हुआ कि एस.जयशंकर तालिबान से संपर्क क्यों साधने लगे। ख़बर कतर के एक कूटनीतिक के हवाले से आई। सवाल दर सवाल कि एक राष्ट्रवादी सरकार के विदेशमंत्री तालिबान से क्यों मिल रहे हैं? विदेशमंत्री एस. जयशंकर कुवैत और केन्या दौरे के समय दोहा दो ट्रांजिट विजिट के दौरान उतरे। पहला, 9 जून 2021 को क़तर के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार मोहम्मद बिन अहमद अल मसनद से एस.जयशंकर की मुलाक़ात होती है। दूसरे ब्रेक में 15 जून को क़तर के विदेशमंत्री मोहम्मद बिन अब्दुलरहमान अल थानी, प्रतिरक्षा राज्यमंत्री खालिद बिन मोहम्मद अल अतिया से उनकी भेंट हुई। उस दौरान अफगानिस्तान में अमेरिका के विशेष दूत जलमय िखलजाद से भी विदेशमंत्री एस. जयशंकर की बात हुई थी। जाहिर है, इन मुजाकिरात का केंद्रीय विषय अफगानिस्तान रहा होगा। भारतीय विदेश मंत्रालय इस विषय पर अब भी ख़ामोश है। इस मामले का खुलासा करने वाले क़तर के काउंटर टेररिजम दूत मुतलक बिन मजीद अल कहतानी ने यह नहीं बताया कि एस. जयशंकर दोहा में किस तालिबान नेता से मिले। किंतु, सोशल मीडिया के अति उत्साही खोजी पत्रकारों को विक्रम वेताल वाली कहानी रचनी थी, सो रच दी।
इस कहानी को थोड़ा और विस्तार कश्मीरी नेताओं की दिल्ली बैठक के आगे-पीछे दिया गया, जब महबूबा मुफ्ती ने कहा कि आप तालिबान से बात कर सकते हैं, तो चीन-पाकिस्तान से संवाद करने में क्या दिक्क़त है? हो सकता है महबूबा मुफ्ती से केंद्र सरकार ने सूचना शेयर नहीं की होगी कि विगत दो वर्षों में चीन और पाकिस्तान से कब और कितने दौर की बातचीत विभिन्न दूतों के जरिये हो चुकी है। यदि चीन से संपर्क नहीं साधा गया होता, तो गलवान घाटी में शांति स्थापित नहीं होती। पूरे बंगाल चुनाव में पाकिस्तान के विरूद्ध अगर अग्निवर्षा नहीं हुई, तो उसकी सबसे बड़ी वजह पर्दे के पीछे से बातचीत है, जिसे पब्लिक डोमेन में लाना किसी भी सरकार के लिए मुश्किल भरा क़दम होता है।
यह सही है कि वुहान और महाबलीपुरम जैसा परिदृश्य मोदी व शी तत्काल सृजित नहीं कर सकते, मगर दोनों तरफ से सेना, सिविल सोसाइटी व कूटनीति के स्तर पर संवाद निरंतर जारी है। 22 मार्च 2021 को पीएम मोदी ने ‘पाकिस्तान डे’ पर अपने समकक्ष इमरान खान को बधाई पत्र भेजा था। जवाब में 29 मार्च को इमरान खान ने पीएम मोदी का आभार प्रकट करते हुए क्षेत्र में शांति व स्थिरता के वास्ते कश्मीर समस्या सुलझाने की इच्छा प्रकट की थी। दो माह पहले पाकिस्तान से प्रेम पत्रों का आदान-प्रदान महबूबा मुुफ्ती को याद क्यों नहीं रहता, क्या उसकी वजह उनका वोट बैंक है? उसी तरह इमरान खान की अपनी मुश्किलें हैं। इमरान खान ही नहीं, उनसे पहले पाकिस्तान के जितने शासन प्रमुख रहे हैं, उनके पत्रों को ध्यान से देखिये, तो कश्मीर जरूर होता है। वे कश्मीर की कश्मकश से बाहर नहीं निकलते, क्योंकि उन्हें पाकिस्तान के कट्टरपंथी राजनीति को भी अड्रेस करना होता है।
सात साल की मोदी सरकार में यह कोई पहली बार तालिबान से संपर्क नहीं साधा गया। 9 नवंबर 2018 को मास्को में रूस ने तालिबान-अफगान शांति संवाद का आयोजन किया था, जिसमें भारत की ओर से पाकिस्तान के पूर्व उच्चायुक्त टीसीए राधवन और अफगानिस्तान में राजदूत रहे अमर सिन्हा भेजे गये। इस बैठक में 12 देशों के प्रतिनिधि आए, जिनमें पांच सेंट्रल एशियाई देशों के दूत समेत भारत, चीन, पाकिस्तान, अमेरिका और ईरान ने हिस्सा लिया था।
विदेशमंत्री एस. जयशंकर ने दोहा में अफगान-तालिबान नेताओं से कोई पहली बार संपर्क नहीं साधा है। 12 सितंबर, 2020 को दोहा में इंट्रा-अफगान बैठक के वास्ते विदेश मंत्रालय के तत्कालीन ज्वाइंट सेक्रेट्री जेपी सिंह दोहा भेजे गये थे। तब इंट्रा-अफगान बैठक में बीज वक्तव्य देते हुए एस.जयशंकर ने कहा था, ‘इस देश का कोई हिस्सा अछूता नहीं जहां भारत अपनी विकास परियोजनाओं को नहीं चला रहा है। युद्ध से बर्बाद अफगानिस्तान में 400 से अधिक परियोजनाएं भारत की देखरेख में चल रही हैं। हम अबतक तीन अरब डॉलर इस वास्ते ख़र्च कर चुके हैं।’ यों भारतीय विदेशमंत्री की इस बैठक में हिस्सेदारी वर्चुअल थी, मगर कोविड के समय यही एक विकल्प था।
यह असंभव सी बात है कि तालिबान को अछूत मानकर, या उन्हें दरकिनार कर भारत कोई परियोजना अफगानिस्तान के 34 प्रांतों में आगे बढ़ा ले। काबुल शहर में पेयजल सुविधाएं, कम लागत वाले गृह निर्माण, शाहतूत डैम, रोड, संचार, विद्युत नेटवर्क, सिंचाई व्यवस्था, संसद भवन ऐसी 400 परियोजनाओं को पूरी कर भारत सरकार ने युद्ध से ध्वस्त अफगानिस्तान को संवारने का काम किया है। 2020 के बाद अफगानिस्तान में ऐसी डेढ़ सौ परियोजनाओं पर काम जारी है। ऐसी सहायता कार्यों का श्रेय केवल मोदी सरकार को नहीं दे सकते। तालिबान से अच्छे रिश्तों की शुरूआत मनमोहन सरकार के समय ही हो चुकी थी। 2013 में कतर सरकार ने दोहा में तालिबान के केंद्रीय कार्यालय बनाने की अनुमति दी थी। तब भी भारत ने तालिबान लीडरशिप से संपर्क साधा था।
निरंतर संबंध सुधार का प्रतिफल था कि 18 मई 2020 को तालिबान प्रवक्ता सुहैल शाहीन ने दोहा से ट्विट किया कि कश्मीर मामले में हमारा कोई हस्तक्षेप नहीं रहेगा, ‘अमीरात’ की नीति रहेगी कि पड़ोस से हम सौहार्द्र बनाये रखें। ट्विट के जरिये ऐसे स्पष्टीकरण की जरूरत इसलिए पड़ी क्योंकि इन्हीं में से एक समूह के नेता ने बयान दिया था कि ये काफिर कश्मीर का मसला जबतक हल नहीं करते, हमारी दोस्ती संभव नहीं। कतर के तालिबान कार्यालय में भारत को लेकर समय-समय पर बयानबाजी होती रही है। उस कार्यालय में मुल्ला अब्बास स्तानेकजई ने पिछले साल ही कहा था कि भारत अफगानिस्तान के भ्रष्ट नेताओं को सहयोग करता रहा है, उसे चाहिए कि शांति प्रयासों में हमारे साथ खड़ा हो।
2021 के आरंभ में फाउंडेशन फॉर डिफेंस डेमोक्रेटिक वार लॉ जर्नल ने एक रिपोर्ट में खुलासा किया है कि अफगानिस्तान के 34 प्रांतों में से 19 पर तालिबान की तूती बोलने लगी है। उस लिहाज से काबुल में सरकार का कंट्रोल अब सिर्फ 33 प्रतिशत भूभाग पर रह गया है। दिसंबर 1979 से फरवरी 1989 तक सोवियत संघ ने अफगानिस्तान पर कब्जा कर रखा था। किसी ने सोचा न था कि सोवियत फोर्स को भगाने के वास्ते सीआईए और आईएसआई द्वारा तैयार मुजाहिदीनों का एक समूह अमेरिकियों के लिए स्थायी सिरदर्द बन जाएगा।
अल कायदा से तालिबान के संबंध और फिर 11 सितंबर 2001 को ट्वीन टावर को उड़ा दिये जाने की कथा लंबी हो जाती है। मगर, 1996 में इनके जलवे का जिक्र जरूर होना चाहिए जब काबुल समेत अफगानिस्तान का 90 फीसद भूभाग तालिबान के नियंत्रण में आ चुका था। सिविलियंस की आजादी समाप्त थी। उसी साल तालिबान ने अफगानिस्तान को इस्लामिक एमीरात घोषित कर मुल्ला मोहम्मद उमर को ‘अमीर अल-मू मिनिम’ (निष्ठावानों के कमांडर) घोषित कर दिया था। अक्टूबर 2001 में तालिबानों की सत्ता अमेरिकियों ने एक झटके में तबाह कर दी। लेकिन क्या 20 साल बाद हम वापिस वहीं आने वाले हैं?
20 वर्षों के युद्ध में अमेरिका 2.26 ट्रिलियन डॉलर गंवा चुका है। इस हारे हुए यु़द्ध के बारे में वाटसन इंस्टीट्यूट के डाटा बताते हैं कि अक्टूबर 2001 से अप्रैल 2021 तक 2442 अमेरिकी सैनिक अफगानिस्तान में मारे जा चुके हैं। इनके अलावा 3846 अमेरिकी ठेकेदार, 90 पाकिस्तानी कांट्रेक्टर, लगभग 80 हजार राष्ट्रीय सेना व पुलिस के जवान, जिसमें 9314 पाकिस्तानी भी रहे हैं, मारे गये। 71 हजार 344 की सिविलियंस की मौत हुई, जिनमें पाक नागरिकों की संख्या 24 हजार 99 है। दो दशक के युद्ध में 84 हजार 191 लड़ाके मारे गये, जिनमें पाकिस्तानियों जिहादियों की संख्या 33 हजार थी। 549 ह्यूमनटेरियन एड वर्कर्स मारे गये, उनमें 105 पाकिस्तान वाले थे। दो दशकों के युद्ध में 24 लाख लोगों के मर जाने की नैतिक जिम्मेदारी क्या किसी अमेरिकी राष्ट्रपति को लेनी चाहिए? वाटसन इंस्टीट्यूट के डाटा से यह तो स्पष्ट होता है कि अफगानिस्तान के युद्ध में पाकिस्तानी जान-माल की क्षति अधिकाधिक हुई है। बावज़ूद इसके, पाकिस्तान के जितने वजीरे आजम हुए, उनकी आंखें नहीं खुलीं।
यह देखना दीगर है कि तालिबान को नियंत्रित करनेवाले कमांडरों का अधिकेंद्र क्वेटा है, इस कारण यह ‘क्वेटा शुरा’ के नाम से भी जाना जाता है। तालिबान लीडरशिप कौंसिल को ‘क्वेटा शुरा’ और ‘रब्बानी शुरा’ दोनों कहते हैं। 2013 में मुल्ला उमर की मौत के बाद मुल्ला अकबर मोहम्मद मंसूर को तालिबान प्रमुख बनाया गया था। उसे भी 2016 में अमेरिकी हमले में मार गिराया गया। कुछ समय से हैबतुल्ला अखंजदा तालिबान के कमांडर इन चीफ बने रहे, मगर 14 फरवरी 2021 को अपुष्ट ख़बर आई कि अखंजदा बलुचिस्तान विस्फोट में मारे गये थे। इस समय तालिबान को कौन नियंत्रित कर रहा है, इसे सार्वजनिक नहीं किया जा रहा। मगर जिनके हाथों से इस समूह में ‘खुल जा सिम-सिम’ हो रहा है, उनमें तीन बड़े नाम मुल्ला उमर का बेटा मुल्ला मोहम्मद याकूब, तालिबान के सह संस्थापक मुल्ला अब्दुल गनी बारादर, और हक्कानी नेटवर्क का सरगना सिराजुद्दीन हक्कानी का नाम आ रहा है।
भारतीय एजेंसियों के लिए हक्कानी नेटवर्क को साधना सर्वाधिक चुनौती भरा काम है। सिराजुद्दीन हक्कानी अमेरिका द्वारा घोषित ग्लोबल टेररिस्ट है, फिर भी वह बचा हुआ है। इसे ध्यान में रखें कि तुर्की और पाकिस्तान अमेरिकी व नाटो फोर्स के छोड़ने के बाद नई भूमिका में आएंगे। ऐसे में सिराजुद्दीन हक्कानी सैंया भये कोतवाल जैसी स्थिति में अपना दम खम दिखा सकता है। मुंबई हमले में जैश ए मोहम्मद को ताक़त हक्कानी नेटवर्क से मिली थी। इलियास कश्मीरी का ‘313 ब्रिगेड’ और लश्करे तैयबा, दहशतगर्दों का ऐसा खतरनाक समूह है, जिसे हक्कानी नेटवर्क की सरपरस्ती है। कश्मीर में शांति और लोकतांत्रिक सरकार का गठन और दूसरी तरफ तालिबान को साधना, यह कोई मामूली रणनीतिक चुनौती नहीं है मोदी सरकार के लिए।
(सोशल मीडिया से साभार)