बिखरे मोती : श्रद्धा विवेक वैराग्य से भक्ति चढ़े परवान
बिखरे मोती
श्रद्धा विवेक वैराग्य से
भक्ति चढ़े परवान ।
भक्ति करे कोई सूरमा,
जाको हरि में ध्यान॥1471॥
व्याख्या:- साधारणतया लोग ऐसे व्यक्ति को भक्त कहते हैं,जो राम-नाम का जप करता है अथवा ओ३म् नाम का जप करता है। वस्तुतः भक्ति तो चौथा सोपान है, जो अध्यात्म का शिखर है।इस शिखर तक पहुँचने से पूर्व भक्तों को तीन सोपानों से गुजरना पड़ता है।क्रमशः श्रद्धा,विवेक,वैराग्य। इनकी दृढ़ता और पवित्रता ही साधक को भक्ति के शिखर तक पहुँचाती है।श्रद्धा से अभिप्राय है – सत्य में धारण- श्रत् अर्थात् ‘सत्य’,’धा’ अर्थात् धारण करना श्रद्धा का अर्थ है – यह विश्वास कि संसार के प्रवाह की दिशा ‘सत्य’ की तरफ है, असत्य की तरफ नहीं। इसलिए उस ‘चिरन्तन सत्य’ के अस्तित्व को अगाध भाव से स्वीकार करना ही श्रद्धा कहलाती है।
विवेक से अभिप्राय है – आत्मप्रज्ञा अर्थात् आत्मा और अनात्मा का बोध होना, सत्य और असत्य का ज्ञान होना,प्रज्ञ (जीवात्मा तथा ब्रह्म) तथा प्राज्ञ (प्रकृति) का बोध होना, जिज्ञासु होना,किन्तु भक्ति मार्ग पर चलने के लिए तो बोध के साथ-साथ प्रतिबोध को की भी नितान्त आवश्यकता है।संसार के विषयों की तरफ मुख होना ‘बोध’ कहलाता है जबकि आत्मा की तरफ मुख होना प्रतिबोध है।’बोध’ अविद्या है, ‘प्रतिबोध’ विद्या है, वास्तविक ज्ञान है।इस विद्या से अमृत प्राप्त होता है अर्थात् परमपिता परमात्मा का साक्षात्कार होता है। यहां यह बात ध्यान देने योग्य है कि इंद्रियां जब विषयों की तरफ जाकर उनका ज्ञान कराती हैं तब ‘बोध’ होता है, विषयों से हटकर जब अन्दर अन्तस्थ की तरफ लौटती हैं तब साधक को प्रतिबोध होता है अपने आत्मस्वरूप का बोध होता है यही प्रतिबोध कहलाता है।यह अवस्था साधक को भक्ति- मार्ग पर अग्रसर करती है।
तीसरा सोपान है- ‘वैराग्य’।
वैराग्य से अभिप्राय है – विवेक का जागरण होना अर्थात् चित्त में आसुरी – शक्तियों का उन्मूलन और दिव्य – शक्तियों का यानी कि ईश्वरीय गुणों का अभ्युदय होना वैराग्य कहलाता है।ध्यान रहे!, जब साधक इस अवस्था में पहुंचता है,तब उसके चेहरे पर सौम्यता और दिव्यता झलकती है। इसे ही आध्यात्मिक तेज कहते हैं। ‘भोग्य वस्तुओं में वासना का उदय न होना वैराग्य, की चरम अवधि है।’उदाहरण के लिये महात्मा बुद्ध, महावीर स्वामी, मीरा,महर्षि देव दयानन्द सरस्वती इत्यादि।
चौथा सोपान है भक्ति।भक्ति से अभिप्राय – अपने इष्ट के प्रति प्रेम की प्रगाढ़ता ही भक्ति कहलाती है।जहां प्रेम होता है वहां सत्य,अहिंसा ,करुणा तथा समर्पण की भावना स्वतः ही स्वभाव में भासने लगती है,जैसे-जैसे यह दिव्य गुण साधक के व्यवहार में भासने लगते हैं,तो उसकी भक्ति परवान चढ़ती जाती है।वह प्रभु से तदाकार होने लगता है।इस संदर्भ में गोस्वामी तुलसीदास रामचरितमानस में कितना सुंदर कहते हैं :-
सोई जानइ जेहि देहु जनाई।
जानत तुम्हहि तुम्हइ हो जाई।।
वह ब्रह्यभाव में रहता है और ब्रह्मानन्द की रसानुभूति करता है। भक्ति का मार्ग बड़ा कठिन मार्ग है। इस पर कोई शूरवीर ही चलता है।जिसका ध्यान आठों प्रभु – चरणों सतत् रूप से लगा हो। भक्ति के लिए चित्त की निर्मलता नितान्त आवश्यक है।अतः मैं संक्षेप मैं इतना ही कहूंगा “भक्ति आपके हृदय की भाव – तरंगों को पवित्र,सुकोमल और संवेदनशील बनाने का वह माध्यम है,जो आत्मा को परमात्मा से जोड़ती है, उससे ऊर्जान्वित करती है।”
क्रमशः
प्रोफेसर विजेंद्रसिंह आर्य
मुख्य संरक्षक : उगता भारत